प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का कुछ शब्दों वाला यह कथन ‘यह युद्ध का समय नहीं है’ अंतरराष्ट्रीय राजनीति में ‘बूझो तो जानो’ जैसा पहेली बन गया है। मोदी न तो स्वयं और न उनके विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने इस पहेली की व्याख्या की। सबसे प्रभावशाली कथानक अमेरिका सहित और पश्चिमी देशों और उनकी मीडि़या की ओर से पेश किया गया है। फ्रांस के राष्ट्रपति मैक्रों और अमेरिका के विदेश मंत्री ब्लिंकन ने इसे रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन को माकूल नसीहत बताया। इन नेताओं ने यह भी निष्कर्ष निकाला कि रूस के परंपरागत मित्र देश उसका साथ छोड़़ रहे हैं।
पश्चिमी देशों ने विशेषकर प्रधानमंत्री मोदी को केंद्रित करते हुए यह प्रचारित करने की कोशिश की कि राष्ट्रपति पुतिन का साथ देने वाला कोई देश और नेता नहीं है। भारतीय मीडि़या और विश्लेषकों ने भी इसे अपने आलसीपन में इसी कथानक को दोहराया। अमेरिका समर्थक विश्लेषकों ने जानी–मानी पत्र–पत्रिकाओं में इस आशय के लेख प्रकाशित किए हैं कि भारत धीरे–धीरे‚ लेकिन निश्चित रूप से रूस से दूरी बना रहा है। विदेश मंत्री जयशंकर के पास पिछले एक सप्ताह के दौरान यह पर्याप्त अवसर था कि वह इस बात का खुलासा करें कि मोदी का यह कथन रूस को सद्इच्छा से दी गई एक सलाह है अथवा विदेश नीति में बदलाव का परिचायक है।
भारत की रणनीतिक स्वायत्तता और स्वतंत्र विदेश नीति के समर्थक बहुत से विशेषज्ञ पिछले एक सप्ताह के घटनाक्रम को विदेश नीति में फिसलन अथवा बदलाव के परिपेक्ष्य में विश्लेषित कर रहे हैं। स्वाभाविक है कि क्रेमलिन में भी भारत के हालिया रवैये पर गौर किया जा रहा होगा। इसी संदर्भ में भारत स्थित रूस के राजदूत ने यह भरोसा दिलाया कि विश्व घटनाक्रम के संदर्भ में भारत रूस एक पेज पर हैं। दूसरे शब्दों में उनकी राय एक जैसी है‚ लेकिन रूस के राजदूत के बयान के बावजूद मोदी के कथन को लेकर प्रचारित की जा रही धारणा (परसेप्शन) का खंड़न नहीं हो सकता। इसके लिए तो प्रधानमंत्री कार्यालय अथवा विदेश मंत्री एस. जयशंकर को स्वयं स्पष्टीकरण देना चाहिए। यह सही है कि विदेश नीति में जटिल और संवेदनशील मुद्दे होते हैं तथा उनपर चर्चा चौपाल या चौराहे पर नहीं हो सकती‚ लेकिन एक लोकतांत्रिक देश में जनता को विदेश नीति सहित सभी क्षेत्रों में सरकार की ओर से पारदर्शिता कायम रखने की अपेक्षा होती है।
विदेश मंत्री जयशंकर ११ दिन की अमेरिकी यात्रा पर हैं। पिछले ६ महीने के दौरान अमेरिका और पश्चिमी देशों ने भारत पर दबाव ड़ालने के लिए राजनयिक यात्राओं की झडी लगा दी। हर दूसरे दिन कोई–न–कोई नेता भारत यात्रा पर रहा और यूक्रेन मसले पर भारत की नीति को प्रभावित करने की कोशिश की गई। इतना ही नहीं राजनयिक शिष्टाचार और परिपाटी का उल्लंघन करते हुए उन्होंने भारत के भरोसेमंद दोस्त रूस और राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन के विरुद्ध कटु वाक्य बोले। विदेश मंत्रालय के स्तर पर किसी भी विदेशी नेता को आगाह नहीं किया कि भारत की धरती पर उसके मित्र देश के विरुद्ध आक्षेप और आरोप नहीं लगाएं। इसी रवैये का नतीजा है कि ‘भारत रूस से दूरी बना रहा है’ की धारणा को बल मिल रहा है। जयशंकर अभी अमेरिका में कुछ दिन और रहेंगे। उनसे अपेक्षा है कि वह पूरी स्थिति स्पष्ट करें।
रूस से दूरी बनाना क्या भारत के हित में हैॽ रूस का साथ छोड़़ने पर भारत को चीन और पाकिस्तान के मोर्चे पर कितनी कीमत चुकानी पड़े़गीॽ हजारों मील दूर बैठा अमेरिका क्या भारत की मदद के लिए सामने आएगाॽ देर–सबेर सरकार को इसका जवाब देना होगा।
भारत और यूक्रेन के संबंध में नीति बदलने के लिए अभी सीधे रूप से कोई धमकी नहीं दी गई है। चीन के विरुद्ध अमेरिका को भारत के समर्थन और सक्रिय भागीदारी की जरूरत है। भारत भी अमेरिका की इस मजबूरी के दायरे में अमेरिका और रूस के साथ अपने संबंधों में संतुलन बनाकर चल रहा है। विदेश मंत्री को अंतरराष्ट्रीय बिरादरी के सामने यह बात बेबाकी से रखनी चाहिए कि भारत संतुलन की नीति को छोड़़कर किसी एक ओर नहीं झुकेगा। देशवासियों की भी उनसे यही अपेक्षा है।