इतिहास उन्हीं का स्मरण करता है‚ जो अपने कार्यों से इतिहास का निर्माण करते हैं। कहा जाता है कि कुछ लोग महान पैदा होते हैं‚ कुछ महानता अर्जित करते हैं‚ और कुछ लोगों पर महानता थोप दी जाती है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय इनमें से दूसरी श्रेणी के थे। न तो उन्होंने किसी समृद्ध परिवार में जन्म लिया था‚ न उनके पास संपत्ति थी और न उनके पास कोई उच्च पद था। इतने पर भी वे भारतीय राजनीतिज्ञों की अगली पंक्ति में पहुंच गए। अनेक प्रसिद्ध नेता मृत्यु के बाद विस्मृति के गर्त में समा गए। दीनदयाल वास्तव में सच्चे महान पुरु षों में से थे‚ जो मृत्यु के बाद और भी उचे उठते हैं।
दीनदयाल भारत के तेजस्वी‚ तपस्वी और यशस्वी चिंतक रहे हैं। उनके चिंतन के मूल में लोक मंगल और राष्ट्र का कल्याण समाहित है। उन्होंने राष्ट्र को धर्म‚ अध्यात्म और संस्कृति का सनातन पुंज बताते हुए राजनीति की नई व्याख्या की। वह दलगत एवं सत्ता की राजनीति से ऊपर उठकर वास्तव में ऐसे राजनीतिक दर्शन को विकसित करना चाहते थे जो भारत की प्रकृति एवं परंपरा के अनुकूल हो और राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति करने में समर्थ हो। अपनी व्याख्या को उन्होंने ‘एकात्म मानववाद’ का नाम दिया। दीनदयाल द्वारा प्रणीत ‘एकात्म मानववाद’ की यही ऐतिहासिक और ता्त्विवक पृष्ठभूमि है। इतिहास की धारा‚ जिसके कारण यूरोप तथा एशिया में पुनर्जागरण का संचार हुआ‚ का परिणामस्वरूप पाश्चात्य एवं भारतीय विचारों में परस्पर मंथन हुआ। पाश्चात्य विचार व भारतीय संस्कृति की तात्विक पृष्ठभूमि में जहां पाश्चात्य प्रयोगों तथा भारत की प्राचीन संस्कृति का महत्व है‚ वहीं स्वातंयोत्तर भारत का राजनैतिक चिंतन निर्णायक रूप से ‘एकात्म मानववाद’ के सृजन का कारण बना।
दीनदयाल मुख्यतः सामाजिक कार्यकर्ता थे। संगठनों को उन्होंने साधन माना‚ साध्य नहीं; लेकिन साधनों की सुडौलता के बारे में वे बहुत सावधान थे। अतः जब उन्होंने अपने साध्य को प्राप्त करने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक तथा जनसंघ को साधन के नाते चुन लिया तो फिर संघ तथा जनसंघ के संगठन को साध्य के अनुकूल साधन बनाने के निमित्त ही उन्होंने आजीवन साधना की। साधनों के बारे में गंभीरता से ध्यान न देने के कारण अनेक सामाजिक व राजनीतिक कार्यकर्ताओं का जीवन ऐसा बन जाता है कि वे साध्य के आग्रही उपासक होने के नशे में संगठन या साधनभूत सामाजिक संस्थाओं को साध्य प्राप्ति के लिए अयोग्य घोषित कर नित्य संस्थाएं तथा मंच बदलते रहते हैं‚ जैसे साधन को साध्यानुकूल बनाना उनका दायित्व न हो। दीनदयाल अपने साधनभूत संगठनों‚ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा जनसंघ के एकनिष्ठ साधक थे।
अखंड भारत की अवधारणा से संबंधित ऐतिहासिक‚ भौगोलिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के विश्लेषणार्थ दीनदयाल ने ‘अखंड भारत क्योंॽ’ नामक पुस्तक लिखी‚ जिसमें उन्होंने प्राचीन भारतीय साहित्य को संदर्भित करते हुए भारत में युगों से चली आई उस सांस्कृतिक एवं राजनीतिक परंपरा का उल्लेख किया है‚ जो भौगोलिक भारत को एक एकात्म राष्ट्र के रूप में विकसित करने में समर्थ हुई थी। दीनदयाल के अनुसार‚ ‘अखंड भारत देश की भौगोलिक एकता का ही परिचायक नहीं अपितु जीवन के भारतीय दृष्टिकोण का द्योतक है‚ जो अनेकता में एकता का दर्शन करता है। अतः हमारे के लिए अखंड भारत कोई राजनीतिक नारा नहीं है.बल्कि यह तो हमारे संपूर्ण जीवनदर्शन का मूलाधार है।’ भारत विभाजन के लिए दीनदयाल अपनी पुस्तक में मुस्लिम पृथकत्व की नीति‚ अंग्रेजों की ‘फूट डालो व राज करो’ की नीति‚ कांग्रेस की राष्ट्रीयता की विकृत धारणा और तुष्टीकरण की नीति को जिम्मेदार मानते हैं। २० दिसम्बर‚ १८८७ में दिए गए सर सैयद अहमद के उस भाषण‚ जिसमें उन्होंने मुसलमानों को कांग्रेस से तथा हिंदुओं से अलग रहने की सलाह दी थी‚ से दीनदयाल ने सुविस्तृत वर्णन किया है।
॥ यह भाषण मुस्लिम पृथकतावाद का प्रथम प्रकटीकरण था‚ जो अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय‚ मुस्लिम लीग और अंततः पाकिस्तान की मांग के रूप में विकसित हुआ। ‘सम्राट चन्द्रगुप्त’ उपन्यास दीनदयाल की साहित्यिक क्षमता और अध्यवसाय का परिचायक है। जिस परिवेश में दीनदयाल ने इस बाल–किशोरोपयोग उपन्यास का लेखन किया‚ उस परिवेश का वर्णन करते हुए उनके सहयोगी नानाजी देशमुख कहते हैं‚ ‘संघ की कार्यशैली ऐसी थी कि दीनदयाल जैसे आदमी की प्रतिभा का तुरंत आंकलन संभव नहीं था। १९३६ से १९४६ तक का ऐसा काल था जब पढ़ना–लिखना हमारे यहां सराहा नहीं जाता था। यहां तक कि नित्य समाचार पत्र भी हम लोग नहीं पढ़ते थे। १९४२ के बाद बाबा साहब आप्टे ने प्रचारकों में पढ़ने–लिखने‚ पुस्तकें सुझाने‚ पुस्तकालयों में जाने आदि का आग्रह प्रारंभ किया। १९४२ के राष्ट्रीय घटनाचक्र ने शाखाओं में संख्या को बहुत प्रभावित किया था। बाबा साहब आप्टे ने ही दीनदयाल की अध्ययन–प्रतिभा को पहचाना। उन्हीं के आग्रह पर ‘सम्राट चंद्रगुप्त’ नामक उपन्यास का उन्होंने एक ही बैठक में लेख किया।’ समस्याओं से भरे देश में सब प्रकार के समाधान निकाल सकने का विश्वास दिलाने वाला प्रकाश पुंज ११ फरवरी‚ १९६८ की अंधेरी रात में बुझ गया। पंडित दीनदयाल उपाध्याय के निधन पर हिंदुस्तान टाइम्स ने ठीक ही लिखा था‚ ‘.देश दूसरे दीनदयाल को तरसेगा और वह सहज सुलभ नहीं है।’ भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था‚ ‘सूर्य ढल गया अब हमें तारों के प्रकाश में मार्ग खोजना होगा।’ प्रजा समाजवादी नेता श्रीनाथ पै ने उन्हें गांधी‚ तिलक और सुभाष चंद्र बोस की परंपरा की ‘एक कड़ी’ बताया। साम्यवादी नेता हीरेन मुखर्जी ने ‘अजात–शत्रु’ की संज्ञा दी और आचार्य जेबी कृपलानी ने ‘दैवी संपदा’ की उपमा दी। निःसंदेह दीनदयाल इतने नम्र और सरल थे कि उनकी महानता पहचान पाना कठिन था और वे इतने महान थे कि उनके आसपास की हर वस्तु ध्येय को समर्पित थी।