कोरोना बीमारी ने जनता को किस कदर तकलीफ पहुंचाई है‚ यह बताने की जरूरत नहीं है। खासकर इस साल मार्च के अंतिम हफ्ते और अप्रैल महीने में कोरोना ने जिस तरह से अपनी लपलपाती जीभ से लाखों लोगों को अपना ग्रास बनाया वह कइयों को ताउम्र याद रहेगा। मगर कई लोग यह बात भी जिंदगी भर नहीं बिसरा पाएंगे कि कोरोना पीडि़तों को मदद करने का अंजाम इतना हाहाकारी होगा। कहते हैं‚‘मदद करने के लिए केवल धन की जरूरत नहीं होती। उसके लिए एक अच्छे मन की जरूरत होती है।’ हालांकि इन बातों से केंद्र की सरकार और उनकी ‘करीबी’ पुलिस रत्ती भर भी इत्तेफाक नहीं रखती है। उसे तो मदद करने वालों की अच्छे से ‘खबर’ लेने के लिए ज्यादा मुस्तैदी से काम करने को कहा गया है। इस ‘भले’ काम के लिए भले हाईकोर्ट का सहारा लिया गया‚ किंतु इससे कोरोना से प्रतिक्षण संघर्ष कर रहे आम जनों को जरूर ठेस पहुंची होगी। उन्हें यह भी मलाल होगा कि क्या मदद करना अपराध है‚ क्या एक अपील पर या फोन कॉल पर मरीज के लिए सांसों का या जीवनरक्षक दवा का इंतजाम करने वाला कानून की धज्जियां उड़़ा रहा हैॽ पुलिस ने अदालत के आदेश पर देशभर में कोरोना पीडि़तों को सहायता पहुंचाने वाले कई लोगों से पूछताछ की है। इनमें युवा कांग्रेस के बी.वी. श्रीनिवास‚ आम आदमी पार्टी के दिलीप पांडे़‚ भाजपा सांसद गौतम गंभीर और सुशील खुराना आदि नेता शामिल हैं। जिस समय मौत से एक–एक सांस के लिए मरीज जूझ रहे हों और उन्हें न तो अस्पताल में और न किसी सांसद‚ विधायक या अपनों से मदद मिल रही हो; अगर उन्हें कोई अपने संसाधन‚ क्षमता‚ संवेदनशीलता और कर्मठता से सहायता पहुंचाता है तो यह बात शासन और सिस्टम को बहुत जोर से खटकती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि सिस्टम को सीधे तरीके से चलने वालों से खुन्नस होती है। फर्ज कीजिए‚ अगर पुलिस की पूछताछ और टोकाटाकी से कितने लोग मदद को हाथ बढ़ाएंगे। आखिर कोई मदद को क्यों आएगाॽ अगर जांच ही करनी है तो दवा‚ ऑक्सीजन सिलेंड़रों व अन्य चिकित्सा उपकरणों की कालाबाजारी और अनाप–शनाप कीमत वसूलने वालों की करनी चाहिए। इसी तरह की बदनीयती का काम बंगलुरू में युवा कांग्रेस के वांलिंटियर्स के साथ किया गया। वहां तो सांप्रदायिक रंग देने की भी गंदी हरकत हुई। मेरा मानना है कि अगर वाकई गलत हो रहा है तो तफ्तीश होनी चाहिए‚ मगर यह भी ध्यान रहे कि मामला पटरी से न उतर जाए।
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