वैदिक धर्म‚ संस्कृति और साहित्य में अनेक पर्वों‚ उत्सवों और त्यौहारों को मनाने की खास परंपरा रही है। वर्ष के बारह महीनों में ये उत्सव और पर्व मानव जीवन को उल्लसित और आंनिदत करने का कार्य करते हैं। ज्ञान‚ विद्या‚ धर्म और सांस्कृतिक संबंधों में ये पर्व और उत्सव खास अहमियत रखते हैं। सबसे अहम बात यह है कि ये पर्व व उत्सव किसी न किसी खास विषय से जुड़े हुए हैं। गुरु पूर्णिमा या व्यास पूर्णिमा भी ऐसा ही पर्व और उत्सव है जो विद्या देने वाले गुरु और विद्या ग्रहण करने वाले शिष्य के पावन संबंधों की पावन अभिव्यक्ति है। मनुस्मृति में इस दिन को उपाकर्म का दिन कहा गया है। यह श्रावणी का प्रारंभ भी माना जाता है। इसे वेद रक्षक ऋषियों को समर्पित शुभ दिन के रूप में माना जाता है। गुरु कुलीय शिक्षा प्रद्धति में वैदिक वांड्.मय का खास महत्व है। बरसात के चार महीने वेदों और वैदिक वाड्.मय के स्वाध्याय के नजरिए से महत्वपूर्ण रहे हैं। चतुर्मास की परंपरा में चार महीने वैदिक ग्रंथों के स्वाध्याय के लिए बनाए गए। इसलिए चतुर्मास का प्रारंभ भी इसी के दौरान हुआ करता था।
गुरु वह शब्द है जो ज्ञान‚ प्रेरणा और मार्गदर्शन का प्रतिबिंब है। वेद में ईश्वर को सबसे बड़ा और महतोमहान गुरु कहा गया है जो मानव की अज्ञानता‚ दरिद्रता और दुख दूर करने वाला है। संसार में चारों तरफ अंधियारा‚ अज्ञानता और दुख छाया हुआ है। इन्हें दूर करने के लिए गुरु या मार्गदर्शक की जरूरत पड़ती है। वेद और गृह सूत्रों में हर मानव के ऊपर तीन कर्जों का जिक्र किया गया है। हमारे जीवन में माता–पिता‚ विद्या या शिक्षा देने वाले गुरु और ऋषियों का ऋण रहता है। अथर्ववेद में इस बारे में बहुत उपयोगी ज्ञान दिया गया है। मंत्र में कहा गया है–अनृणा अस्मिन्ननृणाः परस्मिन‚ तृतीये लोके अनृणाः स्याम। ये देवयानाः पितृयाणाश्च लोकाः सर्वान पथो अनृणा आक्षियेम (अ.६–११७–३) यानी इंसान जन्म लेते ही तीन ऋणों से ऋणी होता है। इन तीन कर्जों से छुटकारा पाना ही जिंदगी का सबसे बड़ा मकसद होना चाहिए। इंसान तीन लोकों को भोगने के लिए तीन शरीर मिले हैं। इसी से यह तीन तरह से कर्ज़दार है। जिस भी लोक में रहें उस लोक का कर्ज उतारने के लिए संकल्पबद्ध रहें। संसार में अनेक क्षेत्रों‚ विषयों‚ वस्तुओं‚ प्रकृति और प्रकृति में रहने वाले जीव–जंतुओं से मानव कुछ न कुछ लेता रहता है। इसलिए सभी के प्रति कृतज्ञता का भाव हमेशा बनाए रखना चाहिए। भगवान कृष्ण गीता में कहते हैं–देव व्दिज गुरु प्राज्ञ पूजनं शौचमार्जवम। म्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्चते- यानी देवता‚ विद्वान‚ गुरुजन‚ बुद्धिमान व्यक्तियों का पूजन करना‚ उन्हें सम्मान देना‚ जीवन को पवित्र रखना‚ जीवन में ऋजुता–सरलता रखना‚ ब्रह्मचर्य का पालन करना और अहिंसा का जीवन बिताना शारीरिक तप है। कहने का भाव यह है कि सभी तरह के गुरु जनों को सम्मान देना और उनके प्रति हमेशा कृतज्ञता का भाव बनाए रखना शारीरिक तप कहा जाता है। इसलिए गुरु पूर्णिमा तप करने का पर्व भी है। यज्ञोपवीत तीन धागों से बनता है। इन तीन धागों में जन्म से लेकर मृत्यु तक जिन तीन गुरुओं का ऋण सबसे ज्यादा होता है। वे हैं–माता–पिता‚ विद्या या शिक्षा देने वाले गुरु और परंपरा से ज्ञान दे रहे हमारे ऋषि–मुनि। जनेऊ के इनतीन धागों में इन तीन गुरुओं के प्रति कृतज्ञता का बोध होता है। गुरु पूर्णिमा के दिन इन तीनों के प्रति कृतज्ञता जताने की परंपरा रही है। गौरतलब है ये तीनों गुरु हैं। इसलिए इन तीनों के प्रति कृतज्ञता का भाव रखते हुए इनके सम्मान में उत्सव का आयोजन करने की परंपरा रही है। गुरु धार्मिक‚ सांसारिक‚ आध्यात्मिक और वैचारिक हो सकते हैं। पौराणिक परंपरा में भगवान दत्तात्रेय ने चौबीस गुरु बनाए थे। ये थे–सूर्य‚ पृथ्वी‚ अग्नि‚ चंद्रमा‚ आकाश‚ जल‚ वायु‚ कपोत‚ हाथी‚ पिंगला‚ समुद्र‚ मृग‚ कुंवारी कन्या‚ काक‚ बालक‚ भौंरा‚ मधुमक्खी‚ लोहार‚ अजगर‚ भृंगी कीड़ा‚ मछली‚ पतंगा‚ मकड़ी‚ सर्प। चौवीस गुरु ओं का एक मतलब यह भी है कि समय के चौबीस घंटों में हर एक घंटा हम यदि किसी से कुछ सीखना चाहें तो जीवन हमारा सफल हो जाएगा। गुरु पूर्णिमा आध्यात्मिक गुरु के साथ–साथ अकादमिक गुरु ओं के सम्मान में मनाया जाने वाला पर्व या उत्सव है। आषाढ़ मास की पूर्णिमा के दिन मनाए जाने वाले इस पवित्र उत्सव में विद्या और ज्ञान के महत्व को प्रकट किया जाता है। मान्यताओं के अनुसार महर्षि वेद व्यास को विष्णु ने चारों वेदों का ज्ञान दिया था। इसलिए संसार का प्रथम गुरु वेद व्यास को माना जाता है। लोक मान्यताओं के अनुसार इस दिनमहर्षि वेद व्यास का जन्म हुआ था‚ इसलिए इसे वेद व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है। बौद्ध मतानुयायी भगवान बुद्ध की याद में गुरु पूर्णिमा मनाते हैं। इस दिन बुद्ध ने पहली बार सारनाथ वाराणसी में उपदेश दिया था। पौराणिक कथा है कि भगवान शिव ने सप्त ऋषिओं को इसी दिन उपदेश दिया था। इस तरह तमाम पौराणिक और ऐतिहासिक संदर्भ गुरु पूर्णिमा से ताल्लुक रखते हैं।
गुरु ही बताता है कि जीवन की सफलता का रास्ता सबसे बेहतर कौन–सा है। कौन–सी विद्या या शिक्षा हासिल करके प्रजा‚ कीर्ति‚ लंबी आयु‚ ऐश्वर्य‚ वैभव‚ शक्ति‚ लोक–परलोक का ज्ञान और ब्रह्म को प्राप्त किया जा सकता है। कहने का भाव यह है कि गुरुओं के प्रति कृतज्ञता‚ सम्मान‚ सदभावना और सेवा का भाव रखना गुरु पूजा है। वेद में कहा गया है‚ संसार में जो त्यागी लोग सांसारिक–भोग की कामना नहीं करते वे सांसारिक दुखों से परेशान नहीं होते और त्याग और वैराग्य के लिए जरूरी है अंतःकरण शुद्ध और पवित्र हो। इसलिए गुरु बनाते वक्त यह गौर करना चाहिए कि गुरु योग्यता वाला हो। वेद शास्त्र‚ विज्ञान और पवित्र मन‚ वाणी व कर्म को वरीयता देने वाला हो। महर्षि दयानंद कहते हैं–जो वेद शास्त्रों को जानता हो‚ विद्या का अभ्यासी हो‚ सत्य‚ धर्म‚ सुण और पवित्रात्मा हो। संत कबीर कहते हैं–गुरु बिन ज्ञान न उपजै‚ गुरु बिन मिले न मोष। गुरु बिन लखै न सत्य को‚ गुरु बिन मिटै न दोष॥ कहने का भाव यह है कि जिसमें हर तरह की गुरु ता यानी बड़प्पन और धैर्य धारण करने वाला हो और शिष्य के कल्याण को ही अपने जीवन का मकसद समझता हो‚ वह ही सच्चा गुरु हो सकता है। इसी तरह शिष्य को भी चाहिए कि सीखने‚ ग्रहण करने और हर अच्छी बात व ज्ञान को ग्रहण करने के लिए हमेशा तैयार रहे। दोनों में दूसरे के प्रति सज्जनता का भाव हो। न गुरु कपटी हो न जो शिष्य ही कपटी हो। दोनों एक दूसरे पर यकीन करने वाले हों। शिष्य को चाहिए कि वह गुरु की हर कल्याणकारी आज्ञा को बिना टाल–मटोल के मान ले। आधुनिक समय में गुरु –शिष्य की वैदिक परंपरा भले ही न दिखाई देती हो लेकिन अध्यापक और छात्र का रिश्ता तो ही है। इस रिश्ते की खास अहमियत है। दोनों के जो कर्त्तव्य हैं‚ उनका पालन दोनों का करना चाहिए।
महर्षि दयानंद कहते हैं–जो वेद शास्त्रों को जानता हो‚ विद्या का अभ्यासी हो‚ सत्य‚ धर्म‚ सुण और पवित्रात्मा हो। संत कबीर कहते हैं–गुरु बिन ज्ञान न उपजै‚ गुरु बिन मिले न मोष। गुरु बिन लखै न सत्य को‚ गुरु बिन मिटै न दोष – कहने का भाव यह है कि जिसमें हर तरह की गुरु ता यानी बड़प्पन और धैर्य धारण करने वाला हो और शिष्य के कल्याण को ही अपने जीवन का मकसद समझता हो‚ वह ही सच्चा गुरु हो सकता है। इसी तरह शिष्य को भी चाहिए कि सीखने‚ ग्रहण करने और हर अच्छी बात व ज्ञान को ग्रहण करने के लिए हमेशा तैयार रहे। दोनों में दूसरे के प्रति सज्जनता का भाव हो……….