देश के तमाम राज्यों में पश्चिम बंगाल इकलौता सूबा था‚ जिसे वाम मोर्चा का गढ़ माना जाता था। वैसे त्रिपुरा में भी कई सालों तक वाम मोर्चा का शासन रहा लेकिन भद्रलोक यानी बंगाल में १९७७ से २०११ यानी लगातार ३४ सालों तक शासन करने वाले वाम मोर्चा का ऐसा हश्र होगा किसी ने सोचा तक नहीं था। सूबे में कभी अर्श पर रहने वाला वाम मोर्चा १७वीं लोक सभा के चुनाव में एकदम से फर्श पर आ गया। वाम मोर्चा की खस्ता हाल स्थिति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता कि पश्चिम बंगाल विधानसभा के इतिहास में पहला मौका है जब वाम मोर्चा के विधायकों की संख्या शून्य है।
कहते हैं कि राजनीति में हर वक्त एक जैसा नहीं रहता। मौजूदा वाम मोर्चा इसका सटीक उदाहरण माना जा सकता है। नंदीग्राम और सिंगुर मामले के बाद धीरे–धीरे पतन की तरफ बढ़ते वाम मोर्चा को पहले २०११ में तृणमूल ने राज्य की सत्ता से बेदखल किया और हाल के आम चुनाव में तृणमूल‚ भाजपा और कांग्रेस ने न केवल वाम मोर्चा के उम्मीदवारों को खाता खोलने से रोका‚ बल्कि ताबूत में आखिर कील भी ठोक दी। बीते लोक सभा चुनाव में तृणमूल और भाजपा की सीधी लड़ाई में कांग्रेस किसी तरह दो सीटें पाने में कामयाब रही‚ लेकिन वाम मोर्चा शून्य पर आउट हो गया। राजनीतिक पर्यवेक्षक तो पहले से ही ऐसी अटकलें लगा रहे थे और मतगणना ने पर्यवेक्षकों को सही साबित कर दिया। वाम मोर्चा २०१४ के लोक सभा चुनाव में राज्य की ४२ में से जो दो सीटें जीता था उन्हें भी बचा नहीं पाया। दरअसल‚ २०११ में तृणमूल कांग्रेस से पटखनी खाने के बाद ममता बनर्जी के विरोध में वाम मोर्चा को इस बात का आभास ही नहीं रहा कि उसने भाजपा को पैर जमाने के लिए जगह दे दी है। यही वजह रही कि २०१९ में भाजपा के पक्ष में जितने वोट पड़े उसके आगे वाम मोर्चा टिक नहीं सका। वाम मोर्चा की नौबत यह है कि उसे अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। आम चुनाव में वाम मोर्चा अपने राजनीतिक इतिहास में सबसे खराब प्रदर्शन का गवाह बना। राजनीति के पंडितों की मानें तो इसके पीछे कई वजहें हैं। एक तो यह कि माकपा नीत वाम मोर्चा इन दिनों गंभीर नेतृत्व संकट से जूझ रहा है‚ और दूसरा‚ पार्टी कैडर्स दामन झटक कर दूसरे दलों (तृणमूल–भाजपा) में शामिल हो रहे हैं। नौजवानों को न कहना और करिश्माई नेता की कमी भी वाम मोर्चा को अखर रही है। राज्य में सबसे बड़ा बदलाव यह आया है कि साल–दर–साल तृणमूल कांग्रेस और भाजपा में मुख्य मुकाबला होने लगा है।
वाम मोर्चा पुरानी नीतियों के चलते वजूद की लड़ाई लड़ता रहा तो कांग्रेस प्रदेश में कमजोर संगठन और गुटबाजी से जूझती रही। दीदी के नाम से मशहूर तृणमूल कांग्रेस प्रमुख एवं राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की लोकप्रियता लगातार बढ़ती रही। पंचायत से लेकर विधानसभा तक तृणमूल कांग्रेस का झंडा लहराता रहा। भाजपा पिछले कुछ चुनावों में वाम मोर्चा और कांग्रेस को पछाड़ कर जरूर दूसरे स्थान पर आई लेकिन तृणमूल कांग्रेस और भाजपा में अंतर बहुत ज्यादा दिखा। इस फासले को पाटने और प्रदेश में बड़ी सफलता हासिल करने के लिए भाजपा ने पूरा जोर लगाया तो ममता ने अपनी राजनीतिक ताकत बरकरार रखने और बढ़ाने के लिए हर हथकंड़ा अपनाया। एक पार्टी ने हिन्दुओं को अपने पाले में करने के लिए हर दांव आजमाया तो दूसरी ने प्रदेश में २८ फीसद मुस्लिमों की हितैषी साबित करने की कोशिश की। दोनों पार्टियों की इस रणनीति से राजनीतिक फिजां ही बदल गई है। प्रदेश की राजनीति हिन्दू और मुस्लिमों की धुरी पर घूमने लगी है। शायद यही कारण है कि वाम मोर्चा को अपना अस्तित्व बचाए रखने को कड़ा संघर्ष करना पड़ा‚ बावजूद इसके उसे इस दफा जनसमर्थन नहीं मिल रहा।
बीते आठ–दस सालों से वाम मोर्चा के पैरों तले जमीन खिसक रही है। पंचायत से लेकर २०१६ में बंगाल विधानसभा और कुछ उपचुनावों में पार्टी तीसरे–चौथे नंबर पर खिसकती रही। माकपा महासचिव सीताराम येचुरी और पूर्व महासचिव प्रकाश कारत के बीच लगातार बढ़ती खाई ने बंगाल में वाम मोर्चा को राजनीतिक हाशिए पर पहुंचा दिया। बंगाल में वाम मोर्चा के पास ज्योति बसु (अब नहीं रहे) या बुद्धदेव भट्टाचार्य (अस्वस्थ हैं) जैसा कोई करिश्माई नेता भी नहीं बचा‚ जो वाम मोर्चा की डूबती नैया को किनारे लगा सके। मालूम हो कि माकपा ने १९८९‚ १९९६ और २००४ में केंद्र में सरकार के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। ऐसा पार्टी द्वारा बंगाल में शानदार प्रदर्शन के आधार पर संभव हुआ था। २००४ के लोक सभा चुनाव में माकपा को बंगाल की ४२ में २६ सीटों पर विजय मिली थी‚ जो अब तक का सबसे बड़ा आंकड़ा था। राज्य में पार्टी का पतन २००९ से शुरू हुआ‚ जब तृणमूल कांग्रेस का उभार होने लगा। उसके बाद २०१४ के लोक सभा चुनाव में माकपा को सिर्फ दो सीटें मिली थीं और २०१९ में तो यह संख्या शून्य पर पहुंच गई।