हर साल दीपावली के आसपास पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के किसानों द्वारा पराली जलाने से राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र जहरीली धुंध से घिर जाता है।
हमेशा की तरह इस साल भी इस धुंध ने यहां रहने वालों के होश उड़ा दिए हैं। दिल्ली और उसके नजदीकी दूसरे शहरों में हाहाकार मचा हुआ है। आंखों को उंगली से रगड़ते और खांसते लोगों की तादाद बढ़ती जा रही है। सबसे ज्यादा खतरा तो छोटे बच्चों के लिए हो गया है। केंद्र और दिल्ली सरकार किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो गई है। वैसे यह कोई पहली बार नहीं है। कई साल पहले 1999 में ऐसी ही हालत दिखी थी। तब क्या सोचा गया था और अब क्या सोचना चाहिए? इसकी जरूरत एक बार फिर से आन पड़ी है।
पर्यावरण विशेषज्ञ, नेता और संबंधित सरकारी विभागों के अफसर हर साल की तरह इस साल भी इस समस्या को लेकर सिर खपा रहे हैं। उन्होंने अब तक के अपने सोच-विचार का नतीजा यह बताया है कि खेतों में फसल कटने के बाद जो ठूंठ बचते हैं, उन्हें खेत में ही जलाए जाने के कारण यह धुआं बना है, जो एनसीआर के ऊपर छा गया है। लेकिन सवाल उठता है कि यह तो हर साल ही होता है, तो नये जवाबों की तलाश क्यों हो रही है? दिल्ली में बढ़ते वायु प्रदूषण को हम कई सालों से सुनते आ रहे हैं। एक से एक सनसनीखेज वैज्ञानिक रिपोटरे की बातों को हमें भूलना नहीं चाहिए। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि दिल्ली से निकलने वाले गंदे कचरे, कूड़ा-करकट को ठिकाने लगाने का पुख्ता इंतजाम अब तक नहीं हो पाया।
सरकार यही सोचने में लगी है कि यह पूरा का पूरा कूड़ा कहां फिंकवाया जाए या इस कूड़े का निस्तारण यानी ठोस कचरा प्रबंधन कैसे किया जाए। जाहिर है इस गुत्थी को सुलझाए बगैर जलाए जाने लायक कूड़े को चोरी-छुपे जलाने के अलावा और क्या चारा बचता होगा? इस गैर-कानूनी हरकत से उपजे धुएं और जहरीली गैसों की मात्रा कितनी है, इसका कोई हिसाब किसी भी स्तर पर नहीं लगाया जा रहा। हवा के मानकों में 0-50 के बीच एक्यूआई को ‘अच्छा’, 51-100 को ‘संतोषजनक’, 101-200 को ‘मध्यम’, 201-300 को ‘खराब’, 301-400 को ‘बहुत खराब’ और 401-500 को ‘गंभीर’ श्रेणी में माना जाता है। पिछले गुरु वार को सुबह छह बजे ही दिल्ली में एयर क्वालिटी इंडेक्स (एक्यूआई) 408 के खतरनाक स्तर पर पहुंच गया यानी भयावह स्तर का प्रदूषण था उस रोज। इसी से इस समय की गंभीरता का अनुमान लगाया जा सकता है।
सांख्यिकी की एक अवधारणा है कि कोई भी प्रभाव किसी एक कारण से पैदा नहीं होता। कई कारण अपना-अपना प्रभाव डालते हैं, और वे जब साथ जुड़कर प्रभाव दिखने लायक मात्रा में हो जाते हैं, तो वह असर अचानक दिखने लगता है। दिल्ली में रिकार्ड तोड़ती जहरीली धुंध इसी संचयी प्रभाव का नतीजा हो सकती है। खेतों में ठूंठ जलाने का बड़ा प्रभाव तो है ही, लेकिन चोरी-छुपे घरों से निकला कूड़ा जलाना, दिल्ली में चकरडंड घूम रहे वाहनों का धुआं उड़ना, हर जगह पुरानी इमारतों को तोड़कर नई-नई इमारतें बनाते समय धूल उड़ना, घास और हरियाली का दिन पर दिन कम होते जाना और ऐसे दर्जनों छोटे-बड़े कारणों को जोड़कर यह प्राणांतक धुंध तो बनेगी ही बनेगी।
इस समस्या को लेकर होने वाली आपात बैठकें सोच-विचार कर बड़ा रोचक नतीजा निकालती हैं। खास तौर पर लोगों को यह सुझाव देना कि ज्यादा जरूरत न हो तो घर से बाहर न निकलें। इस सुझाव की सार्थकता को विद्वान लोग ही समझ और समझा सकते हैं। वे ही बता पाएंगे कि क्या यह सुझाव किसी समाधान की श्रेणी में रखा जा सकता है। एक कार्रवाई सरकार ने यह की है कि कुछ दिनों के लिए निर्माण कार्य पर रोक लगा दी है। सिर्फ निर्माण कार्य का धूल-धक्कड़ ही तो भारी होता है, जो बहुत दूर तक ज्यादा असर नहीं डाल पाता। कारों पर ऑड-ईवन की पाबंदी फौरन लग सकती थी लेकिन हाल का अनुभव है कि यह योजना कुछ अलोकप्रिय हो गई थी। सो, इसे फौरन फिर से चालू करने की बजाय आगे के सोच-विचार के लिए छोड़ दिया गया। हां, कूड़े-कचरे को जलाने पर कानूनी रोक को सख्ती से लागू करने पर सोच-विचार हो सकता था लेकिन इससे यह पोल खुलने का अंदेशा रहता है कि यह कानून शायद सख्ती से लागू नहीं हो पा रहा है। साथ ही, यह पोल भी खुल सकती है कि ठोस कचरा प्रबंधन के ठोस काम दूसरे प्रचारात्मक कामों की तुलना में ज्यादा खर्चीले हैं।
बहरहाल, अभी तक व्यवस्था के किसी भी विभाग या स्वतंत्र कार्यकर्ताओं की तरफ से कोई भी ऐसा सुझाव सामने नहीं आया है, जो जहरीली धुंध का समाधान देता हो। वैसे भी भाग्य पर निर्भर होते जा रहे भारतीय समाज में हमेशा से कुदरत का ही आसरा रहा है। उम्मीद लगाई जा सकती है कि हवा चल पड़ेगी और सारा धुआं और जहरीली धुंध उड़ा कर कहीं और ले जाएगी यानी अभी जो अपने कारनामों के कारण राजधानी और उसके आसपास के क्षेत्रों में जहरीला धुआं उठ रहा है, उसे शेष भारत से आने वाली हवाएं हल्का कर देंगी और आगे भी करती रहेंगी। यह शेखचिल्ली के सपने जैसा है।
वक्त के साथ हर समस्या का समाधान खुद ब खुद हो ही जाता है, यह सोचने से हमेशा ही काम नहीं चलता। जल, जंगल और जमीन का बर्बाद होना शुरू हो ही गया है। अब हवा की बर्बादी का शुरू होना गंभीर चेतावनी है। यह ऐसी बर्बादी है कि जो अमीर-गरीब का फर्क नहीं करेगी। महंगा पानी और महंगा आर्गनिक फूड धनवान लोग खरीद सकते हैं लेकिन साफ हवा के सिलेंडर या मास्क या एअर प्यूरीफायर वायु प्रदूषण का समाधान नहीं दे सकते। इसीलिए सुझाव है कि विद्वानों और विशेषज्ञों को समुचित सम्मान देते हुए विचार के लिए आमंत्रित कर लिया जाए। खास तौर पर फोरेंसिक साइंस की विशेष शाखा यानी विष विज्ञान के विशेषज्ञों का समागम तो फौरन ही आयोजित करवा लेना चाहिए। यह समय इस बात से डरने का नहीं है कि वे व्यवस्था की खामियां गिनाना शुरू कर देंगे। जब सरकारें खामियां जानने से बचेंगी तो समाधान कैसे ढूंढेंगी?