वर्तमान में पूरे देश में मतदाता पहचान पत्रों और आधार को जोड़ने की कवायद जोर-शोर से चल रही है।
मतदाता पहचान पत्र को आधार से जोड़ने का प्रावधान दिसम्बर, 2021 में चुनाव कानून (संशोधन) अधिनियम, 2021 के पारित होने के बाद लाया गया था। इसके तहत स्वैच्छिक तौर पर मतदाता पहचान पत्र को आधार से जोड़ने की अनुमति दी गई थी। कहा गया था कि ऐसा इसलिए किया जा रहा है ताकि मतदाता सूची में डाले गए नामों का सत्यापन हो सके। इससे फर्जी मतदान करना मुश्किल हो जाएगा जबकि निजता कार्यकर्ताओं का दावा है कि सरकार ने चुपचाप नये कानून के तहत दोनों को जोड़ना अनिवार्य कर दिया है।
दावा किया जा रहा है कि चुनाव आयोग के अधिकारियों का कहना है कि आधार नंबर न देने से मतदाता सूची से नाम हट जाएगा और मत डालने की अनुमति नहीं दी जाएगी। कानून जब संसद से पारित हुआ तब दोनों को जोड़ने को स्वैच्छिक कहा गया था लेकिन बाद में विधि मंत्रालय ने कानून के नियम बनाए तो उनमें आधार नंबर देना अनिवार्य कर दिया गया। विशेषज्ञों की आपत्ति है कि जब खुद यूआईडीएआई कहती है कि आधार न तो नागरिकता का प्रमाण है और न ही निवास का तो इसकी जानकारी सार्वजनिक कैसे की जा सकती है।
विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि आधार के डाटाबेस में मतदाता सूची के डेटाबेस से ज्यादा त्रुटियां पाई जाती हैं, इसलिए इन्हें जोड़ना ठीक नहीं होगा। डाटा सुरक्षा कानून के अभाव में नागरिकों का डेटा जमा करने वाले संस्थानों की संख्या बढ़ना भी ठीक नहीं है क्योंकि डाटा की सुरक्षा की गारंटी कोई नहीं दे पाएगा और उसके दुरुपयोग का खतरा हमेशा बना रहेगा। आधार कार्ड को मतदाता परिचय पत्र से जोड़ना कई कारणों से बहुत सी समस्याओं को जन्म दे सकता है।
यह संशोधन 2018 के सर्वोच्च न्यायालय के उस फैसले का भी स्पष्ट खंडन करता है, जिसमें साफ कहा गया था कि सभी नागरिकों के लिए आधार अनिवार्य नहीं है। कल्याणकारी लाभ प्राप्त करने वालों के लिए व सिर्फ सीमित उद्देश्य के लिए ही आधार अनिवार्य किया जा सकता है। यह सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सुना गया दूसरा सबसे लंबा मामला था। मतदाता कार्ड और आधार लिंकेज का मामला भी सर्वोच्च न्यायालय में लंबित है। इस बारे में आपत्तियों का निष्पादन जरूरी है। तब तक फैसले का इंतजार करना चाहिए।