इस साल का नोबेल शांति पुरस्कार जेल में बंद बेलारूस के अधिकार कार्यकर्ता एलेस बियालियात्स्की, रूसी समूह ‘मेमोरियल’ और यूक्रेन के संगठन ‘सेंटर फॉर सिविल लिबर्टीज’ को मिला है। सबकी नजर नोबेल शांति पुरस्कार की घोषणा पर लगी थी और जैसे ही नार्वे नोबेल कमेटी के प्रमुख बेरिट रीज एंडर्सन ने ओस्लो में घोषणा की, ज्यादातर की टिप्पणी यही रही होगी कि बच गए। जब से मोहम्मद जुबैर और प्रतीक सिन्हा का नाम नोबेल शांति पुरस्कार के लिए आया और मीडिया की सुर्खियां बना तभी से लोगों की धड़कनें बढ़ गई थीं।
वास्तव में नोबेल शांति पुरस्कार को लेकर आम धारणा यही है कि यह विश्व का सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार है तो इसके लिए वैसे ही लोगों का नामांकन होगा और चयन उन्हीं में से किया जाएगा जिनका किसी रूप में शांति स्थापना में अनूठा योगदान होगा। लोगों ने प्रश्न उठाया भी कि इन दोनों का किस प्रकार की शांति स्थापना में योगदान है? आम भारतीय पहले इनका नाम तक नहीं जानता था। नूपुर शर्मा प्रकरण के बाद इनका नाम आया। 26 मई को एक टीवी डिबेट में नूपुर शर्मा ने जो टिप्पणी की उसे मोहम्मद साहब का अपमान बनाकर देश-विदेश में कितना बवंडर खड़ा किया गया यह बताने की आवश्यकता नहीं।
गुस्ताख ए रसूल की एक ही सजा सिर तन से जुदा केवल नारा नहीं रहा, तीन लोगों के सिर तन से जुदा किए जा चुके हैं, और अनेक को धमकियां मिल चुकी हैं। उस डिबेट में की जा रहीं टिप्पणियों की प्रतिक्रिया में नूपुर शर्मा का वक्तव्य था। नूपुर के वक्तव्य के वीडियो को जुबैर ने ही वायरल कर अरब देशों तक पहुंचाया था। जुबैर और प्रतीक ‘ऑल्ट न्यूज फैक्ट चेकिंग’ वेबसाइट चलाते तथा स्वयं को फैक्ट चेकर बताते हैं। नूपुर प्रकरण में नाम आने के बाद लोगों ने इनकी साइट देखी और बताया कि ये फैक्ट चेक के नाम पर झूठ फैलाते हैं, और इनके कारण समाज में कई बार तनाव पैदा हुआ है। ऐसे व्यक्ति का नाम नोबेल शांति पुरस्कार के लिए गया तो जाहिर है, यह मामूली घटना नहीं है।
टाइम पत्रिका ने इन पर स्टोरी की। टाइम ने ही नॉर्वेजियन सांसदों के हवाले से बताया कि इनके नाम नोबेल शांति पुरस्कार की दौर में शामिल हैं। रायटर्स जैसी बड़ी एजेंसी ने इन पर सर्वे करके बताया कि इनका नाम काफी आगे है। विश्व की बड़ी समाचार संस्थाएं समाचार फैला रही थीं, तो यह निरुद्देश्य और अनायास नहीं हो सकता। नोबेल समिति पुरस्कारों के लिए नामांकितों के बारे में 50 वर्षो तक सूचना सार्वजनिक नहीं करती। नोबेल पुरस्कारों की वेबसाइट पर अभी 1971 तक के दौर में शामिल लोगों और संस्थाओं के नाम मिलेंगे तो इन दोनों का नाम सार्वजनिक कर पूरी दुनिया में फैलाने के पीछे कौन हो सकते हैं, और उनका क्या उद्देश्य रहा होगा? नोबेल वेबसाइट के मुताबिक, 2022 के शांति पुरस्कार के लिए कुल 343 नामांकन मिले थे। टाइम या रायटर्स ने जुबैर और प्रतीक पर ही स्टोरी की। क्यों? इसका उत्तर टाइम पत्रिका की स्टोरी की पंक्तियों में मिल जाएगा।
टाइम पत्रिका ने लिखा कि जुबैर-प्रतीक ने हेट स्पीच यानी नफरत भरे भाषणों को रोकने की कोशिश की। इसके अनुसार प्रतीक सिन्हा और मोहम्मद जुबैर भारत में गलत सूचनाओं से लगातार मुकाबला कर रहे हैं। वे हेट स्पीच पर लगाम लगाते रहे हैं। क्या इसके बाद बताने की आवश्यकता है कि इनके नामों को सार्वजनिक करने के पीछे क्या सोच थी और कौन लोग थे? भारत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भाजपा, मोदी सरकार और प्रदेश की भाजपा सरकारों के साथ राष्ट्रीयता और धर्म, संस्कृति, सभ्यता को लेकर जागरूक लोगों के विरुद्ध जिस तरह का दुष्प्रचार अभियान भारत सहित पूरी दुनिया में चला है, वह अभूतपूर्व है।
हमारे आपके लिए हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन सभी समान हैं किंतु इनके लिए अगर एक मुसलमान के साथ कोई झगड़ा हो गया तो सत्ता में शामिल और उनकी समर्थक फासिस्ट शक्तियों की मुस्लिमों के विरुद्ध हिंसा हो जाती है। मुस्लिम समाज के अपराधी, माफिया, अंडरवर्ल्ड के खिलाफ कार्रवाई भी इनके लिए यही विषय बन जाता है। मुसलमानों का एक वर्ग कार्रवाई को सही मानता है पर संघ, भाजपा, नरेन्द्र मोदी, योगी आदित्यनाथ तथा हिंदुत्व और राष्ट्रीयता के प्रति जागृत लोगों से नफरत करने वालों की नजर में वह मासूम होता है। इनकी फैक्ट चेकिंग इसी छोटी सोच पर आधारित है, जो देश के बाहर भारत विरोधी अभियान में परिणत हो जाता है। दुनिया भर में ऐसे लोगों का समूह है, जिनके बीच निजी संबंध हों या नहीं हों, ये एक दूसरे के पक्ष में खड़े होते हैं।
टाइम पत्रिका की स्टोरी बताती है कि इन्हें दुनिया में इस तरह से पेश किया गया ताकि ये नोबेल शांति के लिए नामांकित हो सकें। स्वाभाविक ही नॉर्वे के सांसदों को इसके लिए तैयार किया गया। नॉर्वे में भारतीय एवं पाकिस्तानी मूल के मुसलमानों की बड़ी संख्या है। उनके अंदर भी झूठी बातें फैलाई गई हैं कि भारत का वर्तमान शासन एवं हिंदुत्व समर्थक मुसलमानों के खिलाफ हिंसा कर रहे हैं। इन्हें इस बात का आभास था कि इनको नोबेल शांति पुरस्कार मिलना मुश्किल है पर वैश्विक स्तर पर इनकी छवि ऐसी बना देनी है कि सरकार इन पर हाथ डालने की जुर्रत न कर सके। रास्ता यही था कि नोबेल शांति पुरस्कार के लिए इनके नामांकन को विश्व मीडिया की सुर्खियां बना दिया जाए। इसमें ये सफल हो गए। निस्संदेह समाज में इनका कद बढ़ गया।
जिस तरह शाहीन बाग के नाम पर आज तक विदेशों से लोग झूठ बोलकर वित्तीय सहयोग ले रहे हैं, उसी तरह इन दोनों के साथ अन्यों के लिए भी ऐसे खजाने के द्वार खुल गए हैं। विश्व स्तर पर लक्षित कार्यक्रमों में बुलाकर भारत विरोधी बयान दिलाने का आधार भी तैयार हो गया है, लेकिन क्या इससे नोबेल शांति पुरस्कारों की महिमा कमजोर नहीं हुई? बिल्कुल हुई है। आम भारतीय प्रश्न उठा रहा है कि क्या नोबेल शांति पुरस्कार का स्तर यही है? इस तरह के जितने प्रश्न उठा दीजिए, लेकिन यह समूह अपने उद्देश्य में सफल हो गया।