अपने यहां के दो क्रांतिकारी पत्रकारों का नाम इस बार के ‘नोबेल शांति पुरस्कार’ की ‘लिस्ट’ में शामिल किया गया है। जैसे ही यह खबर दुनिया की जानी मानी पत्रिका ‘टाइम’ के ‘ऑनलाइन संस्करण’ में छपी त्यों ही तूफानी हो गई। क्रांतिकारी पत्रकारों के उतने ही क्रांतिकारी मित्र‚ बंधु–बांधव‚ साथी‚ कामरेड सब अपने–अपने सोशल मीडिया पर बधाइयां देते रहे‚ हल्ला मचाते रहे कि भई वाह! इस बार का नोबेल शांति सम्मान अब मिला कि अब मिला‚ लेकिन बुरा हो एक मीडिया संस्थान का कि उसके एक खबर चैनल ने सीधे नोबेल कमेटी वालों से ही पूछ लिया कि इस बार के नोबेल शांति पुरस्कारों की विचाराधीन लिस्ट में क्या इन दो पत्रकारों के नाम भी हैंॽ नोबेल कमेटी को यह भी बताया कि ऐसी खबर टाइम पत्रिका के ऑनलाइन संस्करण में छपी है। इसके जबाव में नोबेल कमेटी वालों ने बताया कि ऐसा कुछ नहीं है‚ यह किसी की कल्पना भी हो सकती है। हम ऐसी लिस्ट किसी को नहीं बताते। वह तभी सामने आती है जब पुरस्कार घोषित कर दिए जाते हैं। इसके बाद इसी चैनल के एंकर ने बताया कि जब हमने दुनिया की उसी नामी गिरामी पत्रिका से पूछना चाहा कि आपकी ऑनलाइन पत्रिका में इन पत्रकारों के नामित होने की खबर क्या सच है‚ तो कोई जवाब न आया।
इसके बाद इस खबर चैनल ने उन दोनों पत्रकारों के पाखंड की खूब खबर ली जिन्होंने अपने नामों को ‘शोहरत दिलाने वाली’ ऐसी ‘झूठी खबर’ को चलने दिया। बहस में कइयों ने कहा कि ये जो अपने को सच का ठेकेदार बताते रहे और अपने को बाकी मीडिया का झूठ पकडने वाले जताते रहे‚ ये अपने ही नाम के ईद गिर्द गढे गए और प्रचारित किए गए झूठ को क्यों न पकड सकेॽ इन्हीं ने तो ‘कोविड–१९’ के दौरान लावारिस लाशों को दिखाया था और इस तरह एक ‘छिपाया गया सच’ बताया था। इन्होंने ही ‘ज्ञानवापी’ संबंधी एक टीवी बहस के बीच प्रसारित हुई एक ‘हेट स्पीच’ के ‘समूचे क्रम’ को दिखाने की जगह उसके एक तरफा अंश को ही अपने सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर दिखाया था जो वायरल हुआ था और शायद जिसे देख एक कट्टरतावादी मुल्क ने इंडिया को ‘डेमोक्रेसी का पाठ’ तक पढाया था। इन दो पत्रकारों से एक तो इतना ग्रेट रहा कि जब उस पर एक केस हुआ तो उसे जेल भी हुई और कुछ दिन बाद बेल मिली। उसके मित्रों ने इसे सत्ता की ‘बदले की कार्रवाई’ कहा। इससे भी लोगों को लगा होगा कि ‘केस’ होने के बाद नाम ये किसी न किसी सम्मान के तो हकदार हो ही गए हैं। इसलिए लोगों को स्वाभाविक सा लगा कि हो सकता है कि उन्हें यह सम्मान भी मिल जाए। इसीलिए किसी ने नोबेल कमेटी से न पूछा कि सच क्या हैॽ उल्टे इन पत्रकार बंधुओं ने अपने नाम को लिस्ट में बताया जाता देख यह तक सोच लिया और वैसा ट्वीट भी किया कि ऐसे सम्मान के मिल जाने के बाद सरकारें भी बंदे पर हाथ डालने से डरती हैं क्योंकि ऐसे पुरस्कार ऐसे लोगों को ‘एंपावर’ करते हैं‚ उनका ‘सुरक्षा कवच’ बन जाते हैं‚ और प्राप्तकर्ताओं को एक प्रकार की इम्यूनिटी मिल जाती है। यह एक प्रकार से ‘अपने पक्ष में हवा बनाने’ जैसा था ताकि पुरस्कार मिल जाए ताकि हमें सरकार के हमलों से भी ‘इम्यूनिटी’ मिल जाए। कहने की जरूरत नहीं कि जो पत्रकार दुनिया का झूठ पकडने का दावे करते रहे और खूब नाम कमाते रहे‚ वे ही अगर झूठ के बीच मौजूद हों और उस झूठ का महत्व भी बताते हों‚ उनको आप किस तरह का पत्रकार मानेंगेॽ और उस महान ग्लोबल पत्रिका को क्या कहेंगे जिसने ऐसे ‘सफेद झूठ’ को प्रकाशित भी कियाॽ
कहने की जरूरत नहीं कि ऐसी पत्रकारिता को ‘लंपट पत्रकारिता’ माना जाना चाहिए क्योंकि ऐसी पत्रकारिता न केवल ‘गैर–जिम्मेदार’ है‚ बल्कि ‘अगंभीर’ भी है। ऐसी पत्रकारिता करने वाले सेाचते हैं कि एक बार ‘सच का धंधा’ जमा लिया तो उसकी ओट में ‘झूठ का धंधा’ भी किया जा सकता है। ऐसा लगता है कि ऐसे पत्रकार सोशल मीडिया की पत्रकारिता को ‘अपना मनमाना एजेंडा चलाने’ का ‘लाइसेंस’ मानते हैं। और‚ जिस तरह से इन्होंने कहा कि ऐसे सम्मान सत्ता के मुकाबले एक प्रकार की इम्यूनिटी दे देते हैं– इस से स्पष्ट है कि ये पुरस्कार को भी लाइसेंस मानते हैं। जिस तरह से बहुत से नकली पत्रकार नकली आई कार्ड बनवा लेते हैं ताकि चौराहे की पुलिस उनका चालान न करे। कुछ–कुछ इसी तरह का नजरिया इस प्रसंग में है। कुछ–कुछ इस तरह की पत्रकारिता होती नजर आती है। यह पत्रकारिता का अधःपतन है।यह पत्रकारिता का अधःपतन हैयह पत्रकारिता का अधःपतन है