राजनीति में परसेप्शन यानी धारणा की बेहद अहम भूमिका होती है। बिहार के मुख्मंत्री नीतीश कुमार के बारे में जनता का उनके प्रति बना परसेप्शन बड़ा रोल निभाता है। करीब तीन दशक से ज्यादा की राजनीति में नीतीश कुमार के खिलाफ भले तमाम आरोप लगे‚ मगर उनकी छवि के आगे सारे आरोप औंधे मुंह गिर गए।
बिहार में पिछले दिनों सत्ता परिवर्तन को लेकर भले भाजपा और कुछ गिने–चुने दल नीतीश के खिलाफ हमलावर हों‚ किंतु इस बात में काफी दम है कि नीतीश किसी पार्टी के दिल में तो आते हैं‚ मगर दिमाग में नहीं। रही बात नीतीश के आगे की राजनीति की तो जिस तरह उन्होंने शपथ ग्रहण के तुरंत बाद पत्रकारों से बात करते हुए कही कि २०१४ वाले क्या २०२४ में रहेंगे‚ उसके गहरे निहितार्थ हैं। यानी सीधे–सीधे उन्होंने २०२४ के रण की तैयारी और उसके मुख्य किरदार के बारे में उद्घोष कर दिया। कहने का आशय है कि २०२४ के आम चुनाव को भाजपा जितना आसान और एकतरफा बता रही थी‚ वैसा कुछ नहीं होने जा रहा है। हां‚ विपक्ष के बाकी दलों का क्या रुख रहेगा‚ यह थोड़े दिनों के अंतराल पर स्पष्ट होगा।
हालांकि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी‚ पूर्व प्रधानमंत्री एच.डी. देवेगौड़ा ने जिस तरह आगे बढ़कर नीतीश की सराहना की है‚ वह निश्चित तौर पर विपक्षी दलों की आने वाले दिनों में भूमिका को रेखांकित करती है। बेशक नीतीश एक विजनरी‚ ईमानदार और काम करने वाले नेता के तौर पर जाने जाते हैं। देश में ऐसे बहुत कम नेता हैं‚ जिनकी छवि मिलनसार और परिपक्व नेता के तौर पर स्थापित है। फिलहाल उनका जोर और उनकी सोच यही है कि कुछ दिनों के शासन के बाद वो राष्ट्रीय राजनीति की ओर रुख करेंगे और बिहार की सत्ता तेजी से उभरते तेजस्वी यादव के सुपुर्द करेंगे। आने वाले समय में कई सारे मसले ऐसे हैं‚ जिस पर नीतीश और उनकी पार्टी के अलावा राजद‚ कांग्रेस और वाम दलों की सोच भी मिलती है। खासकर जाति जनगणना और अग्निपथ योजना को लेकर नीतीश की सोच भाजपा से बिल्कुल अलहदा है। संकेत साफ है कि आगे की लड़ाई का कैनवस नीतीश कुमार ने तैयार कर लिया है। जाति जनगणना यानी ओबीसी और एससी को आधार बनाकर नीतीश पूरी लड़ाई को राष्ट्रीय परिपेक्ष्य में ले आएंगे। तब अपने को अति पिछड़ा कहने वाले नरेन्द्र मोदी और उनकी पार्टी के लिए दायां–बायां चलने की आजादी नहीं होगी। उन्हें उसी रास्ते चलना होगा‚ जिसे नीतीश कुमार और उनके सहयोगी दलों ने सेट कर दिया है। यानी लड़ाई अब एकतरफा नहीं बल्कि दमदार और रोचक होगी। बिहार विधानसभा चुनाव २०२० जनादेश में सत्तापक्ष और विपक्ष सिर्फ मामूली मतों का अंतर से एक–दूसरे के समक्ष खड़ी थी। पांच दलों के महगठबंधन का नेतृत्व राजद कर रहा था वहीं राजग की बागडोर जद (यू) कर रहा था। राजनीतिक अभियान‚ लामबंदी और प्रचार की धुरी मूलतः वे दो पुराने दोस्त के रूप में लालू–नीतीश रहे हैं‚ जो १९९४ से २०१५ तक एक दूसरे के धुर–विरोध में डटे रहे। समता पार्टी के सीएम चेहरे के तौर पर नीतीश ने बिहार विधानसभा चुनाव १९९५ लड़ा‚ जिसमें उन्हें भारी शिकस्त मिली। हार से विचलित होकर उन्होंने १९९६ में दक्षिणपंथी भाजपा से समझौता कर लिया। बाबरी मस्जिद विध्वंस के आरोप का सार्वजनिक दंश और अस्वीकार्यता झेल रही भाजपा ने जल्दीबाजी में अपने से कई स्तर पर छोटी समता पार्टी को बड़ा भाई मानने को तैयार हो गई। इस प्रकार नीतीश कुमार ने अटल–आडवाणी युग में भाजपा से बड़े भाई होने की करार पक्की कर ली थी। इसे हासिल करने के लिए उन्होंने समाजवादी प्रतिष्ठान से दक्षिणपंथी खेमे में शामिल होना पड़ा। यहीं से उनके सीएम बनने की यात्रा शुरू होती है और भाजपा एक जूनियर घटक दल के रूप में सीमित कर लिया।
२०१३ में जद (यू)–भाजपा गठबंधन का टूटना और फिर २०१७ में जुडने को एक नाटकीय घटना के रूप में देखी जाती है‚ लेकिन मोदी–शाह युग में भाजपा के गठबंधन दर्शन में क्षेत्रीय दलों को निगलने की मंशा प्रबल दिखती है। जद (यू) का आरोप है कि ‘चिराग मॉडल’ के जरिए भाजपा सहयोगी जद (यू) को तोड़ने का षड्यंत्र कर रही थी। बिहार में वर्तमान सत्ता परिवर्तन का यही प्रमुख कारण माना जा रहा है। पूरे भारत में इस नैरेटिव के जरिए भाजपा के खिलाफ एक मजबूत मोर्चाबंदी हो सकती है। जहां महाराष्ट्र में शिंदे प्रयोग से भाजपा सत्ता में वापसी की तो बिहार में नीतीश के झटके से महगठबंधन पार्ट–२ की जरूरत पूरी होती दिख रही है। यकीनन आम चुनाव २०२४ में मोदी वापसी की संभावना बेहद दिलचस्प होने वाली है। इसके साथ यदि विपक्ष एकजुट होकर संयम और रचनात्मक तरीके से आगे बढ़ती है तो फिर संविधान और लोकतंत्र की वापसी की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता। इस लिहाज से आने वाले कुछ महीने बेहद रोचक होने वाले हैं।