अप्रैल 24 को पंचायत दिवस आया गया जैसा हो गया। अगर नरेन्द्र मोदी सरकारी इस दिवस पर पंचायतों के लिए पुरस्कारों की घोषणा न करें तो किसी को याद भी नहीं होगा कि पंचायत दिवस कब आता है।
जब पी वी नरसिंह राव सरकार ने 24 फरवरी, 1992 को संविधान के 73वें संशोधन के द्वारा पंचायती राज कानून पारित किया तथा इसके एक वर्ष बाद लागू हुआ तो इसे स्थानीय स्वशासन प्रणाली की दृष्टि से लोकतांत्रिक अहिंसक क्रांति नाम दिया गया।
वास्तव में आजाद भारत की सबसे बड़ी विडंबना थी कि महात्मा गांधी को स्वतंत्रता आंदोलन का अपना नेता घोषित करने के बावजूद आजादी के बाद शासन में आई सरकार ने ग्राम स्वराज के उनके सपने को संविधान के तहत अनिवार्य रूप से संपूर्ण राष्ट्र में साकार करने का कदम नहीं उठाया। पंडित जवाहरलाल नेहरू के शासनकाल में ही 1957 में बलवंत राय मेहता समिति ने जिस त्रिस्तरीय पंचायत प्रणाली की अनुशंसा की उसके अनुसार गांव में ग्राम पंचायत, प्रखंड स्तर पर पंचायत समिति और जिला स्तर पर जिला परिषद को तभी संविधान का अनिवार्य भाग बना दिया जाना चाहिए था। उसने विकेंद्रित लोकतंत्र शब्द भी प्रयोग किया। हालांकि सभी सरकारों ने भारत में ग्राम पंचायतों को सशक्त करने की वकालत की, अलग-अलग राज्यों में थोड़े-बहुत अंतर के साथ पंचायती ढांचा कायम हुए पर इसे व्यापक और समग्र संवैधानिक ढांचागत स्वरूप 1992 के संशोधन द्वारा ही प्राप्त हुआ।
ध्यान रखिए, स्वतंत्रता के बाद संविधान की सातवीं अनुसूची में केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन संघ, समवर्ती और राज्य सूची के आधार पर ही किया गया, जिनमें पंचायतों को अधिकार नहीं मिल सका। 1992 का संशोधन ही था, जिसके तहत पंचायतों को कुल 29 विषयों पर काम करने का संवैधानिक अधिकार मिला। इस व्यवस्था ने 29 वर्ष पूरा कर 30वें वर्ष में प्रवेश किया है और संविधान संशोधन की दृष्टि से देखें तो 30 वर्ष पूरा हो चुका है। किसी भी व्यवस्था के मूल्यांकन के लिए इतना समय प्राप्त होता है। प्रश्न है कि क्या हम पंचायत प्रणाली की वर्तमान स्थिति को संतोषजनक मान सकते हैं? आज दुनिया के विकसित देश औपचारिक रूप से यह मानने को विवश हैं कि भारत जैसे विशाल और विविधता वाले देश में पंचायती राज्य के माध्यम से सत्ता को नीचे तक पहुंचाने का काम अद्भुत है। सच यह है कि विश्व में सबसे ज्यादा शोध यदि किसी एक प्रणाली पर हुआ है तो वह है, भारत की पंचायती राज व्यवस्था। हमें अपने देश में भले यह सामान्य काम लगे, लेकिन विश्व के लिए यह अद्भुत है। इस आधार पर स्वाभाविक निष्कर्ष यही निकलेगा कि अगर विश्व में इस व्यवस्था ने धाक जमाई है तो निश्चित रूप से सफल है। जाति और लिंग के आधार पर सत्ता में भागीदारी की दृष्टि से विचार करें तो इसने समानता के सिद्धांत को साकार किया है। 1992 के संशोधन में महिलाओं के लिए 33 फीसद आरक्षण था जिसे बाद में 50 फीसद कर दिया गया। यानी इस समय करीब 2.6 लाख ग्राम पंचायतों में आरक्षण के अनुसार सत्ता की आधी बागडोर महिलाओं के हाथों में है। दूसरे, दलितों, आदिवासियों तथा पिछड़ी जातियों के प्रतिनिधियों की संख्या 80 फीसद से ज्यादा मानी जा रही है।
विधानसभाओं एवं लोक सभा में अनुसूचित जाति-जनजाति एवं अति पिछड़ी जातियों के सांसदों और विधायकों के निर्वाचित होने से जमीनी स्तर पर सामाजिक असमानता में अपेक्षित अंतर नहीं आया, लेकिन पंचायतों में इनके निर्वाचन से व्यापक अंतर आया है। एक समय स्वयं को उपेक्षित माने जाने वाला वर्ग अब गांवों और मोहल्ले में फैसले करते हैं तथा ऊंची जाति की मानसिकता में जीने वाले ने लगभग इसे स्वीकार कर समन्वय स्थापित किया है। आप किसी जाति के हों, काम के लिए ग्राम प्रधान, मुखिया, सरपंच या वार्ड सदस्य के घर जाना होता है। वह चाहे किसी जाति का हो उसके दरवाजे पर बैठना है। इन सब से ऊंच-नीच की मानसिकता बदल रही है। इस तरह कहा जा सकता है कि पंचायती राज में सामाजिक समानता को मनोवैज्ञानिक स्तर पर स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाया है। हां, महिलाओं के मामले में अभी यह लक्ष्य प्राप्त होना शेष है। ज्यादातर जगह निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों के पति व्यवहार में ज्यादा सक्रिय हैं और मुख्य भूमिका उनकी होती है। किंतु अनेक जगह महिलाएं स्वयं भी सक्रिय हैं। पुरुषों और स्त्रियों के बीच राजनीतिक मामलों में बहस व विमर्श की वर्षो से कायम दूरियां घटी हैं।
चुनाव के समय आप गांव में महिलाओं के बीच भी राजनीतिक बहस होते देख सकते हैं। पढ़े-लिखे युवाओं में भी निर्वाचित होकर काम करने की ललक बढ़ी है। चुनाव आधारित लोकतांत्रिक प्रणाली की दृष्टि से देखें तो यह लोकतंत्र के मूल सिद्धांत सतत जागरूकता का साकार होना है। किंतु यह सब एक पक्ष है। इसके दूसरे पक्ष चिंताजनक और कई मायनों में डरावने हैं। सत्ता यदि शक्ति, संपत्ति और प्रभाव स्थापना का कारक बन जाए तो वह हर प्रकार की मानवीय विकृति का शिकार होता है। हालांकि लोक सभा और विधानसभाओं के अनुरूप शक्ति का विकेंद्रीकरण तुलनात्मक रूप से पंचायती राज में काफी कम है। बावजूद पंचायती राज के तीनों स्तरों के अधिकार और कार्य विस्तार के साथ जितने काम आए और उसके अनुरूप संसाधनों में बढ़ोतरी हुई उसी अनुरूप इनके पदों पर निर्वाचित होने की लालसा भी बढ़ी। वर्तमान वोटिंग प्रणाली अनेक प्रकार के भ्रष्ट आचरण की जननी है।
आज पंचायतों की चुनाव प्रणाली हर सारे भ्रष्ट व्यवहारों की गिरफ्त में आ चुका है। प्रशासन के लिए पंचायतों का चुनाव कराना विधानसभाओं और लोक सभा चुनाव से ज्यादा चुनौतीपूर्ण है। पंचायत प्रमुख एवं जिला परिषद अध्यक्ष आदि के चुनाव में निर्वाचित प्रतिनिधियों की बोली लगती है। समय की मांग पूरी राजनीतिक व्यवस्था की गहरी समीक्षा और उसके अनुरूप व्यापक संशोधन और परिवर्तन का है। गांधीजी ने भारत की प्राचीन प्रणाली के अनुरूप मतदान की अति सामान्य व्यवस्था दी थी, लेकिन उनके विचार के केंद्र में परस्पर एक दूसरे का हित चाहने वाला नैतिक और जिम्मेदार व्यक्ति है। तो व्यवस्था में बदलाव की कल्पना के साथ समाज में ऐसे व्यक्तियों का बहुतायत कैसे हो इस पर काम करने की आवश्यकता है।