कश्मीर फाइल्स’ में जो दिखाया गया है‚ वो उस खौफनाक सच के सामने कुछ भी नहीं है‚ जो अब अमजद अय्यूब मिर्जा ने पाक–अधिकृत कश्मीर में हुए हिंदुओं के वीभत्स नरसंहार के बारे में कैलिफोर्निया के अखबार में प्रकाशित किया है। अय्यूब मिर्जा ने पिछले महीने २१ मार्च को प्रकाशित अपने लेख में ‘द कश्मीर फाइल्स’ को दमदार फिल्म बताते हुए इस बात की तारीफ की है कि कैसे इस फिल्म में पाकिस्तान समर्थित जिहादियों और श्रीनगर के स्थानीय कट्टरपंथियों के आतंक को रेखांकित किया गया है। लेख में मिर्जा लिखते हैं कि ये तो प्याज की पहली परत उखाडने जैसा है। उनके अनुसार जम्मू–कश्मीर से अल्पसंख्यक हिंदुओं और सिखों को मारने और भगाने का सिलसिला १९९० से ही नहीं शुरू हुआ। इसकी जडें तो १९४७ के भारत–पाक बंटवारे के अप्रकाशित इतिहास में दबी पडी हैं।
अमजद अय्यूब मिर्जा पाक–अधिकृत कश्मीर के मीरपुर जिले के निवासी हैं‚ जो अपने स्वतंत्र विचारों और मानवाधिकारों की वकालत करने के कारण आजकल इंग्लैंड़ में निष्कासित जीवन जी रहे हैं। इसलिए इनकी सूचनाओं को हल्के में नहीं लिया जा सकता। मिर्जा बताते हैं कि जम्मू–कश्मीर के हिंदुओं पर मौत का तांडव २२ अक्टूबर‚ १९४७ से शुरू हुआ‚ जिस दिन पाकिस्तानी फौज ने जम्मू–कश्मीर पर हमला किया‚ उस वक्त आज के पाक–अधिकृत कश्मीर में हिंदुओं और सिखों की बडी आबादी रहती थी। वे सब सुखी और संपन्न थे जबकि डिन द्वारा २०१२ में प्रकाशित जनसंख्या सर्वेक्षण में कहा गया है कि इस क्षेत्र में अब हिंदुओं और सिखों की आबादी का कोई आंकडा नहीं मिला है। या तो उन सब को भगा दिया गया या मार डाला गया। इस रिपोर्ट को पूरी दुनिया के शोधकर्ताओं और बुद्धिजीवियों ने गंभीरता से लिया है‚ और माना है कि पाक–अधिकृत कश्मीर में अब एक भी हिंदू या सिख नहीं है। इससे यह अनुमान लगाया है कि १९४७ के पाकिस्तानी हमले के बाद वहां रह रहे १‚२२‚५०० हिंदू और सिख उस इलाके से गायब हो गए। मिर्जा लिखते हैं कि नहीं भूलना चाहिए कि बंटवारे के समय दोनों देशों के पंजाब प्रांतों में हो रहे भारी सांप्रदायिक दंगों से बचने के लिए बडी संख्या में सिख और हिंदुओं ने पंजाब की सीमा से सटे पाक–अधिकृत कश्मीर में शरण ली थी। यहां के भिम्बर शहर में २०००‚ मीरपुर में १५‚०००‚ राजौरी में ५‚००० और कोटली में अनगिनत हिंदू और सिखों ने शरण ली थी। भिम्बर तहसील में ३५ फीसद आबादी हिंदुओं की थी पर १९४७ के पाकिस्तानी हमले में एक भी नहीं बचा।
मिर्जा लिखते हैं कि सबसे बडा नरसंहार तो मेरे गृह नगर मीरपुर में हुआ जहां २५‚००० हिंदू और सिखों को एक जगह एकत्र करके मारा–काटा गया। उनकी बहू–बेटियों को पाकिस्तानी फौज और धर्मांध लश्करियों ने ‘अल्लाह–ओ–अकबर’ का नारा लगा कर वहशियाना हवस का शिकार बनाया। उस नरसंहार से बच कर उन लोगों के परिवारजन‚ जो किसी तरह जम्मू पहुंच गए‚ आज तक २५ नवम्बर को ‘मीरपुर नरसंहार दिवस’ के रूप में मनाते हैं। इस मनहूस दिन १९४७ में पाकिस्तानी फौज और लश्कर ने मीरपुर में जगह–जगह आगजनी‚ लूट और नरसंहार किया था और ‘काफिरों’ के घरों और दुकानों को चुन–चुनकर जला दिया था।
मिर्जा बताते हैं कि सौभाग्य से इस मनहूस दिन से केवल दो दिन पहले ही २‚५०० हिंदू और सिख जम्मू–कश्मीर की सेना के संरक्षण में जम्मू तक सुरक्षित पहुंचने में कामयाब हो गए थे। जो पीछे रह गए उन्हें पाकिस्तानी फौज अली बेग इलाके में यह कह कर ले गई कि वहां एक गुरुद्वारे में शरणाथियों के लिए कैम्प लगाया गया है पर जिस पैदल मार्च को हिंदू और सिखों ने इस उम्मीद में शुरू किया कि अब उनकी जान बच जाएगी वो मौत का कुआं सिद्ध हुआ। इस पैदल मार्च के रास्ते में ही १०‚००० हिंदू और सिखों को कत्ल कर दिया गया। इनकी ५‚००० बहू–बेटियों को हवस का शिकार बनाने के बाद रावलपिंडी‚ झेलम और पेशावर के बाजारों में बेच दिया गया। इस तरह कुल ५००० हिंदू और सिख ही अली बेग तक पहंुच पाए। जहां पहुंच कर भी वे सुरक्षित नहीं रहे और उनके पहरेदारों ने ही उनका कत्ल करना जारी रखा। इस तरह मीरपुर के २५‚००० हिंदू और सिखों में से केवल १६०० बचे‚ जिन्हें इंटरनेशनल कमेटी ऑफ रेड़क्रॉस वाले सुरक्षित रावलपिंडी ले गए जहां से फिर उन्हें जम्मू भेज दिया गया।
मिर्जा बताते हैं कि १९५१ में पाक–अधिकृत कश्मीर में केवल ७९० गैर– मुसलमान बचे थे पर आज एक भी नहीं है। मीरपुर के इस नरसंहार से भयभीत बहुत सी औरतों और आदमियों ने पहाड से कूद कर या जहर खा कर आत्महत्या कर ली थी। हिंदू और सिखों का ऐसा ही नरसंहार राजौरी‚ बारामूला और मुजफ्फराबाद में भी हुआ। इसलिए मिर्जा का कहना है कि ‘द कश्मीर फाइल्स’ में जो दिखाया गया है‚ उससे कहीं ज्यादा खौफनाक नरसंहार १९४७ के बाद पाक–अधिकृत कश्मीर में हिंदुओं और सिखों को झेलना पडा था। जहां यह रिपोर्ट हर हिंदू का ही नहीं‚ बल्कि हर इंसान का दिल दहला देती है‚ वहीं यह भी महत्वपूर्ण है कि अमजद अय्यूब मिर्जा जैसे मुसलमान भी हैं‚ जो अपने धर्म के कट्टरवादियों की धमकियों के बावजूद सच्चे इंसान की तरह सच को सच कहने से नहीं डरते। ऐसे मुसलमान भारत में भी बडी तादाद में हैं‚ और पाकिस्तान में भी इनकी संख्या कम नहीं है।
दिक्कत इस बात की है कि कट्टरपंथी मुल्ला इन बातों को कभी अहमियत नहीं देते‚ बल्कि लगातार जहर घोलते रहते हैं‚ जिससे कभी सांप्रदायिक सौहार्द स्थापित हो ही नहीं पाता। जरूरत इस बात की थी कि जज्बाती और समझदार मुसलमान इन मुल्लाओं की खिलाफत करने की हिम्मत दिखाते जिसके प्रभावी न होने के कारण बहुसंख्यक हिंदू समाज उनके प्रति हमेशा सशंकित रहता है। इसलिए यह जिम्मेदारी मुस्लिम समाज के पढे–लिखे और प्रगतिशील हिस्से की है कि वे अपने सुरक्षित घरों से बाहर निकलें और भारत में इंडोनेशिया‚ मलयेशिया और तुर्की जैसे प्रगतिशील मुस्लिम समाज की स्थापना करें जिससे हर हिंदुस्तानी अमन–चैन के साथ जी सके। तभी भारत में शांति स्थापित हो पाएगी। इसी में सभी का हित है।