सुजलाम‚ सुफलाम‚ मलयज शीतलाम‚ शस्य श्यामलाम‚ भारत माता इतनी उदार हैं कि हर भारतवासी सुखी‚ स्वस्थ व सम्पन्न हो सकता है। पर स्वतंत्रता के ७५ वर्ष बाद भी अधिकतर आबादी पेट पालने के लिए भी दान के अनाज पर निर्भर है। कई दशकों तक ‘गरीबी हटाओ’ के नाम पर उसे झुनझुना थमाया गया। पर उसकी गरीबी दूर नहीं हुई। आज गरीबी के साथ युवा बेरोगगारी एक बहुत बड़ी समस्या बन गई है। जिसका निदान अगर जल्दी नहीं हुआ तो करोड़ों युवाओं की ये फौज देश भर में हिंसा‚ अपराध और लूट में शामिल हो जाएगी। हर राजनैतिक दल अपने वोटों का ध्रुवीकरण के लिए जनता को किसी न किसी नारे में उलझाए रखता है और चुनाव जीतने के लिए उसे बड़े–बड़े लुभावने सपने भी दिखाता है।
पिछले कुछ वर्षों से अल्पसंख्यक मुसलमानों का डर बहुसंख्यक हिंदुओं को दिखाया जा रहा है। आधुनिक सूचना तकनीकी की मदद से ‘इस्लमोफोबिया’ को घर–घर तक पहुंचा दिया गया है। जहां तक भारत में मुस्लिम आबादी का प्रश्न है वे आज १७ करोड़ हैं और हम हिंदू ९६ करोड़ हैं। अपनी आबादी के इतने बड़े हिस्से को अगर हम अपनी हर समस्या का कारण मानते हैं तो इसका निदान क्या हैॽ उनके और हमारे बीच चले आ रहे विवाद के विषयों का समाधान खोजा जाएॽ उल्लेखनीय है कि सरसंघ चालक डॉक्टर मोहन भागवत जी मुसलमानों के विषय में कई बार कह चुके हैं कि उनके और हमारे पुरखे एक ही थे‚ कि उनका और हमारा डीएनए एक है‚ कि भारत में रहने वाला हर व्यक्ति हिंदू है। अशांत समाज में आर्थिक गतिविधियां ठहर जाती हैं। इस सबसे अलग एक प्रश्न हम सब सनातन धर्मियों के मन में सैकड़ों वर्षों से घुट रहा है। भारत की सनातन संस्कृति को गत हजार वर्षों में राजाश्रय नहीं मिला। कई सदियों में तो उसका दमन किया गया। जिसका विरोध सिख गुरु ओं व शिवाजी महाराज जैसे अनेक महापुरुषों ने किया। पर महत्वपूर्ण बात यह है कि इनका विरोध उस राज सत्ता से था जो हिंदुओं का दमन करती थीं। सामाजिक स्तर पर इन्हें मुसलमानों से कोई बैर नहीं था। क्योंकि इनकी सेना और साम्राज्य में मुसलमानों को महत्वपूर्ण पदों पर तैनात किया गया था। बंटवारे से पहले जो लोग भारत और पाकिस्तान के भौगोलिक क्षेत्रों में सदियों से रहते आए थे‚ उनके बीच भी पारस्परिक सौहार्द और प्रेम अनुकरणीय था। बंटवारे के बाद इधर से उधर या उधर से इधर गए ऐसे तमाम लोगों के इंटरव्यू यूट्यूब पर भरे पड़े हैं। ये बुजुर्ग बताते हैं कि बंटवारे की आग फैलने से पहले तक इनके इलाकों में साम्प्रदायिक वैमनस्य जैसी कोई बात ही नहीं थी।
एक तरफ सनातन धर्म के मानने वाले वे संत और हम जैसे साधारण लोग हैं‚ जिनका यह विश्वास है कि सनातन धर्म ही मानव और प्रकृति के कल्याण के लिए सर्वाधिक उपयुक्त है। इसीलिए हम इसका पालन राष्ट्रीय स्तर पर होते देखना चाहते हैं। वैसे भी दुनिया के सभी सम्प्रदाय वैदिक संस्कृति के बाद पनपे हैं। पर ऐसा होता दिख नहीं रहा। चिंता का विषय यह है कि हिंदुत्व का नारा देने वाले भी वैदिक सनातन संस्कृति की मूल भावना व शास्त्रोचित सिद्धांतों की अवहेलना करते हुए अति उत्साह में अपने मनोधर्म को वृहद् हिंदू समाज पर जबरन थोपने का प्रयास करते हैं‚ जबकि हमारे सनातन धर्म की विशेषता ही यह है कि इसका प्रचार–प्रसार मनुष्यों की भावना से होता है तलवार के जोर से नहीं। ॥ रही बात मुसलमानों की तो इसमें संदेह नहीं कि मुसलमानों के एक भाग ने भारतीय संस्कृति को अपने दैनिक जीवन में काफी हद तक आत्मसात किया है। ऐसे मुसलमान भारत के हर हिस्से में हिंदुओं के साथ सौहार्दपूर्ण वातावरण में जीवन यापन करते हैं। किंतु उनके धर्मांध नेता अपने राजनैतिक लाभ के लिए उन्हें गुमराह करके ऐसा वातावरण तैयार करते हैं‚ जिससे बहुसंख्यक हिंदू समाज न सिर्फ असहज हो जाता है बल्कि उनकी ओर से आशंकित भी हो जाता है। हिंदू समाज की ये आशंका निर्मूल नहीं है। मध्य युग से आजतक इसके सैकड़ों उदाहरण उपलब्ध हैं। ताजा उदाहरण अफगानिस्तान के तालिबानों का है जिन्होंने सदियों से वहां रह रहे हिंदुओं और सिखों को अपना वतन छोड़ने पर मजबूर कर दिया है।
ऐसे में अब समय आ गया है कि शिक्षा‚ कानून और प्रशासन के मामले में देश के हर नागरिक पर एक सा नियम लागू हो। धार्मिक मामलों को समाज के निर्णयों पर छोड़ दिया जाए। उनमें दखल न दिया जाए। ऐसे में मुसलमानों के पढ़े–लिखे और समझदार लोगों को भी हिम्मत जुटा कर अपने समाज में सुधार लाने का काम करना चाहिए‚ जिससे उनकी व्यापक स्वीकार्यता बन सके। वैसे ही जैसे हिंदुत्व का झंडा उठाने वाले नेताओं और कार्यकर्ताओं को गम्भीरता से सनातन धर्म के सिद्धांतों का पालन करना चाहिए‚ न कि उसमें घालमेल। तभी भारत अपनी १३५ करोड़ जनता की अपेक्षाओं के अनुरूप खड़ा हो सकेगा॥।