पंजाब में कई किसान संगठनों का राजनीतिक दल (संयुक्त समाज मोर्चा–एसएसएम) विधानसभा चुनाव में राजनीतिक प्रभाव नहीं छोड़़ पाया। आम आदमी पार्टी (आप) ने राज्य में प्रचंड़ जीत हासिल की है‚ और किसान नेता बलवीर सिंह राजेवाल की अगुवाई वाला संगठन राज्य में एक भी सीट नहीं जीत पाया। कोई एक साल तक तीन कृषि कानूनों के खिलाफ दिल्ली की सीमाओं पर चले किसान आंदोलन की सफलता‚ इस रूप में कि केंद्र सरकार ने इन कानूनों को वापस ले लिया था‚ से अभिभूत किसान संगठनों ने पंजाब विधानसभा लड़़ने का मन बनाया था। हालांकि विभिन्न किसान संगठनों‚ जिन्होंने कृषि कानूनों के विरोध में जोरदार आंदोलन चलाया था‚ ने इस बाबत मंशा को ज्यादा तवज्जो नहीं दी। उनका मानना था कि इससे किसान हितों संबंधी आंदोलन मुद्दे से भटक सकता है। लेकिन कुछ नेताओं का तर्क था कि चुनावी राजनीति में शिरकत से ही ‘राजनीतिक बदलाव’ आ सकेगा। राजनीति में ऐसी भागीदारी से जनांदोलन के संघर्ष को धार दी जा सकती है। इसलिए बीते दिसम्बर महीने में हरियाणा भारतीय किसान यूनियन (चढ़ूनी) के नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी की संयुक्त संघर्ष समिति के साथगठबंधन करके चुनाव लड़़ा गया। राजेवाल स्वयं पटियाला जिले की समराला सीट से चुनाव मैदान में उतरे लेकिन उन्हें हार का सामना करना पड़़ा। ऐसा पहली बार नहीं हुआ जब किसी जनांदोलन से जुड़े़ नेता–कार्यकर्ताओं ने चुनाव लड़़ने की महत्वाकांक्षा दिखाई हो। मजदूरों‚ छात्रों और महिलाओं के मुद्दों पर संघर्ष करने वाले लोग चुनाव में किस्मत जब–तब आजमाते रहे हैं। यहां तक कि आरटीआई कार्यकर्ता भी मौका मिले तो चुनाव लड़़ने से नहीं चूकते। लेकिन राजनीतिक ड़गर जनांदोलन से निकले लोगों को कम ही रास आई है‚ और उन्होंने राजनीति में हाथ आजमाने से तौबा कर ली। कुछ मुद्दों पर अपने आसपास जुटे लोगों के हुजूम को देखकर कुछ लोग अति उत्साह में राजनीति में आने का फैसला करते हैं‚ लेकिन नाकामी मिलने पर हाथ जला बैठने जैसा महसूस करते हैं। पंजाब में कुछ किसान नेताओं ने दावा किया कि जनता की मांग और दबाव में वे चुनाव लड़़ रहे हैं‚ लेकिन ज्यादातर समय वे संघर्ष करते ही दिखे यानी राजनीति में जद्दोजहद आंदोलनों के संघर्ष से बिल्कुल जुदा है।
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