पिछले कुछ समय में केंद्र और राज्यों के बीच एक ऐसे महत्वपूर्ण मामले पर विवाद बना हुआ है जो सामान्य तौर पर नहीं होना चाहिए। यह विषय है‚ अखिल भारतीय सेवाएं यानी भारतीय प्रशासनिक सेवा या आईएएस‚ भारतीय पुलिस सेवा या आईपीएस और आईएफएस या भारतीय वन सेवा के अधिकारियों के केंद्र में प्रतिनियुक्ति। केंद्र सरकार ने हाल में अधिकारियों की प्रतिनियुक्ति के नियमों में कुछ बदलाव प्रस्तावित किए थे‚ जिसे लेकर कई राज्य आगबबूला हैं और इसे राज्यों के अधिकार का हनन मान रहे हैं। अनेक लोगों ने इस महत्वपूर्ण विषय को गहराई से समझें बिना टिप्पणियां करनी शुरू कर दी।
देश को यह पता होना चाहिए कि इस समय केंद्र सरकार अपने लिए अधिकारियों की कमी से जूझ रही है। हाल में प्राप्त आंकड़ों के अनुसार आईएएस श्रेणी के इस समय कुल २२३ अधिकारी प्रतिनियुक्ति पर हैं। सन २०११ में इनकी संख्या ३०९ थी। इस तरह एक दशक में ८३ अधिकारियों की कमी हुई है। यह बहुत बड़ी संख्या है। बताया गया है कि आंकड़ा २५ प्रतिशत से घटकर १८ प्रतिशत रह गया है। पुलिस सेवा में भी भारी संख्या में पद रिक्त हैं। वास्तव में केंद्रीय पुलिस संगठनों में अधिकारियों की कमी हो गई है। उदाहरण के लिए सीमा सुरक्षा बल यानी बीएसएफ में डीआईजी स्तर पर भारतीय पुलिस सेवा के २६ पद स्वीकृत हैं‚ जिनमें से २४ खाली है। कल्पना कर सकते हैं क्या स्थिति होगीॽ सीआरपीएफ यानी केंद्रीय रिजर्व पुलिस में भी डीआईजी के ३८ में से ३६ पद खाली पड़े हैं। चाहे सीबीआई हो आईबी सभी केंद्रीय पुलिस संगठनों में यही स्थिति है। तो क्या यह संपूर्ण देश के लिए चिंता का विषय नहीं होना चाहिएॽ
वस्तुतः प्रत्येक राज्य में एक केंद्रीय प्रतिनियुक्ति रिजर्व होता है। उच्च पदों का यह ४० प्रतिशत है। इसी निर्धारित प्रतिशत से अधिकारी केंद्र में काम करने के लिए जाते हैं। परंपरा के अनुसार केंद्र सरकार हर वर्ष ऐसे अधिकारियों की सूची मंगाता है जो केंद्र में आने की चाहत रखते हैं। बहुत सारे अधिकारी स्वयं भी केंद्र में जाना चाहते हैं और वो नियमानुसार राज्यों को अपनी इच्छा से अवगत कराते हैं‚ जो सूची केंद्र के पास पहुंचती है; उनमें से आवश्यकता अनुसार वे चयन करते हैं। पिछले कुछ वर्षों में राज्यों की ओर से इस सूची में काफी कमी की गई है और समस्या का यही कारण है। एक आंकड़ा उप सचिव और निदेशक स्तर के अधिकारियों का है। इस समय उनकी संख्या ११३० है। २०१४ में इनकी संख्या ६२१ थी‚ लेकिन प्रतिनियुक्ति पर आए अधिकारियों की संख्या केवल ११४ है‚ जबकि २०१४ में ११७ था। भारतीय पुलिस सेवा यानी आईपीएस के बारे में बताया गया है कि कुल स्वीकृत पद ४९८४ है। इस समय ४०७४ अधिकारी उपलब्ध हैं। इनमें से केवल ४४२ अधिकारी प्रतिनियुक्ति पर हैं जबकि नियमानुसार इनकी संख्या १०७५ होनी चाहिए। इस तरह देखें तो आईपीएस में ६३३ अधिकारी कम है। राज्यों द्वारा की गई कटौतियों को देखें तो पश्चिम बंगाल ने १६ प्रतिशत‚ हरियाणा ने १६.१३ प्रतिशत‚ तेलंगाना ने २० प्रतिशत और कर्नाटक कर्नाटक २१.७ प्रतिशत अधिकारियों की कटौती कर दी है। अगर कटौती इतनी बड़ी संख्या में होगी तो इसका असर पड़ेगा। ऐसे में केंद्र के पास चारा क्या हैॽ
केंद्र के पास रास्ता यही होता है कि वह राज्यों से सूची बार–बार मांगे। सूची न आने पर कुछ अधिकारियों का नाम अपनी ओर से भेजे ताकि राज्य उन्हें प्रतिनियुक्ति के लिए मुक्त कर सकें। राज्य इसके लिए तैयार नहीं हो तो फिर केंद्र के पास नियम बदलने के अलावा दूसरा चारा नहीं बचता। सच यह है कि केंद्र की ओर से राज्यों को बार–बार लिखा गया‚ लेकिन कई राज्य अधिकारियों को मुक्त करने के लिए तैयार नहीं है। वास्तव में अनेक अधिकारी केंद्र में जाने के इच्छुक हैं‚ लेकिन राज्य सरकारें उन्हें मुक्त करने के लिए तैयार नहीं। इससे टकराव की स्थिति पैदा हो गई है। ११ राज्यों ने केंद्र सरकार के ताजा प्रस्ताव (अधिकारियों को बुलाने का) का त्वरित विरोध करते हुए कहा कि यह संघीय ढांचे पर प्रहार है। ध्यान रखने की बात है कि इस पत्र में यह भी कहा गया था कि कितने अधिकारियों को केंद्र में प्रतिनियुक्ति पर जाना है इस बारे में भारत सरकार राज्य सरकारों से सलाह करने के बाद ही निर्णय करेगी।
यह सोचने वाली बात है कि जब प्रतिनियुक्ति पर जाने वाले अधिकारियों की सूची छोटी कर दी जाएगी तो केंद्र को नियम में बदलाव करना पड़ेगा और वह यही हो सकता है कि आप निश्चित समय सीमा में जो स्वीकृत पद हैं उसके लिए अधिकारियों को मुक्त करें। हां‚ इस पर सलाह–मशविरा हो सकता है। राज्य सहमत नहीं हो रहे हैं। २० दिसम्बर २०२१ के बाद १२ जनवरी और १७ जनवरी को केंद्र की ओर से दो अलग–अलग पत्र लिखे गए। १२ जनवरी का पत्र थोड़ा ज्यादा मुखर था। इसमें लिखा गया कि कुछ विशेष परिस्थितियों में केंद्र अगर राज्यों से किसी विशेष अधिकारी की जरूरत बताता है तो राज्यों को उस अधिकारी को उपलब्ध कराना होगा। इसका विरोध ज्यादा हुआ है। यह विचित्र स्थिति है कि केंद्र सरकार को अपने ही देश में अपने लिए आवश्यकतानुसार अधिकारियों को लेने में समस्या हो रही है। यह ऐसा विषय है जो सामान्य तौर पर एक सहज स्वाभाविक चक्र के अनुसार जारी रहना चाहिए था। स्थापित नियम और परंपराएं हैं। देश केंद्र और राज्य दोनों के संतुलन से चलता है। यह संतुलन हर विषय में होना चाहिए। रास्ता यही है कि राज्य सरकारें नियमों के तहत अधिकारियों की जो संख्या निर्धारित है उन्हें केंद्र को उनकी आवश्यकता के अनुसार उपलब्ध कराना चाहिए।
दुर्भाग्य से राज्य ऐसा नहीं कर रहे हैं‚ जबकि रास्ता यही है। बहुत सारे अधिकारी भी एक बार राज्य में स्थापित हो जाने या कुछ राजनीतिक नेतृत्व से संबंध बन जाने के कारण बाहर जाना नहीं चाहते। यह भी गलत है। उनकी नियुक्ति अखिल भारतीय सेवा के लिए हुई है और सेवा देने के पीछे उनके अंदर यही भावना होनी चाहिए। वस्तुतः इस विषय पर टकराव और विवाद जितनी जल्दी खत्म हो उतना ही अच्छा होगा। किसी अधिकारी को लेकर समस्या हो तो केंद्र राज्य बैठकर उसका रास्ता निकालें। यह प्रशासनिक आवश्यकता व दक्षता का मामला है जो सीधे–सीधे जनता के हितों से जुड़ा है। इसलिए इस पर राजनीति बिल्कुल अनुचित है।