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Home TAZA KHABAR

संख्या नहीं‚ अब सशक्तीकरण की लड़़ाई

UB India News by UB India News
November 28, 2021
in TAZA KHABAR, खास खबर, संपादकीय, समाज
0
संख्या नहीं‚ अब सशक्तीकरण की लड़़ाई

आज देश में महिलाएं अगर अपना घर संभाल रही हैं तो सशस्त्र बलों और चंद्र मिशन का नेतृत्व भी कर रही हैं। आज के भारत में ‘महिलाओं के नेतृत्व वाले विकास’ की प्रगतिशील सोच ने स्वास्थ्य‚ शिक्षा‚ रोजगार और कौशल निर्माण तक उनकी पहुंच की मजबूत राह तैयार की है। यकीनन यह पीएम की क्रांतिकारी और दूरदर्शी सोच के कारण संभव हुआ है‚ जिसने महिलाओं को देश के विकास की अहम ताकत बनाने में मदद की है‚ लेकिन इस तथ्य को भी नहीं भुलाया जाना चाहिए कि बेशक हमने व्यापक सुधारों के जरिए लैंगिक अनुपात में एक मील का पत्थर पार कर लिया हो‚ देश को महिला सशक्तीकरण के कई क्षेत्रों में अभी भी लंबा सफर तय करना बाकी है॥ सिद्ध मनोवैज्ञानिक सिग्मंड फ्रायड का एक मनोविश्लेषणात्मक सिद्धांत है विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण‚ लेकिन उदाहरण की कसौटी में इस सिद्धांत का दायरा प्रेमी–प्रेमिका या पति–पत्नी तक सीमित नहीं रखा गया‚ बल्कि एक माता का पुत्र के प्रति प्रेम अथवा एक पिता का पुत्री के प्रति अधिक आकर्षण और प्रेम तक इसका विस्तार है। और जब यही सिद्धांत भविष्य के आईने में उतरता है‚ तो लिंगानुपात का चक्र एक बार घूम जाता है। मसलन पुरु षों की संख्या ज्यादा हो तो‚ भविष्य में महिलाओं की संख्या में बढ़ोतरी भी तय मानी जाती है‚ और यथार्थ इसे सिद्ध भी कर रहा है।

पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों की राजनीतिक गहमागहमी और किसान आंदोलन की तनातनी के बीच एक बेहद सकारात्मक खबर को उतनी चर्चा नहीं मिल पाई है‚ जिसकी वो सही मायनों में हकदार है। यह खबर देश में महिला–पुरु ष की संख्या के अनुपात में आए ऐतिहासिक बदलाव से जुड़ी है। देश में पहली बार महिलाओं की संख्या पुरु षों के बराबर ही नहीं‚ बल्कि ज्यादा हो गई है। राष्ट्रीय परिवार और स्वास्थ्य सर्वेक्षण यानी नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (एनएफएचएस) के पांचवें दौर के आंकड़ों से जानकारी सामने आई है कि अब देश में प्रति १००० पुरु षों पर महिलाओं की संख्या १०२० हो गई है। इसमें खास बात यह है लिंगानुपात शहरों की अपेक्षा गांवों में बेहतर हुआ है। गांवों में १‚००० पुरु षों पर १०३७ महिलाएं हैं‚ जबकि शहरों में ९८५ महिलाएं ही हैं। बड़ी खुशखबरी यह भी है कि कई राज्यों में बेटियों की जन्म दर भी बढ़ी है। साथ में सर्वे के आंकड़े इस बात की राहत भी पहुंचा रहे हैं कि अब जनसंख्या विस्फोट का खतरा भी काफी कम हो गया है। सर्वे के अनुसार पिछले छह साल में देश के लिंगानुपात में १० अंकों का सुधार आया है। साल २०१५–१६ में जब इस तरह का पिछला हेल्थ सर्वे हुआ था‚ तब यह आंकड़ा प्रति १००० पुरुषों पर ९९१ महिलाओं का था। एनएफएचएस की शुरु आत साल १९९२ में हुई थी। इस लिहाज से देश ने करीब तीन दशकों में लिंगानुपात में इस क्रांतिकारी परिवर्तन की यात्रा को सफलतापूर्वक पूरा किया है। बेशक एनएफएचएस सर्वे छोटे स्तर पर आयोजित होते हैं। इसलिए जब तक राष्ट्रीय जनगणना के नतीजे नहीं आ जाते तब तक इनकी प्रामाणिकता पर सवाल बना रहता है। इसके बावजूद क्योंकि यह सर्वे जिला स्तर तक जाकर आयोजित होते हैं‚ इसलिए भविष्य के संकेतक के रूप में इनकी मान्यता को सामान्यतः संदेह से परे माना जाता है।

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जो सर्वे आया है उसके नतीजे विशेष रूप से काफी उत्साहित करने वाले हैं। बच्चों के लिंगानुपात पर यह सवाल उठ सकता है कि अभी भी एक हजार नवजात पर बेटियों की संख्या ९२९ ही है‚ लेकिन राहत देने वाला इसका पक्ष यह है कि इस संख्या में भी बढ़ोतरी हुई है। यह इस बात का इशारा है कि शासकीय स्तर पर सख्ती और जागरूकता के कारण प्रसव से पूर्व लिंग का पता करने और भ्रूण हत्या के मामलों में कमी आई है। हमारे देश में बेटियों के जन्म के दिन से ही उनकी शादी का खर्चा जुटाने की पुरानी परंपरा रही है। बेटी को ‘पराया धन’ मानने के मानस के कारण आज भी कई वंचित समुदायों में लड़कियों को स्कूल भेजकर आत्मनिर्भर बनाने की शिक्षा देने के बजाय उन्हें घर के कामों में दक्ष बनाकर ‘अच्छी पत्नी’ बनने की बात पर ज्यादा जोर दिया जाता है। हरियाणा और राजस्थान के कई क्षेत्रों में बच्चियों को मां की कोख में ही मार देने की घटनाएं कम जरूर हुई हैं‚ लेकिन ये पूरी तरह खत्म नहीं हुई हैं। इन बातों का जिक्र इसलिए जरूरी है कि क्योंकि जब हम इस हकीकत को हेल्थ सर्वे के नतीजों से तौलेंगे‚ तभी इस बदलाव की महत्ता को ठीक से समझ पाएंगे। इसी चुनौती को भांप कर देश की सरकारें लंबे समय से इस बदलाव के लिए प्रयासरत रहीं। लगातार इस दिशा में एक के बाद एक कई कदम उठाए गए। खास तौर पर केंद्र की मौजूदा मोदी सरकार ने तो महिला सशक्तीकरण के विजन को मिशन मोड पर आगे बढ़ाया है। मोदी सरकार ने अपने कार्यकाल में जिस ‘बेटी बचाओ‚ बेटी पढ़ाओ’ अभियान को देश का संकल्प बनाया‚ उसके बारे में नीति आयोग की रिपोर्ट का आकलन है कि इससे लैंगिक भेदभाव कम हुआ है और लड़कियों को लेकर समाज के लोगों की जागरूकता और नजरिया दोनों में बड़ा बदलाव हुआ है।

नारी में नारायणी वाली इस परिकल्पना पर काम करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस बात पर जोर दिया है कि भारत ‘महिला विकास’ की सोच से आगे निकलकर ‘महिला–नेतृत्व वाले विकास’ में परिवतत हो। इसके लिए सरकार ने खास तौर पर ऐसी योजनाओं को धरातल पर उतारा है‚ जो महिलाओं की वास्तविक क्षमता की पहचान करे‚ उन्हें सशक्त बनाए और देश की विकास गाथा में योगदान करने का माध्यम साबित हो। स्वास्थ्य और स्वच्छता का ही उदाहरण लें‚ तो आज महिलाओं के लिहाज से इस क्षेत्र में उल्लेखनीय सुधार आया है। इसे लेकर यूनिसेफ की पिछले साल फरवरी में आई रिपोर्ट बताती है कि कैसे ग्रामीण भारत में बड़े पैमाने पर हुए शौचालय निर्माण ने स्थानीय महिलाओं की सुरक्षा‚ सुविधा और स्वाभिमान को बढ़ाने में योगदान दिया है। इसी रिपोर्ट में मातृ स्वास्थ्य और कल्याण को बढ़ावा देने का श्रेय भी सरकार की प्रतिबद्धता को दिया गया है। एनएफएचएस सर्वे में देश के खाते में जुड़ी एक और बड़ी उपलब्धि का भी जिक्र मिलता है। सर्वे के अनुसार देश में खुद का बैंक खाता रखने वाली महिलाओं की संख्या २५ फीसद तक बढ़ी है और अब ७८ फीसद से ज्यादा महिलाएं अपना बैंक खाता ऑपरेट कर रही हैं। वहीं ४३ फीसद से ज्यादा महिलाओं के नाम पर कोई–न–कोई प्रॉपर्टी है। निश्चित रूप से ‘प्रधानमंत्री जन धन’ योजना ने इस बदलाव में बड़ी भूमिका निभाई है। इस योजना की मदद से ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में १८ करोड़ से अधिक महिलाओं को पहली बार औपचारिक बैंकिंग और अन्य वित्तीय सेवाओं से जुड़ने का मौका मिला है।

महिला सशक्तीकरण के यह दो उदाहरण आज देश में चल रही उस मुहिम का एक हिस्सा भर हैं‚ जिसमें महिलाओं को राजनीति‚ व्यवसाय‚ चिकित्सा‚ खेल‚ कृषि जैसे तमाम क्षेत्रों में आत्मनिर्भर बनने के अवसर उपलब्ध करवाए जा रहे हैं। इसका परिणाम यह है कि आज देश में महिलाएं अगर अपना घर संभाल रही हैं तो सशस्त्र बलों और चंद्र मिशन का नेतृत्व भी कर रही हैं। आज के भारत में ‘महिलाओं के नेतृत्व वाले विकास’ की प्रगतिशील सोच ने बुनियादी सुविधाओं‚ स्वास्थ्य‚ शिक्षा‚ रोजगार और कौशल निर्माण तक उनकी पहुंच की मजबूत राह तैयार की है। यकीनन यह प्रधानमंत्री की क्रांतिकारी और दूरदर्शी सोच के कारण संभव हुआ है‚ जिसने महिलाओं को देश के विकास की महत्वपूर्ण ताकत बनाने में मदद की है‚ लेकिन साथ ही इस तथ्य को भी नहीं भुलाया जाना चाहिए कि बेशक हमने व्यापक सुधारों के जरिए लैंगिक अनुपात में एक मील का पत्थर पार कर लिया हो‚ देश को महिला सशक्तीकरण के कई क्षेत्रों में अभी भी एक लंबा सफर तय करना बाकी है। सवाल उस लैंगिक भेदभाव का भी है‚ जिसमें ग्रामीण क्षेत्रों में रह रही हमारी महिलाओं को आज भी शहरी महिलाओं की तरह शिक्षा‚ रोजगार‚ स्वास्थ्य देखभाल और निर्णय लेने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। सवाल नजरिए में बदलाव का भी है।

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