पं. बंगाल विधानसभा चुनाव संपन्न होने के बाद बीजेपी आलाकमान की नजर अब यूपी विधानसभा चुनाव 2022 पर आ कर टिक गई है. बीजेपी किसी भी कीमत पर 2022 का यूपी विधानसभा चुनाव हारना नहीं चाहती है. चाहे, इसके लिए उसे बड़े नेताओं की मंत्री पद की कुर्बानी ही क्यों न देनी पड़े. पिछले सप्ताह ही 7 साल तक मोदी कैबिनेट का हिस्सा रहे रविशंकर प्रसाद मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था. राजनीति के कुछ जानकारों की राय में रविशंकर प्रसाद का मंत्रिमंडल से बाहर जाना ट्विटर बनाम सरकार की लड़ाई और अमेरिका की नाराजगी से जुड़ा है. वहीं, कुछ जानकारों की मानें तो हकीकत में मामला कुछ और ही है. ऐसे लोग रविशंकर प्रसाद को बड़ी जिम्मेदारी देने से भी इंकार नहीं करते. ऐसे में सवाल है क्या रविशंकर प्रसाद को यूपी चुनाव में अहम जिम्मेवारी मिलने जा रही है? या इसका खामियाजा बीजेपी को यूपी चुनाव में उठाना पड़ सकता है? ऐसे में नजर डालते हैं यूपी-बिहार की कायस्थ पॉलिटिक्स और केंद्र की राजनीति में उसके दबदबे की.
यूपी-बिहार की पॉलिटिक्स में कायस्थों की भागीदारी
यूपी विधानसभा चुनाव को लेकर बीजेपी ने अभी से ही तैयारी शुरू कर दी है. हाल ही मोदी मंत्रिमंडल विस्तार में यूपी का विशेष ख्याल भी रखा गया है. खासकर ओबीसी वोटरों को साधने के लिए कई नए चेहरों को बीजेपी ने आजमाया है. यूपी-बिहार में जाति की पॉलिटिक्स करना कोई बड़ी बात नहीं है. अगड़ी-पिछड़ी सभी जातियां यहां पर जाति पॉलिटिक्स करती है. तकरीबन एक साल पहले लखनऊ में भी कायस्थों के प्रतिनिधत्व को लेकर जगह-जगह पोस्टर लगाए गए थे, जिसमें लिखा गया था ‘कायस्थों अब तो जाग जाओ, या फिर हमेशा के लिए सो जाओ’ एक तरह कायस्थ जाति यूपी में अपना खोया स्थान मांग रही है तो दूसरी तरफ केंद्र की राजनीति से कायस्थों का सफाया हो रहा है.
बीजेपी की सोशल इंजीनियरिंग में कायस्थों की भागीदारी
गौरतलब है कि कायस्थ लंबे समय से बीजेपी के परंपरागत वोटर माने जाते रहे हैं. बीजेपी समय-समय पर कायस्थ समुदाय को संगठन में भी जगह देती रही है. पार्टी की मौजूदा सोशल इंजीनियरिंग में कायस्थों की भागीदारी पर विपक्षी दलों को मौक मिल गया है कि वह इस बहाने बीजेपी पर हमला बोले. यूपी में तकरीबन 3 से 4 फीसदी कायस्थ वोटर हैं, जो बीजेपी के साथ मजबूती के साथ जुड़े हुए हैं. गोरखपुर, लखनऊ, वाराणसी, कानपुर और इलाहाबाद सहित तमाम यूपी के बड़ों शहरों में कायस्थ समुदाय का अच्छा खासा दबदबा है. कायस्थों की यह संख्या यूपी में किसी भी राजनीतिक दल का खेल बनाने और बिगाड़ने की ताकत रखता है.
क्या कायस्थ बीजेपी की सोशल इंजीनियरिंग में फिट नहीं?
हाल ही में मोदी मंत्रिमंडल के विस्तार से पता चलता है कि बीजेपी की सोशल इंजीनियरिंग में कायस्थ पॉलिटिक्स फिट नहीं बैठ रहा है. राजनीतिक जानकारों का मानना है कि मोदी कैबिनेट से एक बड़े कायस्थ नेता की विदाई से पढ़े-लिखे कायस्थों में रोष है. रविशंकर प्रसाद से पहले शत्रुघ्न सिन्हा, आर के सिन्हा, यशवंत सिन्हा की भी कुछ इसी तरह ही पार्टी से विदाई शुरू हुई थी.
बीजेपी में कायस्थों के बड़े नेता का क्या हुआ हाल
बीजेपी के पूर्व सांसद शत्रुघ्न सिन्हा और यशवंत सिन्हा पार्टी में हाशिए पर रहने के कई साल बाद खुद ही पार्टी से नाता तोड़ लिया या अन्य दलों का दामन थाम लिया. शत्रुध्न सिन्हा ने जहां कांग्रेस का दामन थामा वहीं, यशवंत सिन्हा आम आदमी पार्टी की विचारधार से प्रभावित होने के बाद बंगाल चुनाव से ठीक पहले टीएमसी में शामिल हो गए.
बीजेपी में इन नेताओं ने कायस्थों का किया प्रतिनिधत्व
बता दें कि 90 के दशक से ही यशवंत सिन्हा, शत्रुघ्न सिन्हा और रविशंकर प्रसाद बीजेपी में कायस्थ समुदाय का प्रतिनिधत्व करते आ रहे थे. साल 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी आलाकमान ने 75 वर्ष उम्र के फार्मूले के कारण यशवंत सिन्हा को टिकट नहीं दिया था. पार्टी ने यशवंत सिन्हा की जगह उनके पुत्र जयंत सिन्हा को झारखंड के हजारीबाग से टिकट दिया. जयंत सिन्हा चुनाव जीते भी और बाद में केंद्र में मंत्री भी बने, लेकिन 2019 लोकसभा चुनाव जीतने के बाद भी जयंत सिन्हा को केंद्र में मंत्री पद नहीं मिला.
शत्रुघ्न सिन्हा क्यों बीजेपी से किनारा किया?
वहीं, दूसरी तरफ साल 2014 में शत्रुघ्न सिन्हा को बीजेपी से टिकट तो मिला, लेकिन जीतने के बाद भी मोदी मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया गया. बाद में ऐसी परिस्थितियां पैदा हुई कि शत्रुघ्न सिन्हा पार्टी से बाहर खुद ही चले गए. सिन्हा ने साल 2019 का लोकसभा चुनाव पटना साहिब सीट से कांग्रेस के टिकट पर लड़ा लेकिन, रविशंकर प्रसाद ने उन्हें पटखनी दे दी. शत्रुघ्न सिन्हा को हराने के बाद रविशंकर प्रसाद को फिर से मोदी कैबिनेट में शामिल किया गया, लेकिन बीते बुधवार को मोदी मंत्रिमंडल के फेरबदल में रविशंकर प्रसाद को भी बाहर का रास्ता दिखा दिया गया.
क्या कहते हैं जानकार
बीजेपी में कायस्थ राजनीति समझने के लिए पीछे जाना होगा. वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह कहते हैं, ‘कायस्थ जाति पढ़ाई-लिखाई में आगे रहने के बावजूद यह नहीं समझ पाया कि लोकतंत्र में विद्वता से अधिक महत्वपूर्ण है वोट की ताकत. 1952 के बिहार विधानसभा के चुनाव में कायस्थों विधायकों की संख्या 40 थी. बिहार के 2010 के विधान सभा चुनाव में यह संख्या घट कर 4 और बीते विधानसभा चुनाव में भी यह संख्या सिंगल डिजिट से आगे नहीं बढ़ पाई. कायस्थों के पारिवारिक रिश्ते यूपी-बिहार से होते हैं. बीते बिहार विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने कायस्थ राजनीति को समझते हुए वहां पर एक कायस्थ विधायक नितिन नवीन को मंत्री बना दिया. ‘
इन नेताओं की वजह से कायस्थों को मिला सम्मान
सिंह आगे कहते हैं, ‘बीजेपी में कायस्थों के महत्व को हमेशा से ही बड़ा कर आंका गया. वोट की राजनीति में संख्या बल में कम होने के बावजूद शिक्षित वर्ग में कायस्थों का अपना महत्व रहा है. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में भी कायस्थों का एक बड़ा वर्ग शामिल है. बीजेपी को छोड़ बिहार-यूपी के दूसरे दलों में भी कायस्थों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. बिहार में कृष्णवल्लभ सहाय पहले नेता थे, जो 1963 में बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे थे. कृष्णवल्लभ सहाय के बारे में कहा जाता है कि वह बिहार के सबसे अच्छे प्रशासनिक मुख्यमंत्री थे, लेकिन उसी दौर में राममनोहर लोहिया का गैर कांग्रेसवाद बिहार में तेजी पर था और 1967 के चुनाव में उनकी हार हो गई. बाद में एक और कायस्थ नेता महामाया प्रसाद सिन्हा मुख्यमंत्री बने. यह बिहार में कायस्थों का आखिरी बड़ा ओहदा था.’
बिहार और यूपी की पॉलिटिक्स में कायस्थ क्यों हैं ताकतवर
सिंह के मुताबिक, ‘महामाया मंत्रिमंडल में उद्योग विभाग के मंत्री ठाकुर प्रसाद थे और उन्हीं के पुत्र रविशंकर प्रसाद हैं, जो अब मोदी मंत्रिमंडल से बाहर कर दिए गए हैं. इसी तरह यशवंत सिन्हा भी 1977 तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर के प्रधान सचिव थे. बाद में वह चंद्रशेखर के करीबी हो गए और जनता पार्टी के रास्ते बीजेपी में शामिल हो गए. बीजेपी ने एक वक्त उन्हें बिहार में नेता प्रतिपक्ष भी बनाया था. अटल बिहारी वाजपेयी मंत्रिमंडल में वह भी महत्वपूर्ण मंत्री रहे. वहीं, शत्रुघ्न सिंन्हा एक वक्त में बिहार के इकलौते फिल्म स्टार थे. अटल सरकार में स्वास्थ्य मंत्री सहित कई मंत्रालयों का जिम्मा संभाला. इसी तरह बीजेपी के एक और कायस्थ नेता आर के सिन्हा भी बिहार में कायस्थों के नेता बने. आर के सिन्हा पत्रकार थे और बाद में उन्होंने अपनी एक सुरक्षा एजेंसी की शुरुआत की और संघ के करीबी होने का फायदा उन्हें राज्यसभा सांसद बन कर मिला.’
क्या बीजेपी में कायस्थों को उनके संख्याबल से ज्यादा प्रतिनिधत्व मिला?
वरिष्ठ पत्रकार संजीव पांडेय कहते हैं, ‘इस सच्चाई से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि मोदी के पहले कैबिनेट में कायस्थों को संख्याबल से कहीं ज्यादा प्रतिनिधत्व मिला. अटल जी की सरकार में भी तीन कायस्थ नेताओं को मंत्री बनाया गया था. मोदी के पहले कैबिनेट में रविशंकर प्रसाद और जयंत सिन्हा दोनों को जगह मिली थी. क्योंकि, उत्तर प्रदेश में बीजेपी का मुकाबला दलित और पिछड़ी जाति की राजनीति करने वाले दो राजनीतिक दलों से है. ऐसे में बीजेपी के लिए दलित और ओबीसी का प्रतिनिधत्व दिखाना और उनके संख्याबल को नजरअंदाज नहीं करना मजबूरी हो जाता है. बीजेपी को पता है कि 90 के दशक के बाद से ही सपा और बसपा का आधार वोट उसके साथ मजबूती से खड़ा है. सपा का आधार वोट है यादव और बसपा का आधार वोट जाटव है. इसका मुकाबला करने के लिए बीजेपी ने एक नया सोशल इंजीनियरिंग तैयार किया है. जहां तक कायस्थ जाति का संबंध है तो संख्याबल के हिसाब ये जाति बिहार और उत्तर प्रदेश के शहरों तक ही सीमित है. बीजेपी ने अपने पहले की सरकारों में इनकी संख्या को देखते हुए ज्यादा प्रतिनिधत्व दिया है.’
हाल के दिनों में ओपी माथुर बीजेपी में कहां?
इसी तरह मौजूदा दौर में बीजेपी के एक और बड़े कायस्थ नेता और केंद्र की राजनीति में बड़ा स्थान रखने वाले ओमप्रकाश माथुर की भी यही कहानी है. ओपी माथुर फिलहाल राजस्थान से सांसद हैं और हाउसिंग कमेटी के चेयरमैन भी हैं. पीएम मोदी के गुजरात के सीएम रहते माथुर वहां के बीजेपी प्रभारी थे. बाद में उनको यूपी बीजेपी का प्रभारी बनाया गया था. साल 2019 में मोदी कैबिनेट में शामिल होने और देश के गृह मंत्री बनने के बाद अमित शाह ने जब बीजेपी अध्यक्ष पद छोड़ा तो उस समय ओपी माथुर का भी नाम राष्ट्रीय अध्यक्ष पद की रेस में चल रहा था. लेकिन, इसके बाद माथुर अचानक से बीजेपी की सक्रिय पॉलिटिक्स से गायब रहने लगे. बता दें कि माथुर का आरएसएस से भी करीबी संबंध रहा है और वह पार्टी के महासचिव भी रह चुके हैं.
यूपी की राजनीति और लाल बहादुर शास्त्री का कद
अगर बात यूपी की करें तो देश के पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के बाद यूपी में कोई बड़ा कायस्थ नेता आज तक पैदा नहीं लिया, जो केंद्र की राजनीति में अहम योगदान किया हो. योगी कैबिनेट में भी फिलहाल सिद्धार्थनाथ सिंह कायस्थ जाति का प्रतिनिधत्व कर रहे हैं, जो लाल बहादुर शास्त्री के रिश्तेदार भी हैं. लेकिन, सिद्धार्थनाथ सिंह का कद इतना बड़ा नहीं है कि वह पढ़े-लिखे कायस्थों में स्वीकारे जाएं. ऐसे में एक बड़े कायस्थ नेता का मोदी मंत्रिमंडल से हटना क्या संकेत देता है? क्या इसका खामियाजा बीजेपी को अगले यूपी विधानसभा चुनाव में उठाना पड़ सकता है? या फिर बीजेपी रविशंकर प्रसाद को यूपी में बड़ी जिम्मेदारी देने जा रही है?