शक्ति‚ द्वंद्व‚ प्रतिस्पर्धा और प्रयोग की वैश्विक कूटनीति की नाकामी का यह सबसे बड़ा उदाहरण है‚ जो चरमपंथियों की गुरिल्ला मोर्चाबंदी के सामने अंततः पस्त पड़ गया। अशांति‚ अस्थिरता और मानव अपराधों के जंजाल में उलझे अफगानिस्तान के करोड़ों लोगों को विश्व समुदाय से यह अपेक्षा थी कि वे शांति और खुशहाली के राज्य की स्थापना की कोशिशों में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे‚ लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं हुआ और दो दशक के बाद फिर से तालिबान के मध्ययुगीन कानूनों के हवाले इस देश को कर दिया गया है। बिना किसी ठोस समझौते और योजना के नाटो और अमेरिकी सैनिक अफगानिस्तान से लौट चुके हैं और इसी के साथ मध्य एशिया और पश्चिम एशिया को भारतीय उपमहाद्वीप से जोड़ने वाले देश अफगानिस्तान में शांति स्थापना की आशाएं भी खत्म हो गई हैं। चरमपंथी तालिबान के बेलगाम लड़ाके अफगानिस्तान के कई क्षेत्रों में कोहराम मचाते हुए काबुल की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं। उनके अत्याचारों और नृशंसता का खौफ इस कदर है कि सुरक्षा बलों का मनोबल भी गिर गया है और वे बिना किसी प्रतिरोध के आत्मसमर्पण कर रहे हैं। अफगानिस्तान में हाल के दिनों में हिंसा अचानक से बढ़ गई है और तालिबान का ज्यादा से ज्यादा इलाकों पर नियंत्रण बढ़ता जा रहा है।
दरअसल‚ नाटो और अमेरिका अफगानिस्तान में शांति का स्थायी समाधान खोजने में बुरी तरह विफल रहे हैं। यहां सैन्य गतिविधियों में होने वाले अरबों डॉलर की चुनौती से आर्थिक और सामरिक शक्तियां भी घबरा गई हैं। अब उन्होंने अफगानिस्तान को उस रास्ते पर छोड़ दिया जहां से यह देश पुनः १९९० के दशक की स्थिति की ओर लौट सकता है‚ जहां गृह युद्ध‚ हिंसा और चरमपंथ के पनपने की स्थितियां मजबूत थीं। इस समय तालिबान के डर से काबुल स्थित कई विदेशी दूतावास बंद हो गए हैं तथा विदेशी लोग अफगानिस्तान को छोड़कर जा रहे हैं। तालिबान से यह अपेक्षा बेमानी है कि वह किसी शिष्टाचार‚ आदर्श या अंतरराष्ट्रीय नियमों का पालन करेगा। इन सबके बीच देश की आधी आबादी अर्थात महिलाएं और लडकियां निराशा और हताशा से भर गई हैं। ऐसा लगता है कि कुछ ही दिनों बाद काबुल से वे पोस्टर गायब हो जाएंगे जिनमें लडकियों को स्कूल जाते हुए दिखाया गया है। आपको याद होगा कि तालिबान के शासन में लडकियों का स्कूल जाने पर प्रतिबंध था‚ जबकि इस समय अफगानिस्तान में लगभग एक करोड़ बच्चे स्कूल जा रहे हैं‚ जिनमें अच्छी–खासी संख्या लड़कियों की भी है। अफगानिस्तान की संसद में आज कम–से–कम २५ फीसद सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं। अफगान महिलाएं आज मीडिया और कला जैसे क्षेत्रों में बढ़–चढ़कर काम कर रही हैं‚ और कई युवा महिलाएं अधिकारी भी हैं।
ब्रिटेन के चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल सर निक निक्टर ने दावा किया था कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने अफगानिस्तान में एक सभ्य समाज का निर्माण किया है और वे अधिक खुले दिमाग वाले हो गए हैं। वास्तव में तालिबान को लेकर यह दावा गलत नजर आता है। उसके किसी भी प्रतिनिधिमंडल में कोई महिला प्रतिनिधि नहीं रही। तालिबान ने महिलाओं के लिए कड़ा ड्रेस कोड लागू किया था‚ जिसके तहत अगर कोई महिला नीले रंग की चदरी से सिर से पांव तक नहीं ढकी होती थी तो उसे कोड़े मारने की सजा दी जाती थी। नाटो और अमेरिका ने तालिबान के साथ एक समझौता किया था‚ जिसके तहत तय हुआ था कि विदेशी सैनिक वहां से निकल जाएंगे और बदले में तालिबान वहां अल–कायदा या किसी अन्य चरमपंथी गुट को अपने नियंत्रण वाले इलाके में गतिविधियां नहीं चलाने देगा। तालिबान का शासन हिंसा पर आधारित है और इससे चरमपंथी गुट न केवल पनपेंगे बल्कि दुनिया में आतंकवाद बढने की आशंका भी बढ़ेगी। अफगानिस्तान में अधिकांश समय पश्तूनों का ही राज रहा है और तालिबान भी मुख्यतः पश्तूनों और सुन्नी मुसलमानों का ही संगठन है। नाटो द्वारा २००१ में तालिबान को सत्ता से बेदखल करने के बाद से अफगानिस्तान के बड़े जातीय–अल्पसंख्यक समूह तालिबान के प्रभाव से दूर रहे हैं और वे तालिबान को स्वीकार करने को तैयार भी नहीं है। भौगोलिक और जनसांख्यिकीय‚ दोनों लिहाज से अफगानिस्तान के गैर–पश्तून समूहों में देश की आधी से अधिक आबादी शामिल है। मात्र ताजिक‚ उज्बेक और हजारा समूह ही देश की आधी आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं। तालिबान के शासन में हजारा समूह के लोगों का बड़े पैमाने पर नरसंहार हुआ था। करीब चार दशक पहले सोवियत सेना के अफगानिस्तान छोड़ने के बाद वहां विभिन्न समूहों में टकराव गृह युद्ध में तब्दील हो गया था‚ जिसका अंत काबुल पर तालिबान के कब्जे से हुआ था। २००१ के बाद इन बीस सालों में इस गैर–पश्तून समुदायों ने अपनी स्थिति बेहद मजबूत कर ली है और उनकी युवा पीढ़ी तालिबान के प्रभाव को खत्म करने के लिए तैयार है। वे अपने घरों में हथियार जमा कर रहे हैं और यह भयावह स्थिति उत्पन्न होने का स्पष्ट संदेश है। अफगानिस्तान में राजनीतिक अस्थिरता के बढने से इस्लामिक स्टेट और अल–कायदा के मजबूत होने की संभावनाएं बढ़ गई हैं।
पिछले कुछ सालों में भारत सरकार ने अफगानिस्तान में पुननर्माण से जुड़ी परियोजनाओं में लगभग तीन अरब अमेरिकी डॉलर का निवेश किया है। कई परियोजनाएं ऐसी हैं‚ जो आने वाले कुछ सालों में पूरी होने वाली हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा के निर्धारण और उसकी सफलता के कुछ विशिष्ट आधार होते हैं‚ जिनमें भू–राजनैतिक और भू–सामरिक नीति बेहद महत्वपूर्ण है। तालिबान–मुक्त अफगानिस्तान से न केवल पाकिस्तान को नियंत्रित किया जा सकता था बल्कि कश्मीर में आतंकवाद को रोकने में भी मदद मिलती रही थी। भारत के लिए तालिबान से कूटनीतिक संबंध स्थापित करना मुश्किल होगा क्योंकि पाकिस्तान के हित इससे प्रभावित होंगे और वह भारत को अफगानिस्तान से दूर रखने के लिए प्रतिबद्ध रहा है। बहरहाल‚ अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी से भारत समेत पूरी दुनिया में सुरक्षा चुनौतियां बढ़ेंगी।
तालिबान–मुक्त अफगानिस्तान से न केवल पाकिस्तान को नियंत्रित किया जा सकता था बल्कि कश्मीर में आतंकवाद को रोकने में भी मदद मिलती रही थी। भारत के लिए तालिबान से कूटनीतिक संबंध स्थापित करना मुश्किल होगा क्योंकि पाकिस्तान के हित इससे प्रभावित होंगे और वह भारत को अफगानिस्तान से दूर रखने के लिए प्रतिबद्ध रहा है। बहरहाल‚ अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी से भारत समेत पूरी दुनिया में सुरक्षा चुनौतियां बढ़ेंगी।