लोक जनशक्ति पार्टी पर कब्जे को लेकर दिल्ली हाईकोर्ट में चिराग पासवान की अर्जी पर आज सुनवाई करेगा. दिल्ली हाईकोर्ट की जज जस्टिस रेखा पल्ली की बेंच मामले की सुनवाई करेगी. चिराग पासवान ने हाईकोर्ट में याचिका दाखिल कर लोकसभा अध्यक्ष के उस फैसले को चुनौती दी है जिसमें उनके चाचा पशुपति कुमार पारस की अगुवाई वाले गुट को सदन में एलजेपी के तौर पर मान्यता दी गई है. हाईकोर्ट में दाखिल अर्जी में चिराग पासवान ने कहा है कि पार्टी विरोधी गतिविधि और शीर्ष नेतृत्व को धोखा देने के कारण लोक जनशक्ति पार्टी ने पहले ही पशुपति कुमार पारस को पार्टी से निकाल दिया गया था. इसके साथ ही कहा है कि सांसद पारस लोजपा के सदस्य नहीं हैं.
कोर्ट में दाखिल अर्जी में यह भी कहा गया है लोजपा के राष्ट्रीय कार्यकारिणी में कुल 75 सदस्य हैं और इनमें से 66 सदस्य हमारे (चिराग गुट) के साथ हैं और सभी ने हलफनामा दिया है. सांसद चिराग ने कहा है कि उनके चाचा पशुपति कुमार पारस के पास कोई ठोस आधार नहीं है और हमारे दल के सदस्य नहीं है.
जानें क्या है पूरा मामला
आपको बता दें कि लोजपा में 13 जून की शाम से विवाद शुरू हुआ था और इसके अगले ही दिन चिराग पासवान को छोड़ अन्य सभी सांसदों ने संसदीय बोर्ड की बैठक बुलाई थी. इसमें हाजीपुर सांसद पशुपति कुमार पारस को संसदीय बोर्ड का नया अध्यक्ष चुन लिया गया था. इसकी सूचना लोकसभा स्पीकर को भी दे दी गई. इसके बाद लोकसभा सचिवालय ने उन्हें मान्यता भी दे दी. इसके बाद चिराग पासवान ने भी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक बुलाई और पांचों बागी सांसदों को लोजपा से निष्कासित करने की सिफारिश कर दी थी.
पशुपति पारस गुट का जेडीयू में हो सकता है विलय
दरअसल राजनीतिक जानकारों का मानना है कि चिराग पासवान और पशुपति कुमार पारस के बीच लोजपा पर वास्तविक अधिकार का मामला अभी भी चुनाव आयोग के पास लंबित है. ऐसे में चुनाव आयोग क्या निर्णय देता है इस पर भी काफी कुछ निर्भर करेगा कि पशुपति कुमार पारस गुट का क्या होगा? विशेषज्ञों की मानें तो लोजपा के 90 प्रतिशत समर्थक व कार्यकर्ता चिराग पासवान से सहानुभूति रखते हैं. पार्टी के संविधान के अनुसार लोजपा पर अधिकार का मामला भी अब कोर्ट में है, ऐसे में पारस गुट का पलड़ा भारी होने पर पारस गुट का विलय जेडीयू में होना संभव हो सकता है.
वहीं दूसरी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दूसरे कार्यकाल में मंत्रिपरिषद के विस्तार के साथ ही बिहार की सियासत के लिहाज से महत्वपूर्ण बदलाव हुआ है. पहला तो यह कि तमाम दबाव के बाद भी पीएम मोदी ने जेडीयू कोटे से एक ही मंत्री बनाया. दूसरा यह कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में शामिल लोक जनशक्ति पार्टी से मंत्रिमंडल में पशुपति पारस को अपने साथ ले आए. जाहिर है कि समर्थकों का मानना है कि यह स्थिति चिराग पासवान के लिए भी दुविधा को खत्म करने वाला है. अब यह भी साफ है कि उन्हें सियासी असमंजस की स्थिति से बाहर निकल जाना चाहिए. तीखा मोड़ ले चुकी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन और बिहार की सियासत के लिहाज से बड़ा सवाल यही है कि अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘हनुमान’ चिराग पासवान का अगला कदम क्या होगा?
चिराग पासवान ने पशुपति पारस को मंत्रिमंडल में एलजेपी सांसद के रूप में जगह दिए जाने का विरोध किया है. लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) पर कब्जे को लेकर मामला अब दिल्ली हाई कोर्ट में है. चिराग पासवान ने हाई कोर्ट में याचिका दाखिल कर लोकसभा अध्यक्ष के उस फैसले को चुनौती दी है, जिसमें उनके चाचा पशुपति कुमार पारस की अगुवाई वाले गुट को सदन में एलजेपी के तौर पर मान्यता दी गई है. हाईकोर्ट में दाखिल अर्जी में चिराग पासवान ने कहा है कि पार्टी विरोधी गतिविधि और शीर्ष नेतृत्व को धोखा देने के कारण लोजपा ने पहले ही पशुपति कुमार पारस को पार्टी से निकाल दिया था. इसके साथ ही यह भी कहा है कि सांसद पारस लोजपा के सदस्य नहीं हैं.
चुनाव आयोग के पास लंबित है चाचा-भतीजा का विवाद
बता दें कि लोजपा के संस्थापक रामविलास पासवान की विरासत की जंग में पशुपति पारस सहित पांच सांसदों ने अलग गुट बना लिया है, जिसे लोकसभा में बतौर एलजेपी मान्यता भी मिल चुकी है. इसके बाद चिराग पासवान ने उन सभी सांसदों को पार्टी से निकालते हुए पार्टी संविधान का हवाला देकर लोकसभा अध्यक्ष से आग्रह किया है कि वे पशुपति पारस गुट से एलजेपी की मान्यता वापस लें. चिराग पासवान और पशुपति कुमार पारस के बीच लोजपा पर वास्तविक अधिकार का मामला अभी भी चुनाव आयोग के पास पेंडिंग है.
चिराग ने पारस पर भाजपा के सामने साफ किया था रुख
चिराग पासवान ने केंद्रीय कैबिनेट विस्तार से पहले भाजपा के लिए भी साफ संदेश दिया था कि अगर केंद्रीय मंत्रिमंडल में पशुपति पारस गुट से किसी को बतौर एलजेपी सांसद शामिल किया जाता है, तो उन्हें इसपर आपत्ति होगी. चिराग ने यह भी कहा था कि अगर पारस को लोजपा कोटे से मंत्री नहीं बनाया जाता है तो उन्हें कोई दिक्कत नहीं है. बता दें कि लोजपा पर वास्तविक हक की लड़ाई अभी चुनाव आयोग के पास लंबित है और दोनों ही गुटों को चुनाव आयोग के फैसला का इंतजार है कि आयोग क्या निर्णय सुनाता है.
चिराग पासवान के समाने कौन-कौन से हैं विकल्प?
इस पूरे प्रकरण में एक बात गौर करने वाली यह है कि चिराग पासवान (हनुमान) का विश्वास उनके राम (पीएम मोदी) पर अब भी बना हुआ है. हालांकि मंत्रिमंडल विस्तार के बाद उन्होंने यही कहा है कि उन्हें अभी यह नहीं पता चला है कि उनके चाचा पशुपति पारस को किस कोटे से मंत्री बनाया गया है. हालांकि यहां यह भी बता दें कि चिराग पासवान पहले ही यह भी कह चुके हैं कि भविष्य की राजनीति के लिए उनके विकल्प खुले हैं. सवाल यह है कि आखिर चिराग के लिए क्या ऑप्शन हैं?
चिराग के लिए चुनौती के साथ सियासी अवसर भी
दरअसल चिराग पासवान के समक्ष दो स्थिति है. पहला तो यह कि वे राष्ट्रीय जनता दल का ऑफर स्वीकार कर ले जिसके तहत उन्हें महागठबंधन में लाने की कोशिशें हो रही हैं. इसको लेकर आरजेडी ने पहल भी की है और राजद के 25वें स्थापना दिवस समारोह के दौरान एलेजपी के संस्थापक राम विलास पासवान की जयंती पर उन्हें श्रद्धांजलि भी दी. ऐसे में सवाल यह है कि बीजेपी से पहले से निराश चिराग पासवान क्या तेजस्वी यादव का ऑफर स्वीकार करेंगे, या फिर दूसरे चुनौतीपूर्ण किंतु महत्वपूर्ण विकल्प की ओर बढ़ेंगे?
विधान सभा चुनाव अकेले लड़ने की तैयारी में चिराग!
चिराग पासवान के समक्ष दूसरा विकल्प अपेक्षाकृत अधिक चुनौतीपूर्ण है, लेकिन राजनीति के जानाकरों की नजरों में इसमें अवसर भी अपार हैं. दरअसल बीजेपी का साथ छोड़ने की स्थिति में चिराग क्या करेंगे, इसका संकेत वे पहले दे चुके हैं. हाल ही में उन्होंने एलजेपी पर अपना दावा करते हुए समर्थकों से अगले विधानसभा चुनाव की तैयारियों में अकेले जुट जाने को कहा था. बीते 5 जुलाई से वे पूरे बिहार में आशीर्वाद यात्रा निकाल रहे हैं. उनकी इस यात्रा के दौरान उनके संघर्ष का जज्बा भी दिख रहा है.
असमंजस की स्थिति से बाहर निकलने का अवसर
राजनीति के जानकारों का मानना है कि अब तक पारस या चिराग के बीच धर्मसंकट में फंसी भाजपा ने पारस को अपना लिया है. जाहिर है ‘राम’ (पीएम मोदी) ने अपने ‘हनुमान’ (चिराग पासवान) को अपने ही दरबार में जगह नहीं दी. ऐसे में माना जा सकता है कि चिराग दिल का बोझ भी उतर गया होगा और अब वे भी खुद को स्वतंत्र महसूस कर रहे होंगे. पर यह भी जरूर है कि चिराग के लिए चुनौतियां भी बढ़ गईं हैं. एनडीए और महागठबंधन से बाहर वे आजद तो जरूर महसूस कर रहे हैं पर मौजूदा गठबंधन की राजनीति के दौर में वे अकेले दिखाई दे रहे हैं.
चिराग पासवान के सामने दोहरी लड़ाई की चुनौती
हालांकि इन्हीं चुनौतियों के बीच राजनीतिक परिस्थितियां चिराग पासवान के लिए एक बड़ा अवसर भी साथ लेकर आया है. वह यह कि पहले तो वह खुद को संघर्षशील नेता साबित करें और राजनीति के मैदान में किसी के आसरे न रहकर स्वयं के अस्तित्व को स्थापित करें. इस बीच उन्हें पार्टी सिबंल के लिए चुनाव आयोग से लेकर न्यायालय तक में लंबी लड़ाई लड़नी है. उनका दावा है कि लोजपा में 95 प्रतिशत लोगों का समर्थन उन्हें ही प्राप्त है. ऐसे में सवाल यह भी है कि वह इन कठिन परिस्थितियों में लोजपा को कितना संगठित रख पाते हैं?
चिराग के लिए आसान सियासत या संघर्ष का रास्ता?
राजनीति के जानकार भी मानते हैं कि पारस के केंद्र में मंत्री बनने से राम विलास पासवान के समर्थकों (पासवान वोट) पर कोई खास असर नहीं पडऩे वाला है, वे चिराग के साथ ही रहेंगे. आशीर्वाद यात्रा के दौरान उन्हें भारी जन समर्थन मिल रहा है. इस दौरान वे सवर्ण दलित के सियासी इक्वेशन पर भी काम करते देखे जा रहे हैं. हालांकि अभी ये चिराग पासवान के इस सियासी अवतार का शुरुआती दौर है ऐसे में फिलहाल निष्कर्ष निकालना कठिन है. पर पार्टी और परिवार में टूट से सबसे बड़े सियासी संकट का सामना कर रहे चिराग पर यह निर्भर करेगा कि वह क्या विकल्प चुनते हैं? आसान सियासत का या फिर संघर्ष का?