इस साल 26 जनवरी की परेड के दौरान जैव प्रौद्योगिकी विभाग ने राजपथ पर अपनी झांकी में ‘आत्मनिर्भर भारत’ अभियान के तहत कोविड-19 की वैक्सीन विकास प्रक्रिया को दिखाया था. उसके अगले दिन अख़बारों ने लिखा कि ”संपूर्ण आत्मनिर्भर भारत अभियान की असाधारण सफलताओं में से एक है भारत में वैक्सीन का बड़े पैमाने पर निर्माण.”
अब हम जून के महीने में हैं लेकिन वैक्सीन में आत्मनिर्भर होने के दावे के बावजूद देश में वैक्सीन की कमी है और इसके आयात की कोशिशें जारी हैं. वैक्सीन बनाने में अगर भारत आत्मनिर्भर है भी तो ये आज नहीं बना है, सालों पहले से ही भारत को वैक्सीन बनाने की वैश्विक फैक्ट्री माना जाता रहा है. आज जो वैक्सीन की किल्लत दिख रही है आलोचक इसके लिए मोदी सरकार के कुप्रंबधन को ज़िम्मेदार ठहराते हैं.
कोविड, गलवान और आत्मनिर्भरता का आह्वान
प्रधानमंत्री ने महामारी से निपटने के लिए पिछले साल 12 मई को ‘आत्मनिर्भर भारत’ का नारा दिया था. उस दिन के भाषण में उन्होंने ‘आत्मनिर्भरता’ सात बार और ‘आत्मनिर्भर भारत’ का 26 बार इस्तेमाल किया था. 20 लाख करोड़ के आर्थिक पैकेज को ‘आत्मनिर्भरता पैकेज’ का नाम दिया गया. इसके बाद से आत्मनिर्भरता शब्द का इतना ज़्यादा इस्तेमाल हुआ कि ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस ने इसे साल 2020 का शब्द घोषित किया.
बहरहाल, प्रधानमंत्री का ये स्लोगन सोशल मीडिया अभियान बन गया. मंत्रियों, राज्य सरकारों, अफ़सरों और उद्योगपतियों से लेकर आम नागरिकों ने आत्मनिर्भरता की बातें बढ़-चढ़कर कीं.
पिछले साल जून में गलवान घाटी में चीन के साथ हुई सैन्य झड़पों ने इस शब्द को न केवल और भी ज़्यादा बल दिया बल्कि इसमें देशभक्ति का जज़्बा भी जोड़ दिया, भारत सरकार ने कई चीनी ऐप्स पर प्रतिबंध लगा दिया और चीनी आयात पर निर्भरता को कम करने के लिए आत्मनिर्भरता का नारा और भी बुलंद करना शुरू कर दिया.
साल भर से अधिक समय बीतने के बाद देश कितना आत्मनिर्भर हुआ है? आर्थिक मामलों में प्रधानमंत्री के सलाहकारों में से एक नीलेश शाह कहते हैं कि भारत में आत्मनिर्भरता कोई नई अवधारणा नहीं है. शाह कोटक महिंद्रा एसेट मैनेजमेंट के सीईओ और मैनेजिंग डायरेक्टर भी हैं. वे कहते हैं, “आत्मनिर्भरता कोई नया शब्द नहीं है. आज़ादी के बाद कई सालों तक हम दूध का आयात करते थे और फिर अमूल एक आत्मनिर्भर भारत का हिस्सा बना. आज हम दुनिया के सबसे बड़े दूध उत्पादक बन गए. तो जैसे हम अमूल के ज़रिए दूध में, हरित क्रांति के ज़रिए अनाज में, निजी क्षेत्र के कारण दवाइयों में, वैसे ही हमें आत्मनिर्भर बनना है मैन्युफैक्चरिंग और रक्षा के क्षेत्र में. ये एक सफ़र है, मंज़िल नहीं है. इस साल अगर आप दूध के सबसे बड़े उत्पादक हैं तो अगले साल भी बने रहना है.”
दिल्ली में फ़ोर स्कूल ऑफ़ मैनेजमेंट में चीनी मामलों के विशेषज्ञ डॉक्टर फ़ैसल अहमद कहते हैं, “लगातार पंचवर्षीय योजनाओं में आत्मनिर्भरता की बात की गई है. रक्षा, कृषि और दूध में आत्मनिर्भरता की बात की गई है लेकिन आत्मनिर्भरता पर जो ज़ोर दिया गया है उसकी वजह महामारी में लॉकडाउन के कारण सप्लाई चेन में आई बाधाएँ हैं. कोरोना लॉकडाउन के दौरान ये विचार सामने आया कि देश के अंदर ही उत्पादन क्षमता बढ़ाई जाए ताकि आगे की चुनौतियों का मुक़ाबला कर सकें.”.
कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि आत्मनिर्भरता एक कोविड प्रेरित वैश्विक प्रवृत्ति है. बीबीसी से बातें करते हुए सिंगापुर में चीनी लेखक सुन शी ने कहा कि महामारी के कारण आत्मनिर्भरता का नारा देने वाला भारत अकेला देश नहीं है. वे कहते हैं, “इस संकट से पहले वैश्वीकरण सामान्य प्रवृत्ति थी, सब यही सोचते थे कि यह एक ग्लोबल दुनिया है इसलिए हमें व्यापार समझौतों को बढ़ाना चाहिए, लेकिन कोविड संकट के कारण ज़्यादातर देशों ने महसूस किया कि आत्मनिर्भरता भी ज़रुरी है. मुझे लगता है कि पीएम मोदी की इस नीति में दम है.”
लेकिन उनके अनुसार भारत आत्मनिर्भरता के लिए तैयार नहीं है, “चीन के पास अपनी ज़रुरत के अधिकांश सामान का उत्पादन करने की क्षमता है, लेकिन भारत की घरेलू मांग बहुत अधिक है, भारत अपनी ज़रुरत के उत्पाद का एक बड़ा हिस्सा खुद नहीं बना सकता. चीन को यहां तक पहुंचने में कई दशक लगे हैं. भारत आत्मनिर्भर रातोंरात नहीं बन सकेगा.” दिलचस्प बात ये है कि चीन भी इस वैश्विक ट्रेंड का हिस्सा था, इसके बावजूद कि चीन लगभग सभी चीज़ों का उत्पादन ख़ुद करता है और दुनिया का सबसे बड़ा एक्सपोर्टर है.
चीनी मामलों के विशेषज्ञ डॉक्टर फ़ैसल अहमद कहते हैं कि पहले चीन की प्राथमिकता निर्यात को बढ़ावा देना होता था लेकिन पिछले साल से कुछ बदलाव आया. वे कहते हैं, “राष्ट्रपति शी जिनपिंग पिछले साल मई में एक पॉलिसी लेकर आए जिसका नाम उन्होंने ड्यूल सर्कुलेशन रखा. उन्होंने कहा कि हम अब केवल एक्सटर्नल सर्कुलेशन (निर्यात) पर ही फोकस नहीं करेंगे बल्कि इंटरनल सर्कुलेशन (डोमेस्टिक मार्केट) पर भी फोकस करेंगे. ये जो इंटरनल सर्कुलेशन है वो एक तरह से चीन की अपनी आत्मनिर्भरता की पॉलिसी है.”
गलवान घाटी में हुई झड़पों के बाद राष्ट्रवाद की भावना ने ज़ोर पकड़ा. मीडिया में चीन के ख़िलाफ़ बयान रोज़ आने लगे. कई जगहों से खबरें आईं कि जनता ने चीनी सामान में आग लगाई और उसके बहिष्कार के नारे लगाए. चीनी निवेश पर सरकार ने कई तरह की पाबंदियाँ लगाई. और साथ ही 200 से अधिक चीनी ऐप्स पर पाबंदी लगा दी गई थी. ऐसा लगने लगा कि भारत का आत्मनिर्भरता अभियान केवल चीनी आयात के ख़िलाफ़ है.
चीन के साथ व्यापार
साल भर बाद अब सवाल ये है कि चीन पर निर्भरता कितनी घटी? हक़ीक़त ये है कि सभी देशों से आयात काफ़ी कम हुआ लेकिन चीन से नहीं. साल 2019-20 में दुनिया के अलग-अलग देशों से भारत का कुल आयात 474.7 अरब डॉलर था जो 2020-21 में घटकर लगभग 345 अरब डॉलर पर रुका. साल 2019-20 में चीनी आयात की राशि 65 अरब डॉलर से थोड़ी अधिक थी जो 2020-21 में 58 अरब डॉलर से कुछ अधिक रही. रकम के हिसाब से चीनी आयात में थोड़ी-सी ही कमी आई जबकि कुल आयात के प्रतिशत के हिसाब से इसमें बढ़ोतरी ही हुई. कुल आयात में चीनी आयात का हिस्सा 13.7 प्रतिशत से बढ़कर इस साल 16.9 प्रतिशत रहा.
भारत ने निर्यात भी कम किया और आयात भी. निर्यात 2019-20 में 313 अरब डॉलर से अधिक था जो 2020-21 में घट कर 256 अरब डॉलर से भी कम हो गया. चीन को होने वाला भारतीय निर्यात 2019-20 में 16 अरब डॉलर से थोड़ा अधिक था जो 2020-21 में बढ़कर 18 अरब डॉलर से थोड़ा ज़्यादा हुआ. यह चीन के साथ व्यापार घाटे को थोड़ा कम करता है जो भारत के लिए चिंता का विषय रहा है.
चीन से आयात अब महंगा हो गया है इसके बावजूद इसमें कमी आती दिखाई नहीं देती. दिल्ली के करोल बाग इलाक़े में राजीव चड्ढा सालों से चीन से मोटर पार्ट्स आयात करते आए हैं. वे कहते हैं, “चीनी एक्सपोर्टरों ने सामान के दाम 20 से 40 प्रतिशत बढ़ा दिए हैं. उनकी सरकार भारत को भेजे जाने वाले सामान पर सख्ती कर रखी है. दूसरी तरफ़, भारतीय बंदरगाहों में चीनी सामानों को रिलीज़ करने में पिछले साल से काफ़ी समय लग रहा है. हमें काफ़ी दिक़्क़तें हो रही हैं.”
चीन में सिचुआन यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ़ इंटरनेशनल स्टडीज़ के एसोसिएट डीन, प्रोफेसर हुआंग यूनसॉन्ग भारत और चीन के बीच दोतरफ़ा व्यापार और भारत में चीनी निवेश को आगे बढ़ाने के पक्ष में ज़रूर हैं, लेकिन वो सावधानी बरतने की सलाह भी देते हैं. वे कहते हैं, “हम इसे द्विपक्षीय संबंधों को फिर से शुरू करने के एक अच्छे संकेत के रूप में लेते हैं, लेकिन काफ़ी एहतियात के साथ.”
कुल मिलकर देखें तो चिकित्सा उपकरण जैसे क्षेत्रों में एक साल में भारत ने उल्लेखनीय आत्मनिर्भरता हासिल की है. मसलन, पीपीई किट को लीजिए पिछले साल मार्च में लॉकडाउन लगने के समय भारत में पीपीई न के बराबर बनती थी. आज रोज़ाना साढ़े चार लाख से अधिक पीपीई किट बन रही है.
भारत पीपीई किट का अब एक बड़ा निर्यातक बन गया है. मास्क का भी कुछ ऐसा ही हाल है. वेंटिलेटर बनाने वाली भारत में बहुत कम कंपनियाँ थीं. अब कई हैं. आज़ादी से महामारी तक देश में केवल 16 हज़ार वेंटिलेटर बनाए गए थे लेकिन सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़, महामारी के एक साल बाद देश में 58 हज़ार से ज्यादा वेंटिलेटर बने. ये बात और है कि कई अस्पतालों से इनमें खामियों की शिकायतें भी आई हैं.
इसके अलावा कई तरह की दवाएं बनाने के लिए 62 प्रतिशत कच्चा माल चीन से आयात करना पड़ता था. अब कच्चे माल पर निर्भरता कम हुई है. ये बात और है कि भारत में इन कच्चे माल की लागत चीन से अधिक है. रक्षा क्षेत्र में भारत को आत्मनिर्भर बनाने पर काफ़ी ज़ोर दिया गया है. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने पिछले दो बजटों में इस पर ज़ोर दिया, लेकिन इसमें कोई ख़ास कामयाबी अब तक नहीं मिली है.
नीलेश शाह कहते हैं, “रक्षा क्षेत्र में टेक्नोलॉजी बहुत तेज़ी से बदलती रहती है. और वो टेक्नोलॉजी हमेशा उपलब्ध हो ऐसा ज़रूरी नहीं है. रक्षा क्षेत्र पब्लिक सेक्टर में था, अब धीरे-धीरे निजी सेक्टर में आने लगा है. हर क्षेत्र में तुरंत फल मिले यह ज़रूरी नहीं है. पहले नींव डालनी पड़ती है, उसे मज़बूत करना होता है, फिर इमारत बनती है.”
उत्पादन में भारत को आत्मनिर्भर बनाने और निर्यात बढ़ाने के लिए मोदी सरकार ने अप्रैल 2020 में ‘उत्पादन से जुड़ी प्रोत्साहन योजना’ या पीएलआई स्कीम शुरू की है. इसके अंतर्गत इलेक्ट्रॉनिक्स, मोबाइल फ़ोन, एयर कंडीशनिंग जैसे 13 क्षेत्रों में कंपनियों को सरकार कर और एक्साइज ड्यूटी में काफ़ी छूट दे रही है. इसके फ़ायदे अगले कुछ सालों में दिखने लगेंगे, नीलेश शाह के अनुसार इससे सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि होगी लेकिन क्या आयात अर्थव्यवस्था के लिए हानिकारक है?
दुनिया के बड़े निर्यातक देश, बड़े आयातक भी हैं. अमेरिका, यूरोपीय संघ और जापान इसकी मिसालें हैं. पीएम मोदी के आत्मनिर्भरता के अभियान का एक उद्देश्य आयात को काफ़ी हद तक कम करना था. इस उद्देश्य को हासिल करने के लिए केंद्र सरकार ने कई वस्तुओं के आयात में टैरिफ बढ़ा दिया है.
प्रधानमंत्री के आर्थिक मामलों के सलाहकार नीलेश शाह इसे सही ठहराते हुए कहते हैं, “आमतौर से आप कच्चे माल का आयात सस्ते दाम करते हैं और उसमे वैल्यू बढ़ाकर उसे ज़्यादा दाम पर निर्यात करते हैं. लेकिन भारत में हमने देखा कि तैयार माल का आयात सस्ते दाम पर हो रहा था और कच्चे माल का आयात मंहगे दाम पर. इसे ठीक करना ज़रूरी था और इसके लिए सरकार ने कई क़दम उठाए हैं. दूसरा हमने ये देखा कि दक्षिण-पूर्वी एशिया के देश अपने उत्पादकों को कई तरह की छूट दे रहे थे.”
वे समझाते हैं, “जैसे आप कोई पौधा लगाते हैं तो आप इसके आगे-पीछे बाड़ लगाते हैं ताकि पौधा बड़ा हो सके. जब वो पेड़ बन जाता है तो उसे बाड़ की ज़रुरत नहीं पड़ती है. तो जैसे आप पौधे की कुछ देर तक देखभाल करते हैं उसी तरह से अपने उद्योग की कुछ देर देखभाल ज़रूरी है.”
लेकिन सिंगापुर में चीनी लेखक सुन शी के अनुसार आयात बुरी चीज़ नहीं है, “आप वो वस्तु बनाने की कोशिश ना करें जिसमें आप सक्षम नहीं हैं. आप वो माल उस देश से खरीदें जो आपसे सस्ता और बेहतर क्वालिटी बना सकता है इसलिए तो दो देशों के बीच आयात-निर्यात के व्यापारिक समझौते होते हैं”. सुन शी व्यापार घाटे को संतुलित करने की वकालत ज़रूर करते हैं, जो इस समय चीन के पक्ष में बुरी तरह झुका हुआ है, चीन से भारत निर्यात के मुकाबले 40 अरब डॉलर अधिक रकम का सामान आयात करता है.
डॉक्टर फैसल अहमद कहते हैं, “अभी क्षेत्रीय और वैश्विक वैल्यू चेन का ज़माना है. देशों के बीच 60 प्रतिशत व्यापार कच्चे माल की श्रेणी में आता है. इसमें वैल्यू चेन की अहमियत बहुत हो जाती है (यानी कच्चे माल में आप कितना वैल्यू जोड़ सकते हैं).” डॉक्टर फैसल के अनुसार ऐसे में लागत की अहमियत बहुत बढ़ जाती है. अगर चीन से कुछ कच्चा माल मंगाते हैं और इसमें वैल्यू ऐड करके इसके क़ीमत कम रखने में कामयाब होते हैं तो निर्यात से फ़ायदा होगा, इस तरह तो एक बड़ा निर्यातक बनने के लिए एक बड़ा आयातक बनना पड़ेगा. डॉक्टर फैसल अहमद कहते हैं, “हिन्द महासागर में अमेरिका पर हमारी निर्भरता है. ‘सागर’ नाम का हमारा एक इनिशिएटिव है, तो अगर हम इसकी क्षमता बढ़ाएं और इसे मज़बूत करें और अमेरिका पर कम-से-कम निर्भर करें तो हिन्द महासागर के देशों को हम सिक्योरिटी दे कर सकते हैं.” इस क्षेत्र के 20 देशों में से फिलहाल कई पर चीन का दबदबा है लेकिन कई देश चाहते हैं कि इस क्षेत्र की सुरक्षा में भारत की भूमिका बढ़े.
चीनी लेखक सुन शी भारत सरकार की आत्मनिर्भरता नीति से सहमत हैं लेकिन उनका कहना है कि जैसे चीन को उस लक्ष्य तक पहुँचने में सालों लग गए भारत को भी आत्मनिर्भर बनने में सालों लग सकते हैं. इस प्रक्रिया को थोड़ा तेज़ तो किया जा सकता है लेकिन कोई जादू की छड़ी नहीं है जिससे पलक झपकते ही देश आत्मनिर्भर बन जाए.