पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के लिए आज कांग्रेस और लेफ्ट गठबंधन का फॉर्मूला तय हो गया है. सूत्रों के मुताबिक लेफ्ट पार्टियां 165 सीटों पर चुनाव लड़ेंगी. वहीं, कांग्रेस को 92 सीटें दी गई हैं. बड़ी बात यह है कि फुरफुरा शरीफ़ दरगाह के पीरज़ादा अब्बास सिद्दीकी की पार्टी इंडियन सेक्युलर फ्रंट (आईएसएफ) को 37 सीटें मिली हैं.
आठ मार्च को जारी हो सकती है उम्मीदवारों की लिस्ट
गौरतलब है कि आईएसएफ को पहले 30 सीटें दी गई थीं, लेकिन इसके लिए वो राज़ी नहीं हुए थे. इसके बाद सात सीटें और बढ़ाई गई हैं. सीट का फ़ॉर्मूला तय होने के बाद आठ मार्च को पहले दो चरणों के चुनाव के लिए 60 उम्मीदवारों की लिस्ट आ सकती है.
बंगाल में किस चरण में कितनी सीटों पर चुनाव?
पहले चरण में पश्चिम बंगाल की 294 में से 30 सीटों पर 27 मार्च को वोट डाले जाएंगे. वहीं, दूसरे चरण में 30 सीटों पर एक अप्रैल को, तीसरे चरण में 31 सीटों पर 6 अप्रैल को, चौथे चरण में 44 सीटों पर 10 अप्रैल को, पांचवे चरण में 45 सीटों पर 17 अप्रैल को, छठे चरण में 43 सीटों पर 22 अप्रैल को, सातवें चरण में 36 सीटों पर 26 अप्रैल को और आठवें चरण में 35 सीटों पर 29 अप्रैल को वोट डाले जाएंगे. नतीजों की घोषणा दो मई को होगी.
बंगाल की वर्तमान स्थिति
बंगाल में वर्तमान में तृणमूल कांग्रेस की सरकार है और ममता बनर्जी मुख्यमंत्री हैं. पिछले चुनाव में ममता की टीएमसी ने सबसे ज्यादा 211 सीटें, कांग्रेस ने 44, लेफ्ट ने 26 और बीजेपी ने मात्र तीन सीटों पर जीत दर्ज की थी. जबकि अन्य ने दस सीटों पर जीत हासिल की थी. यहां बहुमत के लिए 148 सीटें चाहिए.
गठबंधन से भाजपा को फायदा या नुकसान ?
पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में फुरफुरा शरीफ के मौलवी अब्बास सिद्दीकी की पार्टी इंडियन सेक्युलर फ्रंट (आईएसएफ) के कांग्रेस और लेफ्ट के साथ एक मंच पर आने से सत्ताधारी टीएमसी की सेहत पर कितना असर पड़ेगा, इसका तो अभी अंदाजा नहीं है, लेकिन इससे कांग्रेस में तूफान जरूर मच चुका है। लेकिन, बड़ा सवाल है कि जिस मूल मकसद यानी भाजपा को बंगाल से दूर रखने के लिए ये पार्टियां साथ आई हैं, वह कितना काम करेगा? क्योंकि, आईएसएफ पूरी तरह से एक धर्म से जुड़ी हुई पार्टी है। अगर इसके साथ आने से उसकी बाकी दोनों सहयोगी दलों को मुस्लिम वोट मिलने की उम्मीद है तो क्या उन्हें कहीं उसका खामियाजा भी तो नहीं उठाना पड़ सकता है?
34 साल तक बंगाल में राज करने वाले लेफ्ट फ्रंट का बीते 10 वर्षों में यहां की राजनीति से वजूद मिटने का खतरा पैदा हुआ है। उसका कैडर आधारित वोट काफी हद तक टीएमसी में जा चुका है तो भाजपा ने भी ‘चुपेचाप कमल छाप’ वाला कमाल कर दिखाया है। यही वजह है कि लेफ्ट फ्रंट अपने जनाधार को वापस पाने के लिए आज पूरी तरह से फुरफुरा शरीफ के मौलवी सिद्दीकी के भरोसे हो चुका है। इसकी बानगी रविवार को कोलकाता के ब्रिगेड ग्राउंड में देखने को मिली, जब उनके इस्तकबाल के लिए लेफ्ट के नेताओं ने प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी का जारी भाषण भी रुकवा दिया और चौधरी को इस ‘सियासी बेइज्जती’ का घूंट पीकर रहना पड़ गया। बाद में जब सिद्दीकी को मंच से बोलने का मौका मिला तो उन्होंने अपने स्वागत के रिटर्न गिफ्ट के तौर पर जो कुछ कहा उससे लेफ्ट नेताओं के खुशियों का ठिकाना नहीं रहा। वो बोले, ‘जो भी मुझसे प्यार करते हैं, मैं उनसे इस ब्रिगेड ग्राउंड से कहना चाहता हूं, जहां भी लेफ्ट फ्रंट अपना उम्मीदवार उतारेगा, हम अपनी मदरलैंड का अपने खून से हिफाजत करेंगे। हम भारतीय जनता पार्टी और इसकी बी-टीम तृणमूल कांग्रेस को उखाड़ फेंकेंगे। ‘
अब्बास सिद्दीकी के भाषण में बंगाल की 27 फीसदी से ज्यादा मुस्लिम आबादी का दम साफ नजर आ रहा था। हुगली जिले के जिस फुरफुरा शरीफ से पहले राजनीतिक दलों के समर्थन का इशारा मिलता था, आज वह खुद चुनावी शंखनाद कर चुका है। हालांकि, राज्य में पहले भी इस तरह के कुछ प्रयोग हुए हैं, लेकिन उन्हें कोई खास कामयाबी नहीं मिली है। लेकिन, अब्बास सिद्दीकी और उनकी आईएसएफ की बात कुछ और है। वह खुद तो सिर्फ 40 सीटों पर लड़ रही है, लेकिन वह अपने सहयोगियों के पक्ष में भी काफी हद तक हवा बनाने में सक्षम है इससे इनकार नहीं किया जा सकता। खासकर लेफ्ट फ्रंट को तो इसकी बदौलत मुस्लिम वोट पाने का विश्वास बहुत ज्यादा बढ़ चुका है। उसे यकीन है कि ‘भाईजान’ की जुबान मुस्लिम वोटर खाली नहीं जाने देंगे। बता दें कि अपने अनुयायियों के बीच मौलवी इसी नाम से लोकप्रिय हैं।
वैसे तथ्य ये भी है कि पिछले 10 साल से बंगाल में मुसलमानों का बड़ा हिस्सा मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और तृणमूल कांग्रेस के साथ जुड़ा हुआ है। इसकी वजह ये है कि उनकी सरकार ने मुसलमानों के हक में इतने सारे काम किए हैं, जिसके चलते उसे राजनीतिक बदनामी भी झेलनी पड़ रही है। बीजेपी तो उसके खिलाफ मुस्लिम तुष्टिकरण को ही मुख्य चुनावी एजेंडा बनाकर चल रही है। लेकिन,यह भी उतना ही सच है कि मुसलमानों में एक तबका ऐसा भी है, जिसे लगता है कि तृणमूल सरकार ने उसे सिर्फ वोट बैंक की तरह इस्तेमाल किया है और वह सही मायने में विकल्प खोज रहा था और आईएसएफ में उसे वह विकल्प दिख सकता है। यानी टीएमसी के साथ मुसलमानों के इस तबके के वोट खोने का जोखिम जरूर बढ़ गया है।
बीजेपी को हो सकता है फायदा
2019 का लोकसभा चुनाव बंगाल की राजनीति में धर्म के आधार पर वोटों के विभाजन के लिहाज से चुनावी राजनीति के छात्रों के अध्ययन के लिए एक बेहतर विषय हो सकता है। उस समय भाजपा के ध्रुवीकरण की राजनीति ने लेफ्ट के हिंदू वोटों को अपनी ओर खींच लिया था और उसने टीएमसी पर तुष्टिकरण के इतने आरोप लगाए थे कि उसके बाकी बचे हुए मुसलमान वोट भी ममता की झोली में शिफ्ट कर गए। इस चुनाव में फुरफुरा शरीफ की एंट्री ने वोटों के इस गणित को बेहद दिलचस्प बना दिया है। फिलहाल चुनाव भारतीय जनता पार्टी के एजेंडे की ओर मुड़ता हुआ दिख रहा है। तुष्टिकरण का आरोप लगाने के लिए उसे तो लेफ्ट और कांग्रेस ने बैठे-बिठाए मौका दे दिया है। मुस्लिम वोटों का टीएमसी और फुरफुरा एलायंस के बीच कितना बंटवारा होगा, इसका अभी अनुमान लगाना तो मुश्किल है, लेकिन भाजपा को अपने पक्ष में हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण करने का अवसर जरूर हाथ लग चुका है। माना जा रहा है कि वामपंथियों के पास हिंदू बहुल इलाकों में जो परंपरागत कैडर वोट बच भी गए हैं, वो अब बड़ी संख्या में बीजेपी की ओर खिसक सकते हैं। यूं मान लीजिए कि यह चुनाव पश्चिम बंगाल का सबसे ज्यादा धार्मिक ध्रुवीकरण वाला चुनाव होने जा रहा है।