आजादी के बाद यह शायद पहला गणतंत्र दिवस है जब दिल्ली की सड़कों पर देश के शौर्य पराक्रम और वीरता की परेड के साथ ही विरोध का रेला भी कदमताल कर रहा है. अब तक तो इस दिन पूरा देश दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का गौरव अपने माथे पर सजाये नुक्ती खाता रहा है, आखिर ऐसे कैसे हो गया कि इसी देश के हजारों-हजार नागरिक (किसान और उनके समर्थक) दो महीने के निरंतर संघर्ष के बाद गणतंत्र दिवस के दिन भी अपना घर-बार छोड़ सड़क पर हैं!
यह सवाल किसी एक पार्टी या किसी एक सरकार से नहीं है, यह सवाल तो दो सौ साल के संघर्ष के बाद बनी उस व्यवस्था का है, जो सिर्फ सत्तर साल के सफ़र के बाद ‘तानाशाही’ सा विरोध सह रही है, जबकि हम जानते हैं यह एक हम भारत के लोग एक संप्रभु, समतामूलक, राष्ट्र में संविधान की छत्र छाया में जी रहे हैं. महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘कोई भी मनुष्य की बनाई हुई संस्था ऐसी नहीं है, जिसमें खतरा न हो. संस्था जितनी बड़ी होगी, उसके दुरूपयोग की संभावनाएं भी उतनी ही बड़ी होंगी. लोकतंत्र एक बड़ी संस्था है, इसलिए उसका दुरूपयोग भी बहुत हो सकता है, लेकिन उसका इलाज़ लोकतंत्र से बचना नहीं, बल्कि दुरूपयोग की संभावना को कम से कम करना है.‘
क्या हम भारत में लोकतंत्र का दुरूपयोग कर रहे हैं? संविधान के बड़े दिन पर यह सवाल हमें अपने आप से जरुर पूछना चाहिए! क्या वजह है कि संविधान में लिखे गए सिद्धांतों को व्यवहार में नहीं बदल पाए, और आज भी देश में विकास पर एक बहस छिड़ी है कि क्या हम सही रास्ते पर जा रहे हैं? क्या यही विकास है? और यदि विकास यही है! तो वह किसके पक्ष में खड़ा दिखता है? गणतंत्र पर भरोसे का इतना बड़ा संकट आखिर कैसे खड़ा हो गया है? और यदि खड़ा हो भी गया है, तो हमारी व्यवस्था इतनी कमजोर कैसे पड़ गयी कि इस संकट को दूर नहीं किया जा सके? दिल्ली की सड़कों पर दो लाख ट्रेक्टरों को देखकर गणतंत्र खुद भी ठिठक रहा होगा. सोच रहा होगा कि क्या मैं वही हूं कि क्या मैं वही हूं जिसका सपना पूरा करने के लिए इतना लम्बा बलिदान दिया गया था!
आजादी पाकर गणतंत्र हो जाना एक बात है और आजादी को बनाए रखना दूसरी बात है. स्वतंत्र हो जाने का काम न तो 15 अगस्त 1947 को पूरा हो गया था और न गणतंत्र होने का 26 जनवरी 1950 को. भारत के इतिहास की इन दो तारीखों में हमने एक मंजिल पाई थी ‘एक लक्ष्य को पूरा किया था’ वास्तव में भारत का निर्माण उसके बाद वैसा होना था जैसा कि संविधान नाम की किताब में दिया गया है.
नेहरू ने अपनी प्रधानसेवकी के शुरुआती दिनों में ही देश से जो कहा था उसमें बहुत स्पष्ट बात थी कि केवल अंग्रेजी कौम के भारत से विदा लेने को ही वह आजादी नहीं मान रहे थे. उन्होंने कहा था कि ‘आजादी तभी है जब हिंदुस्तान के करोड़ों आदमियों की हालत अच्छी हो, उनकी गरीबी दूर हो, उनकी बेगारी दूर हो, उन्हें खाना मिले, रहने को घर मिले, पहनने को कपड़ा मिले, सब बच्चों को पढ़ाई मिले और हर एक शख्स को मौका मिले कि हिंदुस्तान में तरक्की कर सके, मुल्क की खिदमत कर सके.’
हैरानी की बात तो यह है कि अब भी हम खबर पढ़ रहे हैं कि देश में बेरोजगारी की हालत सबसे ज्यादा ख़राब है, हाल फिलहाल ही बारह करोड़ लोगों की नौकरी चली गई है और गरीबी और अमीरी की खाई और अधिक बढ़ी हुई दिखाई दे रही है. हम अब भी सतत विकास लक्ष्यों में अपने विकास के मानकों में भुखमरी, गरीबी जैसे शब्दों को शामिल किए हैं, प्राकृतिक संसाधनों से कुदरत के आशीर्वाद के बावजूद इस धरा के लोग बदहाली में हैं, वही लोग जिनसे मिलकर यह भारत माता बनी है.
संविधान में बराबरी के विकास की बात थी. बीमारियां और इलाज़ नहीं मिलने से हर साल 4 प्रतिशत भारत के लोग गरीबी के मकड़जाल में जा रहे हैं. जहां गरीबी का भयंकर इतिहास रहा हो, वहां एक जनकल्याणकारी शासन व्यवस्था लोगों के लिए आक्सीजन का काम करती है. इन जिम्मेदारियों को लंबे समय तक निभाया भी गया है, लेकिन पिछले कुछ समय में इस आर्थिक गैरबराबरी ने विकास के अधिकार को भी सीमित कर दिया है.हम यह साफ तौर पर देख रहे हैं कि जिनकी जेब में पैसा है वही अच्छी शिक्षा, सेहत और अन्य सुविधाओं को पा रहे हैं. इस आर्थिक गैरबराबरी ने गरीब भारत के बच्चों को भी उनके अधिकारों से या तो वंचित ही कर दिया है अथवा उनकी गुणवत्ता में लगातार गिरावट देखी जा रही है. इसका व्यापक असर अगले दस-बीस सालों में निश्चित तौर पर दिखाई देने वाला है, ऐसे में सरकार को अपने आप को उतना ही बेहतर बनाना, साबित करना और दिखाना होगा.
महात्मा गांधी ने लिखा था कि ‘जनता की राय के अनुसार चलने वाला राज्य जनमत से आगे बढ़कर कोई काम नहीं कर सकता. यदि वह (राज्य) जनमत के खिलाफ़ हो जाए तो नष्ट हो जाएं. अनुशासन और विवेकयुक्त जनतंत्र दुनिया की सबसे सुन्दर वस्तु है. लेकिन राग-द्वेष और अज्ञान और अंध-विश्वास आदि दुर्गुणों से ग्रस्त जनतंत्र अराजकता के गड्ढे में गिरता है और अपना नाश खुद कर डालता है.’
हमें अपना गणतंत्र प्यारा है, इसीलिए हमें अराजकता के गडढे में नहीं गिरना है. न जनता को न सरकार को. सरकार को मानना होगा कि जनता उसकी अपनी है और जनता को भी यह मानना होगा कि सरकार भी उसकी है, जिसे उसने ऐतिहासिक बहुमत देकर चुना है. दोनों एक दूसरे से हैं. इसमें सहमतियां, असहमतियां, विरोध, संघर्ष सब होगा, लेकिन वह एक-दूसरे के खिलाफ कभी नहीं हो सकतीं. वह साजिश नहीं हो सकती. जो इन्हें एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा कर रहे हैं, उनके मन पवित्र नहीं हैं. इसलिए यदि आप सचमुच संविधान को मानते हैं तो इस गणतंत्र पर अहंकार को त्यागकर पूरे सच्चे मन से गलतफहमियों को दूर करने की कोशिश करनी चाहिए.
गांधी ने लिखा था कि ‘मैं ऐसे संविधान की रचना करवाने का प्रयत्न करूँगा, जो भारत को हर तरह की गुलामी और परावलंबन से मुक्त कर दे और उसे, आवश्यकता हो तो, पाप करने तक का अधिकार दे. ऐसे भारत के लिए कोशिश करूँगा, जिसमें गरीब से गरीब लोग भी यह महसूस करेंगे कि यह उनका देश है, जिसके निर्माण में उनकी आवाज़ का महत्व है.