कथित मानहानि के मामले में गुजरात की अदालत द्वारा दिए गए फैसले में राहुल गांधी को मानहानि का दोषी पाए जाने और फैसले की सर्टिफाइड कॉपी की स्याही सूखने से भी पहले संसदीय सचिवालय द्वारा उनकी लोक सभा की सदस्यता समाप्त करने‚ भारत निर्वाचन चुनाव आयोग द्वारा उस सीट को रिक्त घोषित करने की ताबड़तोड़ कार्यवाहियां सिर्फ एक सांसद या उनकी पार्टी के लिए चिंता की बात नहीं है; इस समूचे उपक्रम ने हम सभी को स्तब्ध कर दिया है।
स्तब्ध कर देने की बात ही क्योंकि कि ज्यादातर भारतीयों की निगाह में यह भारत के संसदीय लोकतंत्र के लिए बहुत अशुभ और अपशकुनी संकेत हैं। इसलिए भी कि अब तक राजनीति में विपक्ष और विरोध का मुकाबला करने के लिए राजनीतिक तौर–तरीके ही अख्तियार किए जाते रहे हैं–इस तरह की साजिशों‚ तिकड़मों को अपनाने के उदाहरण नहीं के बराबर हैं। एजेंसियों और संस्थाओं के दुरुपयोग के मामले पहले भी देखने में आए हैं‚ लेकिन इसमें तत्परता पहली बाार देखी जा रही है। इसके अलावा‚ कुछ और भी आयाम हैं‚ जिन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता। जैसे सदस्यता समाप्ति का आधार बने अदालती ‘निर्णय’ को हासिल किया जाना एक और आयाम है। यकीनन उसके ऊपर की अदालतें इसके न्यायिक गुण–दोष पर विचार करेंगी‚ मगर आम नागरिकों की निगाह में भी यह फैसला दिलचस्प‚ सनसनीखेज और रोमांचित करने वाले रहस्यमयी संयोगों–प्रयोगों के उलझे धागों के गोले की तरह है।
जैसे कर्नाटक में भाषण दिया जाता है‚ गुजरात में सूरत की अदालत में मुकदमा दर्ज होता है। यह भी जिस मामले को वापस लेने की कभी गुहार लगाई गई थी‚ उसे फिर से खुलवाया गया और जिस पर अदालत ने यह फैसला दिया है। जिन–नीरव मोदी‚ ललित मोदी और नरेन्द्र मोदी का नाम लेकर उन्हें चोर कहा जाता है‚ उनमें से कोई भी शिकायत तक दर्ज नहीं कराता। मुकदमा दायर करता है भाजपा का ही एक नेता। संयोग से जिसका उपनाम मोदी है। तो मोदी उपनामधारी यह व्यक्ति खड़ा कर दिया जाता है। सुनवाई करने वाले मजिस्ट्रेट द्वारा हर तारीख में राहुल गांधी की व्यक्तिगत उपस्थिति की मांग को ठुकराए जाने से याचिकाकर्ता फैसले का अंदाज लगाकर खुद ही अपने मुकदमे की कार्यवाही रु कवाने के लिए हाई कोर्ट से स्टे ले आता है‚ और महीनों तक सुनवाई रु की रहती है। इस बीच‚ सूरत की संबंधित अदालत में एक नये जज हरीश हंसमुख भाई आते हैं। उनकी पहली विशेषता तो यह है कि इन्हें पिछले आठ साल से कोई पदोन्नति नहीं मिली थी। एक झटके में एक साथ दो पदोन्नतियां पाकर वे दूसरी विशेषता भी हासिल कर लेते हैं। पहले उन्हें एसीजेएम से सीजीएम बनाया जाता है‚ फिर १० मार्च को सिविल जज से डि्ट्रिरक्ट जज बना दिया जाता है। इसी बीच मुकदमे की सुनवाई पर स्टे लेने वाला हाई कोर्ट से अपना केस वापस ले लेता है। रिकॉर्ड के मुताबिक यही जज साब २७ फरवरी को ताबड़तोड़ सुनवाई कर १७ मार्च को फैसला सुरक्षित कर लेते हैं‚ और २३ मार्च को इस प्रकरण में जो अधिकतम सजा है‚ वह दो वर्ष की सजा सुना देते हैं।
निस्संदेह यह क्रोनोलॉजी सिर्फ संयोग भर नहीं है। दूसरा आयाम लोक सभा सचिवालय और भारत निर्वाचन आयोग की जल्दबाजी का है। यह अदालती फैसला पहला फैसला नहीं है। जब नरेन्द्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे‚ तब २०१३ में उन्हीं के एक मंत्री बाबूराम बोकाडि़या को भ्रष्टाचार में दोषी पाकर अदालत ने तीन वर्ष की जेल की सजा सुनाई थी। बोकाडि़या भाई जी ने न इस्तीफा दिया‚ न जेल गए। पखवाड़े भर में ऊपरी अदालत से जमानत लेकर मजे से मंत्री बने बैठे रहे। हर मुंबइया फिल्म के स्वयंभू सुपर सेंसर मध्य प्रदेश के गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा का प्रकरण और भी जोरदार है। उन्हें पेड न्यूज मामले में दोषी पाया जाता है‚ सदस्यता रद्द करके छह वर्ष के लिए अयोग्य घोषित कर दिया जाता है। हाई कोर्ट भी एक फैसले में इस सजा को स्थगित करने से इनकार कर देता है। डबल बेंच से उन्हें फौरी राहत मिलती है। वो दिन है और आज का दिन; तब से यह मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है‚ और नरोत्तम मिश्रा अपने पद पर कायम हैं।
सिक्किम में हुआ कारनामा तो और भी गजब और जोरदार है; यहां भाजपा ने जिस प्रेम सिंह तमांग को मुख्यमंत्री बनाया उनके खिलाफ भ्रष्टाचार प्रमाणित हो चुका था–उन्हें चुनाव तक लड़ने के लिए अयोग्य करार दिया जा चुका था। मगर उन्हें मुख्यमंत्री बनाना था‚ सो जन प्रतिनिधित्व कानून में वाजपेयी सरकार के कार्यकाल में बनाया गया नियम चुपचाप से हटा लिया गया। भारत निर्वाचन आयोग ने बंदे को विशेष छूट देकर उनकी छह वर्ष तक चुनाव लड़ने की अयोग्यता में पांच वर्ष कम करके उन्हें अयोग्य से योग्य बना दिया । तीसरा आयाम डिजिटल भाषा में कहें तो डिलीट‚ म्यूट और हार्ड डिस्क पर साइबर अटैक का है। हिंडनबर्ग के हिस्ट्रीशीटर और उसके कारनामों में शामिल लोगों के नाम मय सबूतों के संसद में रखे जाते हैं‚ बिना कोई कारण बताए सारी कार्यवाही को रिकॉर्ड से हटा दिया जाता है। अगले दिन जब फिर इसी अडाणी प्रकरण में समूचा विपक्ष एक सुर में बोलता है‚ तो लोक सभा टीवी की आवाज बंद कर दी जाती है।
आखिर में लंदन में कही गइ कथित बातों के लिए ‘माफी मांगो–माफी मांगो’ का तुमुलनाद करके खुद सत्ता पक्ष ही कार्यवाही नहीं चलने देता। कॉरपोरेट और थैलीशाहों के प्रति इतना असाधारण सेवाभाव भारतीय लोकतंत्र में विलक्षण है। ठीक यही कारण हैं कि यह मसला राहुल गांधी की सांसदी के चले जाने तक सीमित नहीं है; यह एक कॉरपोरेट के विश्वख्यात हो चुके घोटालों‚ घपलों को छुपाने‚ उनमें उसके मददगारों को बचाने के लिए नई–नई तिकड़में और साजिशें रचने और उन्हें अमलीजामा पहनाने के लिए निष्पक्ष समझी जाने वाली संवैधानिक संस्थाओं को काम पर लगाने का गंभीर मामला है। सीधे–सीधे कहें तो संवैधानिक संस्थाओं के दुरुपयोग का मामला है। ठीक यही वजह है कि यह सिर्फ राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले लोगों के लिए ही नहीं‚ वरन लोकतंत्र में विश्वास रखने वाले हर नागरिक के लिए भी फिक्र का विषय है।