ऐसा बिरले मामलों में ही होता है कि सजा भी झेलनी पड़ जाए और संसद की सदस्यता भी खोनी पड़े। राहुल गांधी अपनी एक गलत बयानबाजी के लिए दोहरे दंड को भुगतने के भागीदार हो गए हैं। सूरत की जिला अदालत ने उन्हें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर कटाक्ष करने के संदर्भ में मोदी समाज के सभी लोगों को चोर कह दिया था।
यह प्रत्येक पहलू पर आपत्तिजनक बयान था। २०१९ के लोक सभा चुनाव के दौरान दिया गया यह बयान मानहानि का आधार बना और अदालत ने उन्हें दो साल की सजा सुना दी। सजा के सुनाए जाने के तुरंत बाद लोक सभा सचिवालय सक्रिय हो गया और जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा के तहत राहुल की वायनाड संसदीय क्षेत्र से लोक सभा की सदस्यता समाप्त कर दी। यदि किसी आपराधिक मामले में दो साल या उससे अधिक की सजा सुनाई जाती है‚ तो सांसद अथवा विधायक की सदस्यता समाप्त करने की पहल का प्रावधान है। इस लिहाज से इस कदम को सही कह सकते हैं‚ लेकिन जिस तत्परता से यह कार्रवाई की गई‚ उस सिलसिले में यह प्रश्न है कि यह सब पूर्वाग्रही मंशा से की गई प्रक्रिया का परिणाम है। जबकि अदालत ने फैसले में राहुल को एक माह के भीतर ऊपरी अदालत में अपील करने की सुविधा दी थी। इस दौरान गिरफ्तार नहीं करने की भी छूट दी गई है। लेकिन राहुल जिस तरह से अडाणी पर हिंडनबर्ग की रिपोर्ट को लेकर मोदी और भाजपा पर सड़क से लेकर संसद तक निषाना साध रहे थे‚ कांग्रेस समेत सभी प्रमुख विपक्षी दल इस सदस्यता समाप्ति को इसी परिपेक्ष्य में देख रहे हैं। अतएव विपक्ष को सरकार को घेरने का नया अवसर मिल गया है।
सर्वोच्च न्यायालय ने १० जुलाई‚ २०१३ को दिए एक फैसले के अनुसार किसी आपराधिक मामले में २ वर्ष की सजा पाए दोषी सांसद‚ विधायक और अन्य जनप्रतिनिधियों को पद पर बने रहने का कोई अधिकार नहीं है। जिस तारीख से सजा सुनाई गई है‚ उसी दिन से माननीयों की सदस्यता निरस्त मानी जाएगी। इस फैसले में जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा ८ (४) को रद्द कर दिया गया था। यह धारा दागी नेताओं को मुकदमे लंबित रहते हुए भी पद पर बने रहने की छूट देती थी‚ यह फैसला २००६ में दाखिल वकील लिली थॉमस की याचिका पर दिया गया था। किंतु इस फैसले के विरुद्ध केंद्र सरकार ने संसद में सर्वसम्मति से संशोधन बिल लाकर शीर्ष अदालत के फैसले को चुनौती दी थी। इस बिल में धारा ८ की उपधारा ४ में एक प्रावधान जोड़ा ताकि दागी नेताओं की कुर्सी बचे रहे और वे सदन की कार्यवाही में भागीदारी करते रहें। किंतु अदालत ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा कि उपधारा ४ भेदभावपूर्ण है क्योंकि यह दोषी ठहराए गए आम जन को तो चुनाव लड़ने से रोकती है‚ लेकिन जनप्रतिनिधि को सुरक्षा मुहैया कराती है।
सर्वोच्च न्यायालय ने दागियों का महत्व राजनीति से समाप्त की दृष्टि से महज जनप्रतिनिधत्व कानून की धारा ८ (४) को खारिज किया था। यह एक ऐसी विरोधाभासी धारा थी‚ जो पक्षपात बरतते हुए दोषियों को दोहरे दृष्टिकोण से परिभाषित करती थी। यह संहिता एक ओर तो उस आम आदमी को ही चुनाव लड़ने से रोकती है‚ जिसे दो साल या इससे अधिक की सजा हुई हो तो दूसरी तरफ आपराधिक दोषी करार दिए गए नेताओं को पद पर बने रहने की छूट देती थी। इस भेद को खत्म करना‚ न्यायिक समानता के लिए जरूरी था‚ जिससे संवैधानिक मर्यादा का पालन हो और हरेक नागरिक को समानता के अधिकार मिलें।
किंतु संशोधन के जरिए अदालत के १० जुलाई के फैसले को बदलने की भावना जताकर सभी राजनीतिक दलों ने साफ कर दिया था वे न्याय के क्षेत्र में समानता के हकदार नहीं हैं। प्रश्न है कि जब संविधान के अनुसार कोई अपराधी मतदाता भी नहीं बन सकता तो जनप्रतिनिधि बनने के नजरिए से निर्वाचन प्रक्रिया में भागीदारी कैसे कर सकता हैॽ संविधान के अनुच्छेद १४ के तहत यह दोहरा मापदंड समानता के अधिकार का उल्लंघन है। समान न्यायिक व्यवहार की इस मांग को जनहित याचिका के जरिए लिली थॉमस और लोक प्रहरी नामक एनजीओ ने अदालत के समक्ष रखा था। ऐसी दोषपूर्ण प्रणाली के चलते ही राजनीति का मूलाधार वैचारिक अथवा संवैधानिक निष्ठा की बजाय सत्ता के गणित में सिमट कर रह गया है।
किसी आपराधिक मामले में दो साल या उससे अधिक की सजा सुनाई जाती है‚ तो सांसद अथवा विधायक की सदस्यता समाप्त करने की पहल का प्रावधान है। इस लिहाज से इस कदम को सही कह सकते हैं‚ लेकिन जिस तत्परता से यह कार्रवाई की गई‚ उस सिलसिले में यह प्रश्न है कि यह सब पूर्वाग्रही मंशा से की गई प्रक्रिया का परिणाम है….