देश भर से आ रही छात्रों की आत्महत्या की घटनाएं चौंकाने वाली हैं। महीने भर के अंदर आईआईटी‚ मद्रास जैसे शीर्ष उच्च शिक्षण संस्थान में दो छात्रों की आत्महत्या देश की कमजोर होती मेंटल हेल्थ को दर्शाती हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार‚ २०२१ में देश भर में आत्महत्या की १.६४ लाख से ज्यादा घटनाएं रिपोर्ट हुइ। इनमें करीब आठ प्रतिशत छात्र थे यानी संख्या १३ हजार से ज्यादा है‚ जो चौंकाने वाली स्थिति है।
एक अनुमान के अनुसार भारत की लगभग ४.५ प्रतिशत आबादी इस समय अवसाद के उच्चतम स्तर यानी ‘एक्यूट डिप्रेशन’ से जूझ रही है। १३ से १५ साल की उम्र के हर चार किशोरों में से एक को अवसाद है। डब्ल्यूएचओ की एक रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण–पूर्व एशिया के करीब ८.६ करोड़ लोग इस बीमारी की चपेट में हैं। रिपोर्ट से एक और चौंकाने वाला तथ्य सामने आया है कि १० दक्षिण–पूर्व एशियाई देशों में सर्वाधिक आत्महत्या दर भारत में है। इसमें ‘दक्षिण पूर्व एशिया में किशोरों की मानसिक स्वास्थ्य स्थिति’ संबंधी रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में १५–२९ उम्र वर्ग के प्रति एक लाख व्यक्तियों पर अवसाद संबंधी आत्महत्यों की दर ३५.५ है। अवसाद संबंधी ये आंकड़े़ स्थिति की गंभीरता की ओर इशारा करते हैं।
तथाकथित आधुनिक शिक्षा के नाम पर बढ़ती होड़ ने उत्पादकता की बजाय शिक्षा को व्यावसायिकता में तब्दील कर दिया है। अव्यावहारिक सिलेबस और किताबों के बोझ ने छात्रों के आसपास अवसाद‚ चिड़चिड़ेपन और तनाव का ऐसा संजाल खड़ा कर दिया है‚ जो अभेद्य किले के रूप में तब्दील हो चुका है। तनाव के इस किले में सेंध लगाने की तत्काल आवश्यकता है। जाहिर है ऐसे में प्रस्तावित मेंटल हेल्थ फ्रेमवर्क की खास जरूरत है जो दुख‚ निराशा‚ अवसाद और तनाव के मजबूत किले को भेद कर उज्जवल भविष्य की नींव तैयार करेगा। छात्रों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने के साथ ही उन्हें मानसिक रूप से स्वस्थ और मजबूत बनाने की समग्र पहल कारगर हो सकती है। हालांकि छात्रों को तनावमुक्त रखने के लिए उच्च शिक्षण संस्थानों में मनोदर्पण सहित कई कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं‚ लेकिन फ्रेमवर्क के तहत माता–पिता से लेकर संस्थान की जिम्मेदारी तय हो तो कुछ बात बने।
जीवन सिर्फ अंकों की दौड़ नहीं‚ बल्कि अनुभवों से सीखने की निमित्त कला है। तनाव और अवसाद के दानव को हराना है‚ तो छात्रों को खुश रख कर अवसाद के विरुद्ध लड़ाई छेड़नी होगी। अवसादमुक्त पीढ़ी तैयार करने की दिशा में शिक्षा के बुनियादी स्तरों पर प्रसन्नता पाठ्यक्रम को लागू करना ही होगा जिससे बच्चों में खुश रहने की प्रवृत्ति आसानी से जड़ जमा सके। गहरे तनाव से जूझते‚ प्रतिस्पर्धात्मक दौड़ से निपटते और दमघोंटू स्कूली माहौल में पढ़ाई का बोझ उठाते छात्रों से मजबूत राष्ट्र स्तंभ बनने की अपेक्षा नहीं की जा सकती और नहीं समाज और परिवार के हित में तरक्की की अभिलाषा। खुशहाल छात्र ही समाज और राष्ट्र के सवागिण विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है। वर्तमान परिस्थितियों में बढ़ते तनाव‚ हताशा‚ कुंठा और आक्रामकता ने स्कूलों में हैप्पीनेस पाठ्यक्रम को समवेत रूप से स्वीकारने की जरूरत है। जीवन की चुनौतियों से लड़ने में सक्षम यह टूल न केवल संकटग्रस्त परिस्थितियों से उबारने में सहायक होगा अपितु मानसिक स्वास्थ्य के लिहाज से भी छात्रों के हक में होगा।