उत्तर प्रदेश की राजनीति में यह सवाल इन दिनों सत्ता पक्ष और विपक्ष‚ दूसरे शब्दों में कहें तो सत्तारूढ़ भाजपा और उसके विरोधियों‚ दोनों को बेचैन किए हुए है कि क्या समाजवादी पार्टी (सपा) दलितों और पिछड़ों की जिस एकता के फेर में है‚ वह आगामी लोक सभा चुनाव से पहले संभव हो पाएगी–खासकर जब नियति ने अतीत में इन जातीय समुदायों के नायकों बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर और डॉ. राममनोहर लोहिया को ऐसी एकता की मंजिल तक पहंुचने का समय नहीं दिया और बीती शताब्दी के आखिरी दशक में बदली हुई परिस्थितियों में कांशीराम और मुलायम ने सपा और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के गठबंधन की शक्ल में इसकी दोबारा कोशिश की तो ‘हवा हो गए जय श्रीराम’ तक पहुंचा कर भी उसे ऐसे अंतर्विरोध और ग्रंथियों के हवाले कर गए‚ जो अखिलेश और मायावती द्वारा गत लोक सभा चुनाव में ‘बीती ताहि बिसारि दे’ की तर्ज पर किए गए गठबंधन के बावजूद जस के तस रह गए।
जाहिर है कि इस सवाल का जवाब उसके पीछे की बेचैनी जितना ही कठिन है–भले ही सपा नेता स्वामीप्रसाद मौर्य द्वारा पिछले दिनों अचानक गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस की महिलाओं‚ दलितों और पिछड़ी जातियों के प्रति अपमानजनक चौपाइयों के विरुद्ध मुखर होने को ऐसी ही एकता की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है–यहां तक कि इससे बेचैन सपा की प्रतिद्वंद्वी भाजपा द्वारा भी–और प्रदेश की सारी राजनीतिक पाÌटयों की लोक सभा चुनाव की तैयारियां इस सवाल के जवाब पर ही निर्भर करने की संभावना है। फिर भी‚ इन कोशिशों में मुब्तिला सपा का मनोबल उचा है क्योंकि अभी कुछ साल पहले तक उसकी प्रबलतम प्रतिद्वंद्वी रही बसपा‚ जो खुद को प्रदेश के दलितों की एकमात्र प्रतिनिधि मानती आई है और एक समय सपा के लोहियावाद के बरक्स अपने अंबेडकरवाद को इस तरह प्रचारित करती थी कि लोहिया की जन्मभूमि तक में बाबा साहब और लोहिया एक दूजे के ‘दुश्मन’ बन गए थे‚ न तीन में रह गई है और न तेरह में। उसके पराभव के बीच दलित वोट बैंक भी बिखराव का शिकार हो गया है और गत विधानसभा चुनाव में उसके एक हिस्से ने सपा के प्रति अपनी पुरानी ग्रंथियों के कारण भाजपा का रुख कर उसकी सत्ता में वापसी का मार्ग प्रशस्त कर दिया जबकि एक समय पूरे बहुमत से प्रदेश की सत्ता में आ चुकी बसपा के लिए अपना खाता खोलना तक मुश्किल कर दिया।
ऐसे में अकारण नहीं कि स्वामीप्रसाद मौर्य ने जो दिशा पकड़ी है‚ कहा जाता है कि वह भाजपा की ओर चले गए दलितों‚ साथ ही पिछड़ों का प्रवाह सपा की ओर करने के पार्टी के इरादे से जुड़ी है। पार्टी को कई कारणों से इसमें सफलता मिलने की भी उम्मीद है। पहला‚ भाजपा लाख कोशिशें कर ले‚ अपने सवर्ण प्रभुत्व से छुटकारा नहीं पा सकती और रामचरित मानस की विवादित चौपाइयों का जितना बचाव करेगी‚ उसके हिंदुत्व‚ जिसकी आड़ में वह >ंची जातियों के साथ दलित और पिछड़ी जातियों को भी साध लेने के अपने पुरोधा दीनदयाल उपाध्याय का सपना साकार करने में लगी है‚ के किले की दरारें उतनी ही चौडÃी होती जाएंगी क्योंकि जागरूक दलितों और पिछड़ों के लिए इस जाति अपमान का और सहना कठिन होगा।
ऐसे में सपा मुलायम और मायावती के काल की उनकी ग्रंथियों और अंतर्विरोधों को ‘नई सपा‚ नई हवा’ के नारे से जितना ज्यादा खोल और सुलझा लेगी‚ उतना ही लाभ में रहेगी। इस लाभ के लिए वह कितनी आतुर है‚ इस बात को इससे समझा जा सकता है कि उसने अपनी दो बेहद मुखर सवर्ण महिला नेताओं ऋचा सिंह और रोली तिवारी मिश्रा को स्वामी प्रसाद मौर्य के विरु द्ध बोलने के कारण पार्टी से निकाल दिया है‚ और अपने सवर्ण विधायकों में कथित रूप से अंदर–अंदर सुलगते असंतोष की भी फिक्र नहीं कर रही। इस कारण और गत दो लोक सभा और दो विधानसभा चुनावों के नतीजे गवाह हैं कि उसके लिए एम–वाई समीकरण से बाहर जाकर अतिरिक्त जनसमर्थन जुटाए और भाजपाई हिंदुत्व के किले में दरार डाले बगैर जीत का मुंह देख पाना संभव नहीं है यानी उसके लिए जीवन–मरण का प्रश्न है।
सपाई कहते हैं कि बसपा के रामअचल राजभर जैसे पुराने दिग्गजों‚ जो कभी बसपा की नींव की इट हुआ करते थे और अब सपाई हो गए हैं‚ के बूते सपा के लिए दलित–पिछड़ा ग्रंथियों और अंतर्विरोधों से पार पाना कतई कठिन नहीं होगा। वैसे भी बसपा के अवसान के बाद सपा ही दलितों और पिछड़ों की स्वाभाविक पार्टी बची है। तिस पर सपाई इसको लेकर भी उत्साहित हैं कि प्रदेश के दलित मतदाता वरिष्ठ दलित नेता उदितराज‚ जो भाजपा के प्रति आकर्षण‚ फिर मोहभंग के बाद कांग्रेस में चले गए हैं‚ के उस पुराने कथन को सही सिद्ध करने लगे हैं कि मायावती में कोई सुरखाब के पर नहीं लगे कि दलित उनके वोट बैंक बने रहें‚ जहां बेहतर विकल्प मिलेगा‚ वे चले जाएंगे। ऐसे में सवाल है कि गत विधानसभा चुनाव में दलितों का जो हिस्सा भाजपा के साथ चला गया था‚ वह अब भूल सुधार करते हुए सपा में क्यों नहीं आ सकता–खासकर जब जिन मुलायम और मायावती की ग्रथियों के कारण दलितों और पिछड़ों की एकता ग्रंथियों और अंतर्विरोधों के हवाले हुई थी‚ उनमें मुलायम इस संसार को ही अलविदा कह गए हैं जबकि मायावती का नेतृत्व अपनी चमक खोकर ‘न यूपी हमारी‚ न दिल्ली की बारी’ तक पहुंच चुका है। लेकिन क्या यह एकता सचमुच इतनी ही आसान हैॽ पूछिए तो जवाब मिलता हैः आसान न हो‚ लेकिन इसे आसान बनाने के अलावा कोई रास्ता नहीं है।
किसे नहीं मालूम कि स्वाधीनता के पूर्व और बाद में बाबा साहब दलितों के मसीहा बनकर उभरे तो लोहिया ने सदियों से बेजान पिछड़ी जातियों में नई राजनीतिक चेतना पैदा की। बाबा साहब ने दलितों में तो लोहिया ने पिछड़ी जातियों में सत्ता तथा शासन में हिस्सेदारी की भूख पैदा की और उन्हें संघर्ष करना सिखाया। आज की तारीख में इन दोनों के अनुयायियों को एकजुट करके ही हिंदुत्ववादी और मनुवादी ताकतों को निर्णायक शिकस्त दी जा सकती है। राजनीतिक विश्लेषक डॉ. रामबहादुर वर्मा के मुताबिक‚ दलितों और पिछड़ों या अंबेडकर और लोहिया के अनुयायियों की एकता के पर्याप्त ऐतिहासिक आधार भी हैं। १९३४ में कांग्रेस के भीतर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी बनी तो बाबा साहब ने समाजवादियों से कहा था–तुम किसी भी दिशा में जाओ‚ जातिवाद के राक्षस से तुम्हें दो–दो हाथ करने ही पड़ेंगे। जब तक इस राक्षस को नहीं मारोगे‚ तब तक कोई आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन नहीं ला सकोगे।
सपा मुलायम और मायावती के काल की ग्रंथियों और अंतर्विरोधों को ‘नई सपा‚ नई हवा’ के नारे से जितना ज्यादा खोल और सुलझा लेगी‚ उतना लाभ में रहेगी। इसके लिए वह कितनी आतुर है‚ इस बात को इससे समझा जा सकता है कि उसने अपनी दो बेहद मुखर सवर्ण महिला नेताओं ऋचा सिंह और रोली तिवारी मिश्रा को स्वामी प्रसाद मौर्य के विरुद्ध बोलने पर पार्टी से निकाल दिया है‚ और अपने सवर्ण विधायकों में सुलगते असंतोष की भी फिक्र नहीं कर रही