छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में शुक्रवार (24 फरवरी) को कांग्रेस का 85वां प्लेनरी सेशन आयोजित किया जाएगा. इस सेशन से पहले स्टीयरिंग कमेटी की बैठक भी होगी. बैठक में कांग्रेस कार्यसमिति के चुनाव को लेकर फैसला लिया जाएगा. सूत्रों का कहना है कि कुछ नेताओं का मानना है कि अगर इस समय पार्टी में चुनाव करवाए गए तो आपसी कलह बढ़ सकता है. लिहाजा कार्यसमिति के चुनाव को टाला जा सकता है. हालांकि, आखिरी फैसला कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ही लेंगे.
अगर अपने इतिहास के सबसे बुरे दौर से गुजरने वाली कांग्रेस दशा–दिशा बदलना चाहती है‚ तो उसे 24–26 फरवरी तक रायपुर में होने वाले पूर्ण अधिवेशन में कुछ कड़े़ और बड़े़ राजनीतिक फैसले लेने ही पड़ेंगे। राहुल गांधी की कन्याकुमारी से कश्मीर तक साढ़े तीन हजार किलोमीटर से भी लंबी भारत जोड़़ो यात्रा लगातार चुनावी पराजयों से पार्टी में पसरी हताशा से उबरने और खुद राहुल की छवि सुधारने में तो मददगार साबित हुई है पर सिर्फ इतने भर से कांग्रेस की मुश्किलें खत्म नहीं होतीं। इस कवायद के बावजूद न तो क्षत्रपों की महत्वाकांक्षाओं से पनपती गुटबाजी पर अंकुश लग पाया है‚ और न ही अन्य विपक्षी दलों में कांग्रेस की स्वीकार्यता बढ़ने के संकेत मिले हैं।
आलोचक जो भी कहें‚ यात्रा की शुरुआत के लिए कन्याकुमारी का चयन रणनीतिक रूप से भी सही था। भले ही केरल में वामपंथी गठबंधन (एलडीएफ) का शासन है पर कांग्रेसी अगुवाई वाला यूडीएफ बड़़ी ताकत है। पिछले लोक सभा चुनाव में राहुल गांधी केरल के वायनाड़़ से सांसद चुने गए थे। अगले लोक सभा चुनाव में केरल से कांग्रेस को बड़़ी उम्मीदें हैं। यही बात अनुच्छेद ३७० की समाप्ति के बाद केंद्रशासित क्षेत्र बने जम्मू–कश्मीर के बारे में कही जा सकती है। वहां क्षेत्रीय दल नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी बड़़ी राजनीतिक ताकत रहे हैं‚ और दोनों राष्ट्रीय दल कांग्रेस–भाजपा–क्षेत्रीय दलों से गठबंधन पर निर्भर।
भारत जोड़़ो यात्रा के समापन में नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी‚ दोनों का शामिल होना उत्साहवर्धक माना जा सकता है‚ पर कन्याकुमारी से कश्मीर के बीच भी विशाल भारत है‚ जो देश की चुनावी राजनीति में निर्णायक भूमिका निभाता है। कुछ राज्य तो भारत जोड़़ो यात्रा के रूट में ही शामिल नहीं किए गए‚ पर जो किए गए वहां भी निजी सत्ता महत्वाकांक्षाओं को पार्टी हित पर वरीयता देने वाले गुटबाज नेताओं पर लगाम कसने में वह सफल नजर नहीं आई। यही बात विपक्षी दलों के बीच कांग्रेस की धुरी–रूप में स्वीकार्यता की बाबत कही जा सकती है। पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक ज्यादातर विपक्षी दल राहुल गांधी की भारत जोड़़ो यात्रा से किनारा ही करते दिखे। ओडिशा में लगातार भाजपा का विजय रथ रोकने वाले मुख्यमंत्री नवीन पटनायक‚ कांग्रेस से बगावत कर वाईएसआर कांग्रेस बना आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज जगन मोहन रेड्डी और तेलंगाना के महत्वाकांक्षी मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव को यात्रा के समापन पर न बुलाने की राजनीतिक समझदारी तो राहुल के रणनीतिकार ही बेहतर समझते होंगे पर जिन विपक्षी दिग्गजों को बुलाया‚ उनमें से भी कई बड़़े चेहरे नहीं आए। माना कि टीएमसी सुप्रीमो एवं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी अरसे से कांग्रेस से दूरी बना कर चल रही हैं‚ दिल्ली के बाद पंजाब में भी कांग्रेस से सत्ता छीनने वाली आप से भी दूरी की मजबूरी समझी जा सकती है‚ लेकिन उत्तर प्रदेश के दोनों बड़े़ विपक्षी दलों सपा और बसपा ने जिस तरह कांग्रेस को नकारा है‚ उसका राष्ट्रीय राजनीति पर गहरा और दूरगामी असर होगा।
मंडल राजनीति को कमंड़ल राजनीति में समाहित करने की भाजपाई रणनीति उत्तर प्रदेश में सफल रही है। इसके बावजूद उसे सपा–बसपा ही टक्कर दे सकती हैं पर व्यापक विपक्षी गठबंधन के बिना उसके वांछित परिणाम नहीं निकलेंगे। कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में बिहार जैसा महागठबंधन बनाने का गंभीर प्रयास करना चाहिए। अगर सपा–बसपा‚ कांग्रेस से आशंकित हैं‚ तो उसके मूल में अतीत के अनुभव भी हैं। यह आशंका दूर करने की ईमानदार कोशिश कांग्रेस को ही करनी होगी–और जमीनी वास्तविकता को स्वीकारते हुए अहमन्यता त्यागनी होगी। राष्ट्रीय लोकदल समेत कुछ छोटे दलों से गठबंधन की सोच के पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बाहर तो बड़े़ परिणाम नहीं निकल पाएंगे। कांग्रेस को बड़़ा झटका बिहार के मित्र दलों ने दिया है। वहां कांग्रेस की भागीदारी वाले जिस महागठबंधन की सरकार है‚ उसके दोनों बड़े़ दल राजद और जद यू के नेता भी यात्रा के समापन में नहीं आए। क्या तेजस्वी यादव और नीतिश कुमार भी कांग्रेस की बढ़ती महत्वाकांक्षाओं से आशंकित हैंॽ
भारत जोड़़ो यात्रा को जम्मू–कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेस और पीडीपी के अलावा तमिलनाडु और महाराष्ट्र के कांग्रेस के मित्र दलों का ही साथ मिल पाया। बीआरएस‚ सपा‚ आप‚ सीपीएम और सीपीआई जैसे दलों के नेता खम्मम में एकजुट हो कर अपने इरादों का संकेत भी दे ही चुके हैं। लोक सभा की मौजूदा सदस्य संख्या पर नजर डालें तो सबसे बड़े़ विपक्षी दल कांग्रेस के पास मात्र ५२ सीटें हैं‚ जबकि भाजपा के पास ३०० से ज्यादा। मुखर भाजपा विरोधी दलों की सदस्य संख्या मिला भी लें तो पौने दो सौ तक नहीं पहुंचती। हां‚ भाजपा–कांग्रेस के बीच अपनी तटस्थ राजनीतिक राह चुनने वाले दलों को भी मिला लें तो यह संख्या अवश्य सवा दो सौ तक पहुंच जाती है। जाहिर है‚ विपक्षी दलों–नेताओं के आपसी अंतर्विरोध भाजपा को और मजबूती प्रदान करते हैं। यह भी कि व्यापक विपक्षी गठबंधन के बिना मोदी की भाजपा से मुकाबला भी मुमकिन नहीं–परिवर्तन तो दूर की बात है। ऐसे में रायपुर अधिवेशन में कांग्रेस कार्यसमिति के चुनाव या मनोनयन की पहेली के बाद बड़़ी चुनौती क्षत्रपों की सत्ता महत्वाकांक्षाओं पर लगाम कसने की होगी।
अगर मुख्य लक्ष्य भाजपा को कड़़ी चुनौती देना है तो कांग्रेस को व्यापक विपक्षी गठबंधन बनाने की ईमानदार–गंभीर कोशिश करनी होगी‚ जिसकी पहली अनिवार्य शर्त के रूप में केंद्रीय सत्ता में अपनी वापसी के सपने को त्यागना होगा। कांग्रेस के मीडिया विभाग के प्रमुख जयराम रमेश ने कोई नई बात नहीं कही कि बिना कांग्रेस विपक्षी गठबंधन नहीं बन सकता। यह बात पिछले साल पाला बदलने के बाद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी कह चुके हैं। मुद्दा कांग्रेस की भागीदारी का नहीं‚ नेतृत्व का है‚ जिसे लेकर गैर–कांग्रेसी दलों के मन में कई सवाल हैं‚ जिनका तार्किक उत्तर उन्हें देने से पहले रायपुर अधिवेशन में खुद कांग्रेस को भी खोजना होगा।
मुख्य लक्ष्य भाजपा को कड़़ी चुनौती देना है तो कांग्रेस को व्यापक विपक्षी गठबंधन बनाने की ईमानदार–गंभीर कोशिश करनी होगी‚ जिसकी पहली अनिवार्य शर्त के रूप में केंद्रीय सत्ता में अपनी वापसी के सपने को त्यागना होगा। कांग्रेस के मीडिया विभाग के प्रमुख जयराम रमेश ने कोई नई बात नहीं कही कि बिना कांग्रेस विपक्षी गठबंधन नहीं बन सकता। मुद्दा कांग्रेस की भागीदारी का नहीं‚ नेतृत्व का है‚ जिसे लेकर गैर–कांग्रेसी दलों के मन में कई सवाल हैं
हर काम को तीन अवस्थाओं से गुजरना होता है– उपहास‚ विरोध और स्वीकृति…………