कई खबर चैनलों में एक खास राज्य सरकार का एक विज्ञापन दिन में कई बार आता है। इसमें सरकार की ऐसी–ऐसी उपलब्धियां दिखाई जाती हैं मानो वहां की जनता के लिए सब कुछ किया जा चुका हो और राज्य के निवासी खुश हों। कई अन्य राज्यों के विज्ञापन भी ऐसे दावे करते दिखते हैं। इन दिनों ऐसे विज्ञापनों की भरमार है। वे जितनी देर आते हैं‚ उतनी देर लगता है मानो उन–उन राज्यों में स्वर्ग आ चुका हो। लेकिन‚ जब किसी दिन अचानक उस राज्य से संबंधित ऐसी खबरें आने लगती हैं‚ जो विज्ञापन के विपरीत किसी कटु यथार्थ को बताने लगती हैं तो लगता है कि विज्ञापन झूठे थे। जब खबरें बताने लगती हैं कि अमुक राज्य में छात्र आंदोलित हैं। दंगे की सी स्थिति है.ऐसी हर खबर किसी न किसी यथार्थ समस्या के बारे में बताती है‚ जिसे ऐसे विज्ञापन छिपाते हैं जैसे बेरोजगारी व महंगाई की खबरें‚ धर्मिक तनावों की खबरें हों या हेट स्पीच की खबरें या किसी खास राज्य के किसी नेता या विभाग के घोटाले के आरोपों की खबरें।
ऐसी हर यथार्थ खबर ऐसे हर विज्ञापन की पोल खोल के रख देती है। इसलिए हमें खबरों की कसौटी पर विज्ञापनों को परखना चाहिए। ऐसा करेंगे तो जान सकेंगे कि विज्ञापनों में दिखते राज्य का स्वर्ग ‘एक बनाया हुआ मिथक’ है‚ जो यथार्थ से एकदम विपरीत है। उदाहरण के लिए एक राज्य कल तक अपने विज्ञापनों में अपने तमाम जनहितकारी कार्यों के बारे में बताया करता था। अब नहीं बताता क्योंकि अब उसके खास इलाके में मकानों में दरारों की खबरों ने उसके विज्ञापन–लोक में दरारें डाल दी हैं। उस सरकार को लगा होगा कि जिन चैनलों में वह विज्ञापन देती है‚ वही चैनल मकानों में आइ दरारों और उनको तोडने के प्लान को दिखा रहे हैं। ऐसे में कैसे दिखाएं विज्ञापनों वाला स्वर्गॽ इसी तरह दक्षिण का एक राज्य अपने विकास कार्यों को एक विज्ञापन में कुछ इस तरह से दिखाता रहा है मानो उस राज्य से बेहतर कोई अन्य राज्य न हो।
कुछ राज्य अपनी राजकीय सीमाओं से बाहर भी जाते हैं। मसलन‚ दक्षिण भारत के एक छोटे से राज्य ने अपनी उपल्ध्यियों को प्रचारित करने वाला विज्ञापन दिल्ली के चैनलों में भी दिया। क्योंॽ हमारी समझ में दक्षिण के उस राज्य का विज्ञापन उसकी आफिशियल भाषा तक सीमित रहता तो स्वाभाविक रहता। उस भाषा को जानने वाले अपनी राज्य सरकार की उपलिब्ध्यों के बारे में असानी से जानते रहते लेकिन सरकार ने अपनी स्थानीय भाषा की सीमाओं से बाहर आकर दिल्ली तक दस्तक दी तो किस लिएॽ इसलिए कि दक्षिण के उस राज्य के नये सीएम अपनी पार्टी को सिर्फ राज्य की पार्टी बनाने से तुष्ट नहीं रहे। उनके ‘आल इंडिया नेता’ बनने की इच्छा ने उनको ऐसा करने दिया।
यों ऐसा करना किसी का भी जनतांत्रिक अधिकार है‚ और किसी को भी अपनी पार्टी को ऑल इंडिया बनाने का हक है‚ लेकिन विज्ञापनों के जरिए अपनी पार्टी को ऑल इंडिया बनाना राजनीति का ‘नया तत्व’ है‚ जो पहले नहीं था। यह उदाहरण बताता है कि आज की राजनीति बिना विज्ञापनबाजी के नहीं हो सकती। पहले ऐसा नहीं था। जब चुनाव आते थे तभी दल अपने विज्ञापन देते थे लेकिन आज की स्पर्धात्मक राजनीति स्पर्धात्मक विज्ञापनों से ही संभव है। केंद्र सरकार के बरक्स राज्य सरकारें भी आज यही कर रही हैं। ऐसे विज्ञापन नेता का ‘छवि निर्माण’ तो करते ही हैं‚ राज्यों की छवि का निर्माण भी करते हैं। ऐसे विज्ञापनों के कुछ और लाभ भी हैं। उदाहरण के लिए जिन चैनलों को ऐसे सरकारी विज्ञापन दिए जाते हैं‚ वे अपने आप उस सरकार के प्रति कुछ नरम से हो जाते हैं। विज्ञापन दिखाने वाले चैनल ऐसी हर विपरीत खबर को किनारे कर देते हैं‚ जो उक्त राज्य की कमजोरी को दिखाती हो। ऐसे विज्ञापन एक और काम करते हैं‚ और वह है राज्य सरकारों के दमनात्मक चेहरे की जगह उनके मानवीय चेहरे को आगे करना।
लेकिन क्या इन विज्ञापनों को अन्य कंज्यूमर विज्ञापनों की तरह देखा जाना चाहिएॽ सवाल इसलिए जरूरी है कि सामान्य उपभोक्ता वस्तुओं के ऐसे विज्ञापनों‚ जिनमें झूठे दावे या वादे हों‚ की शिकायत विज्ञापन परिषद में कर सकते हैं‚ लेकिन सरकारें झूठे दावे या वादे करें तो इसके निदान के लिए कोई परिषद नहीं है। हमारी राय में ऐसे विज्ञापनों के लिए भी समीक्षा समिति होनी चाहिए ताकि विज्ञापन यथार्थवादी नजर आएं।
आज की राजनीति बिना विज्ञापनबाजी के नहीं हो सकती। पहले ऐसा नहीं था। जब चुनाव आते थे तभी दल अपने विज्ञापन देते थे लेकिन आज की स्पर्धात्मक राजनीति स्पर्धात्मक विज्ञापनों से ही संभव है। केंद्र सरकार के बरक्स राज्य सरकारें भी आज यही कर रही हैं