कहावत है कि निषिद्ध फल मीठा होता है और जिज्ञासा पैदा करता है। जिज्ञासा इस बात कि आखिर‚ हमें रोका क्यों जा रहा है‚ निषेध क्यों किया जा रहा हैॽ ऐसा ही हम इन दिनों देख और सुन रहे हैं। मसला ब्रिटिश ब्रॉड़कास्टिंग कार्पोरेशन (बीबीसी) की प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर बने दो एपीसोड़ के वृत्तचित्र का है‚ जिसके देखने पर सरकार की तरफ से मनाही है तो वहीं समाज का एक वर्ग इसकी स्क्रीनिंग को लेकर जिद ठाने हुए है।
ड़ॉक्यूमेंट्री को देखने की ‘आग’ जवाहरलाल नेहरू (जेएनयू)‚ जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय से बढ़ते हुए देश के विभिन्न कॉलेज और विश्वविद्यालय कैम्पस तक पहुंच चुकी है। अगले कुछ हफ्तों में इसकी स्क्रीनिंग कोलकाता स्थित प्रेसीडें़सी विश्वविद्यालय और जादवपुर विश्वविद्यालय के कैम्पस में होने का ऐलान छात्र संगठनों की ओर से किया गया है यानी बात थमी नहीं‚ बल्कि बहुत दूर तलक निकल चुकी है। और इसे रोकना अब नामुमकिन सा दिखता है। वैसे भी इंटरनेट के दौर में किसी भी कार्यक्रम को दबा देना या खत्म मान लेना मूर्खता से ज्यादा कुछ नहीं है। यह वक्त सेकेंड़ में किसी भी खबर‚ तस्वीर या दृश्य (विजुअल) को विश्वव्यापी पहुंच दे सकता है। बीबीसी की ड़ॉक्यूमेंट्री को लेकर भी यही संदेश प्रसारित हो रहा है। अब यह मसला देश के प्रधानमंत्री की छवि धूमिल करने के कुत्सित प्रयास से ज्यादा सियासत की चाश्नी में लिपट चुका है।
हां‚ इस सियासी दांव–पेच में भाजपा और विभिन्न हिंदूवादी संगठन एक पाले में हैं तो पिच के दूसरे छोर पर वामपंथी संगठन और भाजपा की विचारधारा से उलट अन्य राजनीतिक पार्टियां भी ताल ठोक रही हैं। ऐसा ही एक घटनाक्रम फिल्म ‘पठान’ का भी है। इस फिल्म के खिलाफ भी ऐसा ही माहौल बनाया गया कि जनता में इसे देखने के लिए जबरदस्त ललक पैदा हुई। नतीजतन‚ फिल्म ने रिलीज से पहले ही रिकार्ड़ कमाई प्री–बुकिंग से कर ली। रिलीज के बाद तो इसने कई सारे रिकॉर्ड तोड़़ दिए। स्वाभाविक है कि यह सब कुछ किसी भी घटना को जरूरत से ज्यादा ‘हाइप’ देने के कारण हुआ है। एक अहम सवाल यह भी पैदा होता है कि क्या सरकार के निषेध के बाद किसी भी शख्स को उसे तोड़़ने की इजाजत दी जा सकती हैॽ वहीं‚ सरकार को भी अपने आचार–विचार में थोड़़ी मुलायमियत लानी होगी। बड़़ा दिल दिखाना होगा। सरकार एक बार यह भी करके देखे।