सागर के एक ‘सीरियल किलर’ ने पकडे जाने पर स्वीकार किया है कि लोगों की हत्या करने की प्रेरणा उसे दक्षिणी फिल्म ‘केजीएपफ २’ से मिली। वह सोते हुए लोगों को मारता था। केजीएपफ पिछले दिनों की सबसे हिट फिल्म है। उसमें इतनी हिंसा है कि आप गिनना भूल जाते हैं कि किसने कितने मारेॽ उसका एक सीन कुछ इस तरह खुलता हैः बहुत से निरीह लोग एक बडे आततायी के आगे ‘नतमस्तक’ रहते हैं। इस सीन में उसका एक लठैत एक अंधे आदमी से कहता है पगडी उतार कर डलिया में डाल। वह पगडी को डलिया में नहीं डाल पाता। लठैत इस पर खल की सी हंसी हंसता है और बूढ़े को एक बाडे के अंदर धकेल देता है। बाडे के बाहर सैकडों बेगार करने वाले निरीह निराशा में सिर झुकाए खडे रहते हैं। इनको कंट्रोल करने के लिए आततायी के तेईस लठैत तैनात हैं। इस बीच एक युवक चुपके से एक हथौडा उठा लेता है‚ और एक एक कर के बाईस लठैतों को मार देता है। ऐलान करता है‚ तेईस में से बाइस मार दिए हैं। सिर्फ एक जिंदा रखा है ताकि वो अपने आका को खबर दे सके कि कोई है‚ जो उसके अत्याचारों को खत्म करने के लिए आ चुका है। निरीह भीड खुश होती है कि वह उस अंधे बूढ़े को भी छुडा लाया है। बैकग्रांउड में एक कोरस में हीरो की पावर और मारधाड का गौरव गान बजता रहता है।
हमने पहले भी इसी कॉलम में इन दिनों की सबसे अधिक हिट फिल्मों–‘पुष्पराज’‚ ‘आआरआर’ और ‘केजीएफ’ की चरचा की थी। यहां केजीएफ की चरचा करेंगे क्योंकि एक सीरियल किलर ने कबूला है कि उसने ‘केजीएफ’ से प्रेरणा ली। यों ‘प्रेरणा मिलना’ बेहद जटिल क्रिया है‚ और किसी एक स्रोत से नहीं मिला करती लेकिन अगर कोई ‘कबूल’ रहा है कि एक खास फिल्म से प्रेरणा मिली तो सोचना चाहिए कि उस फिल्म में ऐसा क्या रहा होगा जिससे युवा सीरियल किलर का दिमाग फिरा हो। पिछले दिनों से मीडिया कहता आ रहा है कि इन दिनों दक्षिणी फिल्म सबसे हिट फिल्में हैं। उन्होंने हिंदी क्षेत्रों से अच्छी कमाई की है जबकि बॉलीवुड के पास नये आइडियाज ही नहीं बचे। बॉलीवुड के हीरो ‘ओवरपेड’ हैं‚ उनके पास नया कुछ नहीं है। बॉलीवुड की फिल्मों से लोग उब गए हैं। वे कुछ हीरोज के चाकलेटी चेहरों पर ही जीती हैं जबकि दक्षिण में बनी फिल्में न केवल कहानी में‚ बल्कि एक्शन में आगे हैं। उनकी प्रोडक्शन क्वालिटी भी बेहतर होती है। यह चलन ‘बाहुबली’ से शुरू हुआ जो अपने भव्य सेटों और एक्शन की क्वालिटी से हॉलीवुड की ‘बेनहर’ की याद दिलाती है। उसके लंबे एक्शन सीन भी बेहद विश्वसनीय नजर आते हैं‚ और उसकी ‘इतिहासपरक’ कहानी अन्याय पर न्याय की विजय दिखाती है। यह बात लोगों को अपील करती है।
अन्याय पर न्याय की जीत की ऐसी कहानियां बॉलीवुड की फिल्मों–‘शोले’‚ ‘जंजीर’‚ ‘दीवार’ और ‘अगिपथ’ आदि में थीं‚ और इसीलिए वे सफल रहीं। और दक्षिण के लिए भी ‘ट्रेंड़ सेटर’ रहीं लेकिन अब तो बॉलीवुड बेहद सतही कहानियों लेकर चलता है जैसे कि लाल सिंह चड़्ढा की कहानी जो दर्शकों से कनेक्ट तक नहीं करती। अगर ‘पुष्पराज’‚ ‘आरआरआर’ और ‘केजीएफ’ हिदी दर्शकों के बीच भी सुपर हिट रही हैं‚ तो एक कारण उनकी कहानियांं हैं‚ जो अन्याय पर न्याय की जीत को कन्विंसिंग तरीके से दिखाती हैं‚ जिनका मैला–कुचैला मामूली हीरो सौ– दौ सौ पर भी भारी पडता है। अन्याय का शिकार होना फिर अन्यायी से बदला लेने की जिद‚ ताकत और हिंसा का जवाब हिंसा से देने में उसका यकीन उसे नये हीरो की तरह पेश करता है। सबसे हिट सीन वे होते हैं‚ जहां अकला हीरो बीस–तीस पर ही नहीं सौ–दो सौ पर भारी पडता है। उसकी सबसे बडी यूएसपी होती है‚ उसका प्रतिहिंसा करने का तरीका। ॥ ऐसे फाइट सीनों में मामूली आदमी हथौडे से एक एक की कनपटी पर मारता जाता है‚ तो दर्शकों को बर्बर तोष का अनुभव होता है। जैसे खलनायक ने मारा उससे भी भयानक तरीके से हीरो ने मारा। इस तरह हम खलनायक की बर्बरता के बरक्स हीरो की बर्बरता के नये–नये तरीकों को देख मुग्ध होते हैं। हमें लगता है कि जैसे खलनायक ने मारा उससे भी अधिक डरावने तरीके से इसने मारा। यही ठीक है। अधिसंख्य दक्षिणी फिल्मों की यूएसपी नायक की पावर की तलाश और तज्जन्य बर्बरता के नये–नये रूप होते हैं। हिंदी में डब्ड दक्षिणी फिल्मों के नायक पुलिस वाले ही होते हैं। उस युवक के कच्चे मन को बर्बरता की प्रेरणा मिली तो कोई आश्चर्य नहीं क्योंकि बर्बरता का माहौल बर्बरता को ‘नया नॉरमल’ बनाता है।