भारत इस साल स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहा है। वह स्वाधीनता; जिसके लिए हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया था। भारत मात्र‚ एक भूखण्ड़ नहीं है और न ही कोई भौगोलिक इकाई है और न केवल‚ राजनैतिक सत्ता का स्थान‚ बल्कि यह देश मनुष्य की मनुष्यता के अभिषेक का मंदिर है। भारतीयता‚ हमारे दर्शन का निचोड़ है‚ हमारे इतिहास की पहचान है और हमारे जीवन के आदर्शों का प्रतीक है।
राष्ट्र की परिभाषा एक ऐसे जनसमूह के रूप में की जा सकती है जो एक भौगोलिक सीमा के भीतर एक निश्चित देश में रहता हो‚ समान परंपराओं‚ समान हितों तथा समान भावनाओं से बंधा हो और जिसमें एकता के सूत्र में बंधने की उत्सुकता तथा समान राजनीतिक महत्वाकांक्षा पाई जाती हो। राष्ट्रवाद के निर्णायक तत्वों में राष्ट्रीयता की भावना सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। राष्ट्रीयता की भावना किसी राष्ट्र के लोगों में पाई जाने वाली एक ऐसी भावना है जो देश की अखण्ड़ता को सुदृढ़ करती है। वैदिक काल से ही मातृभूमि के प्रति प्रेम‚ राष्ट्रीय रक्षा और देश के प्रति समर्पण की भावना का उद्घोष “ माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः” में देखने को मिलता है। धरती हमारी मां है और हम सब इसकी संतान हैं। ऐसे में हमारा नैतिक धर्म अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए सर्वस्व समर्पित कर देने का बनता है।
किसी भी राष्ट्र और उसके वर्तमान संदर्भों को समझने के लिए इतिहास के साथ ही लोक एवं ग्रामीण क्षेत्र में मौजूद उन स्रोतों को भी खंगालने की जरूरत पड़ती है‚ जिन्हें कई बार इतिहासकार और अध्येता महत्वहीन मानकर छोड़ देते हैं। भारत में १८५७ के बाद राष्ट्रवाद की जो नई धारा निर्मित हुई उसके निर्माण में दासता से मुक्ति की चेतना दिखती है। भारतीय राष्ट्रवाद ब्रिटिश साम्राज्यवाद से संघर्ष करते हुए भारत के बृहत्तर सामाजिक समूहों की चेतना में मौजूद राष्ट्र–मुक्ति की आकांक्षा के लिए निर्मित और विकसित हुई थी। जब हम आधुनिक भारत के इतिहास को देखते हैं तो साफ पता चलता है कि भारतीय राष्ट्रवाद का निर्माण में १८५७ का पहला स्वतंत्रता संघर्ष ‚ १९०५ में हुआ बंगाल का विभाजन‚ १९१७ में गांधी जी द्वारा चंपारण में किसानों के लिए किया गया संघर्ष‚ भगत सिंह एवं सुभाष चंद्र बोस जैसे सेनानियों के क्रांतिकारी आंदोलनों के साथ ही १९४२ के भारत छोड़ो आंदोलन की बड़ी भूमिका रही है तथा इन ऐतिहासिक परिघटनाओं से आधुनिक एवं समकालीन भारत की पहचान भी बनी। दूसरी ओर दासता से मुक्ति की कामना को स्वराज से जोड़कर‚ बाल गंगाधर तिलक‚ गोपाल कृष्ण गोखले‚ लाला लाजपत राय‚ एवं महात्मा गांधी जैसे राष्ट्रवादी नेता अंग्रेज सरकार की दमनकारी नीतियों के खिलाफ खड़े होते हैं और स्वाधीनता आंदोलन के दौरान एक राष्ट्रीय समाज के वैकल्पिक गठन की तरफ संकेत भी करते हैं। कहा जा सकता है कि स्वाधीनता संग्राम भारतीय इतिहास का वह समय है जिसमें खण्ड़–खण्ड़ में बटी देशीय चेतना को बृहत्तर भारत से जोड़कर देखने की दृष्टि विकसित होती है‚ चाहे वह प्राकृतिक हो या समाज‚ साहित्य या संस्कृति‚ कला या दर्शन‚ जड़ हो या चेतन‚ ज्ञान हो या चिंतन। भारतीय नागरिकों में राष्ट्रवाद की भावना सर्वोपरि है और यही कारण है कि यहां के निवासी देश के राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रगान‚ जो देश की एकता और अखण्ड़ता के प्रतीक है‚ के प्रति संपूर्ण सम्मान का भाव रखते हैं।