उद्धव ठाकरे को अंतत: जाना ही था। वे जिस तरह अपने बागी विधायकों से निपटने की कोशिश कर रहे थे उसमें उनकी हार निश्चित थी। जब उन्हें राज्यपाल के एक दिन में बहुमत सिद्ध करने के निर्देश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट से राहत नहीं मिली तो उनके पास इस्तीफा देने के सिवा कोई चारा नहीं बचा था। ‘संख्याबल के खेल’से दूर रहने की बात कहते हुए उन्होंने विधानसभा का सामना किए बिना ही महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। इस सारे घटनाक्रम में घटी हर घटना बेहद काबिले गौर है। महाविकास अघाड़ी सरकार में ढाई साल तक कैबिनेट मंत्री रहने के बाद एकनाथ शिंदे बगावत का रुख अपनाते हुए लगभग 42 विधायकों के साथ सूरत और फिर गुवाहाटी पहुंच गए। उनकी प्रमुख मांग कांग्रेस और राकांपा से गठबंधन तोड़कर भाजपा के साथ फिर से गठबंधन करने की थी।
मान मनौवल और तल्खी जब काम न आई तो भावुकता का सहारा लेते हुए उद्धव ने मुख्यमंत्री निवास छोड़ दिया लेकिन इस्तीफा नहीं दिया। उधर शिंदे का काफिला बढ़ता ही गया। स्वास्थ्य लाभ के बाद अस्पताल से लौटते ही राज्यपाल ने उद्धव से बहुमत साबित करने को कह दिया। अदालत से उन्हें कोई राहत नहीं मिली। हारकर उन्होंने इस्तीफा दे दिया। उनके पास भावुकता का सहारा लेने के सिवा कोई अन्य उपाय नहीं था। क्योंकि उनके आगे अब पार्टी बचाने की बड़ी चुनौती है। शिवसेना के कैडर में आपसी संघर्ष के हालात टालने की कोशिश में उन्होंने वेबकास्ट के जरिए पार्टी के कार्यकर्ताओं से अपील की कि वे सड़क पर नहीं उतरें और बागी विधायकों को शांति से लौटने दें। इसके बाद वे राज्यपाल को इस्तीफा दे आए।
ठाकरे ने कहा, ‘शिवसेना और बाला साहेब ठाकरे की वजह से राजनीतिक रूप से आगे बढ़े बागियों को उनके (बालासाहेब) बेटे के मुख्यमंत्री पद से हटने पर खुश और संतुष्ट होने दें।’ मैं संख्याबल के खेल में शामिल नहीं होना चाहता हूं। बागियों की स्थिति को विकट होने से बचाने के लिए भाजपा ने शिंदे को ही सीएम पद के लिए समर्थन का फैसला कर लिया है। बागी 40 शिवसेना विधायकों के अलावा उन्हें साथ दे रहे 10 निर्दलीयों को भीे संतुष्ट करना है। इस लड़ाई की रोचकता ढाई साल बाद विधानसभा चुनाव के समय सामने आएगी। तब कौन किसके टिकट पर चुनाव लड़ेगा यह देखने वाली बात होगी। क्या एक और शिवसेना जन्म ले रही है?