इन दिनों अंग्रेजी चैनलों में दो शब्द अक्सर सुनाई पडते हैं। एक‚ ‘इस्लामोफोबिया’ यानी ‘इस्लाम से डर’ और दूसरा‚ ‘हिंदू फोबिया’ यानी ‘हिंदू धर्म से डर’। मनोविज्ञान में ‘फोबिया’ एक मानसिक रोग माना जाता है। किसी चीज से भय होना‚ उस चीज का ‘फोबिया’ होना है जैसे किसी को पानी से डर लगता है‚ किसी को उचाई से‚ किसी को तेज स्पीड से डर लगता है‚ किसी को खास रंग से‚ किसी को अंधेरे से डर लगता है‚ किसी को भीड़़ से‚ किसी को शोर से डर लगता है‚ किसी को हवाई यात्रा से‚ किसी को थाने‚ कचहरी या अस्पताल से डर लगता है‚ इत्यादि।
मनावैज्ञानिक मानते हैं कि सामान्य डर बढकर ‘फोबिया’ बन जाता है‚ जिसका कारण स्पष्ट नहीं होता लेकिन वह ‘होता’ है। डर का भाव हमें ‘सुरक्षा की मांग’ की ओर ले जाता है क्योंकि सुरक्षा मनुष्य मात्रका ‘मूल भाव’ है। कहने की जरूरत नहीं कि मीडिया संचालित आज की ‘उपभोक्ता संस्कृति’ भी यही करती है। ‘डर’ पैदा करती है‚ फिर उसे दूर करने का उपाय बताती है। ये ब्रांड़ लो ‘खिच खिच दूर करो’! उदाहरण के लिए हम ‘सिर दर्द‚ सरदी–जुकाम’ संबंधी विज्ञापनों को लें। ऐसा हर टीवी विज्ञापन पहले पूछता हैः सिर दर्द हैॽ आप कहते हैं हां भाई हां। तो वो कहता कुछ लेते क्यों नहींॽ और फिर हमें एक गोली पकडा देता है‚ और आखिरी सीन में हम खुश नजर आने लगते हैं। इसी तरह एक नये टूथेपस्ट का विज्ञापन देख सकते हैं‚ जो अक्सर दांतों की ‘झनझनाहट’ (मानो दांत न हों‚ पायल हों) के बारे में बताता हैः आदमी ठंडा खाता है तो दांतों में ‘झनझनाहट’ होती है। जैसे ही आप उस खास ब्रांड़ के पेस्ट से ब्रश करते हैं तो ‘झनझनाहट’ दूर हो जाती है। आप खुश हो जाते हैं।
कितना बढिया फॉरमूला हैः पहले डराओ‚ फिर डर को दूर करो और अपना उल्लू सीधा करो। अपनी राजनीति भी इन दिनों ऐसी ही ‘विज्ञापन कला’ का सहारा लेती है। यहां भी पहले ‘डर’ दिखाया जाता है। फिर उसे वोट लेकर ‘दूर’ किया जाता है। एक कहता है कि ‘वो’ आया तो यह कष्ट होगा‚ वो कष्ट होगा। बचाना है तो हमारा ‘ब्रांड़ विचार’ लो। दूसरा कहता है कि ‘उसे’ लाए तो ये होगा‚ वो होगा। इसलिए हमारा ‘ब्रांड़ विचार’ लो। पिछले दिनों मीडिया के जरिए नये–नये ‘फोबिया’ और नये–नये ‘ब्रांड़ विचार’ बेचे गए हैं। एक कहता हैः आपके सारे दुख इसलिए हैं कि अब तक वो आपको मालिक रहे हैं। उन्होंने गलत ये किया‚ वो गलत किया। वो परिवारवादी हैं‚ माइनोरिटीवादी हैं। हमी आपके सारे दुख–दर्द का इलाज हैं। दूसरा कहता हैःवो फासिस्ट है। निरंकुश है। बहुमतवादी हैं। ‘भारत के हमारे विचार’ को खत्म कर रहे हैं। हम ही ‘भारत के विचार’ के रखवाले हैं। जिस तरह विज्ञापन हमें हमारे डर को जगाकर और असुरक्षा की भावना बढाकर सुरक्षा के लिए किसी ब्रांड को थमा देता है‚ इसी तरह राजनीति भी हमें एक ने एक राजनीतिक दल रूपी ‘ब्रांड’ को थमा देती है। यही प्रक्रिया अब ‘इस्लामोफोबिया’ बरक्स ‘हिंदू फोबिया’ में बदल गई है। किसी भी चैनल की बहसों को देखें–सुनें‚ जो जनता को ‘पापूलर किस्म’ का ‘ज्ञानी’ बनाती हैं। यहां बहस करने आए ‘पेनलिस्ट’ अक्सर हिंदू–मुसलमानों की धार्मिक पदावली में बहस करते हैं। हरेक ‘दूसरे’ को अपने ‘अन्य’ या ‘पराए’ की तरह पेश करता है‚ और अपने–अपने धर्मावलंबियों को सीधे संबोधित करता है‚ यह सब ‘दूसरे से डर’ को दिखा कर किया जाता है।
यह ‘डर’ ही ‘फोबिया’ है। इसका अगला चरण ‘गुस्सा’‚ ‘बदला’ और ‘हिंसा’ है और अपने जैसों के वर्चस्व को स्थापित करना है। वर्चस्व स्थापित करने के लिए सत्ता लेनी है। सत्ता लेने के लिए ‘दूसरे से डर’ का ब्रांड बेचना है। और सत्ता में रहने का मतलब ‘डर’ को दूर करना नहीं बल्कि उसे बनाए रखना है क्योंकि जब तक ‘डर’ है‚ तब तक ‘सत्ता’ है।
यही फोबिया की राजनीति हैः एक कहता है कि ‘इस्लामोफोबिया’ फैलाया जा रहा है। इस्लाम को ‘खतरनाक’ बताया जा रहा है। उधर दूसरा कहता है कि ‘हिंदू फोबिया’ फैलाया जा रहा है‚ ‘हिंदू धर्म को खतरनाक’ बताया जा रहा है। एक ओर एक धर्म अपने अनुयायियों को संगठित कर रहा है‚ तो दूसरा दूसरे धर्मावलंबियों को संगठित कर रहा है‚ और इसीलिए समाज में इतनी असहिष्णुता और घृणा है। जिससे हम डरते हैं‚ उससे घृणा करते हैं‚ उसे हटा देना चाहते हैं ताकि हम निडर हो सकें। लेकिन जिस तरह कोई भी ‘ब्रांड़’ कभी किसी को ‘तृप्त’ नहीं करता‚ उसी तरह ‘ब्रांड राजनीति’ भी किसी को तृप्त नहीं करती। अगर हम तृप्त हो गए तो उस ब्रांड को दोबारा क्यों खरीदेंगेॽ ब्रांड़ का बाजार कैसे चलेगाॽ