सैन्य शासित म्यांमार की एक अदालत ने देश की पूर्व नेता आंग सान सू ची को भ्रष्टाचार के मामले में दोषी ठहराते हुए पांच साल जेल की सजा सुनाई है। सेना द्वारा पिछले साल फरवरी में तख्तापलट के बाद सत्ता से बाहर कर दी गइ सू ची ने इन आरोपों को खारिज कर दिया था कि उनके एक शीर्ष राजनीतिक सहकर्मी ने घूस के तौर पर सोना और हजारों डॉलर लिए थे। उन्हें अन्य मामलों में पहले ही छह साल की कैद की सजा सुनाई जा चुकी है और अभी सू ची के खिलाफ भ्रष्टाचार के १० और आरोप लगे हैं। इस अपराध के तहत अधिकतम १५ साल की सजा और जुर्माने का प्रावधान है। अन्य मामलों में भी दोषी ठहराए जाने पर उन्हें कुल १०० साल से अधिक समय की जेल की सजा हो सकती है। नोबेल शांति पुरस्कार विजेता सू ची सैन्य शासन की अवहेलना करने के लिए पहले ही कई वर्ष नजरबंदी में बिता चुकी हैं।
एक फरवरी‚ २०२१ को म्यांमार की सेना ने आंग सान सू ची सरकार का तख्तापलट कर देश की बागडोर अपने हाथों में ले ली थी और सू ची तथा म्यांमार के कई बड़े नेताओं को हिरासत में ले लिया था। सू ची की पार्टी ने पिछले आम चुनाव में भारी जीत हासिल की थी‚ लेकिन सेना ने चुनाव में व्यापक पैमाने की धांधली का आरोप लगाकर सत्ता पर कब्जा कर लिया था। आशंका जताई जा रही है कि आंग सान सू ची को मिली नई सजा से म्यांमार में हिंसा व दमन की कार्रवाई तेजी से बढ़ेगी। साल १९८८ का विद्रोह आधुनिक म्यांमार के इतिहास का निर्णायक क्षण था। सैनिक शासन ने देश की अर्थव्यवस्था को जिस तरह से तहस–नहस किया था उसके खिलाफ जनता का गुस्सा फूट पड़ा था। जनरल विन ने साल १९६२ के तख्तापलट में सत्ता पर कब्जा कर लिया था। म्यांमार की सेना को तामदौ कहा जाता है। सेना का मानना था नागरिक शासन में देश को एकजुट रखने की क्षमता नहीं है। जनरल ने विन ने बर्मा का संपर्क बाकी दुनिया से पूरी तरह से काट दिया था। उस दौरान शीतयुद्ध की वजह से एशिया दो खेमों में बंट चुका था। लेकिन जनरल ने इसका हिस्सा बनने से इनकार कर दिया। इसकी बजाय उन्होंने सनक भरे फैसले लेने वाली एक पार्टी वाली व्यवस्था शुरू की। पार्टी पर सेना का वर्चस्व था। जल्द ही विन की बर्मा सोशलिस्ट प्रोग्राम पार्टी के फैसलों की वजह से बर्मा दुनिया के सबसे गरीब देशों में शामिल हो गया। साल १९८८ के अगस्त और सितम्बर में बर्मा का राजनीतिक आंदोलन चरम पर पहुंच गया था। साल १९८७ में विन ने अचानक देश में नोटबंदी कर दी थी। बैंकों में जमा नोट डी–मोनेटाइजेशन के दायरे में आ गए थे। बर्मा की अर्थव्यवस्था पर इसके विनाशकारी असर हुए। पिछले साल सैन्य तख्तापलट ने लोगों को झकझोर कर रख दिया है। फिर भी नागरिकों के आंदोलन को कुचलने के लिए सेना की हिंसा अभी १९८८ के स्तर पर नहीं पहुंची है।
लेकिन स्थिति की नाजुकता का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि जो लोग सेना का विरोध करते हैं‚ और लोकतांत्रिक आंदोलनों में शामिल होते हैं‚ उनके साथ उनके रिश्तेदारों और सहयोगियों की या तो हत्या कर दी जाती है या फिर हिरासत में ले लिया जाता है। कई बार उन्हें लापता कर दिया जाता है‚ उनके घरों पर रात में छापेमारी की जाती है‚ सुरक्षा बल यौन और लिंग आधारित हिंसा से भी गुरेज नहीं करते। छात्र और शिक्षा कर्मचारी दमन का प्राथमिक लक्ष्य रहे हैं। म्यांमार की सेना विरोधियों के दमन के लिए गांवों पर छापा मार रही है‚ घरों में आग लगा रही है और लोगों की हत्याएं भी कर रही है। आम जनता की परेशानियों को दरकिनार कर चीन और रूस म्यांमार को हथियारों की आपूर्ति कराने वाले देशों में शीर्ष पर हैं। ये दोनों देश सुरक्षा परिषद के सदस्य हैं‚ और हथियारों की आपूर्ति पर प्रतिबंध लगाने के संयुक्त राष्ट्र के किसी भी प्रयास को विफल करने में जुटे रहते हैं।
म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों की समस्या गंभीर समस्या है। चुनाव में अल्पसंख्यक रोहिंग्या को मताधिकार से वंचित रखा गया था। तख्तापलट करने वाले सेना प्रमुख जनरल मिन आंग ह्लाइंग अपनी क्रूरता के लिए पूरी दुनिया में कुख्यात हैं। २०१२ में रखाइन प्रांत में गृह युद्ध जैसे हालात बन गए। सेना पर रोहिंग्याओं के अत्याचार के आरोप लगे। म्यांमार की सेना ने अगस्त २०१७ में रखाइन प्रांत में खूनी अभियान चलाया था और इसमें हजारों रोहिंग्या मुस्लिम मारे गए थे। पांच लाख रोहिंग्या मुस्लिमों को देश छोड़कर पड़ोसी बांग्लादेश और अन्य देशों में भागना पड़ा था। रखाइन प्रांत में हालात संभालने के लिए सरकार कोई ठोस कदम उठा नहीं पाई। इसका फायदा सेना को मिला और वह सरकार के मुकाबले मजबूत होती गई। रोहिंग्या मुस्लिमों पर अत्याचार के दौरान नोबेल पुरस्कार विजेता आंग सांग सू की ने चुप्पी साधे रखी‚ जिससे उनकी दुनियाभर में आलोचना हुई थी।
लगातार हो रही रोहिंग्या मुसलमानों की हत्या और उनके खिलाफ हो रही हिंसा को रोकने के लिए आर्कबिशप डेसमंड टूटू से लेकर नोबेल पुरस्कार विजेता मलाला यूसुफजई तक आंग सान सू ची से अपील करते रहे। लेकिन शांति की अपीलों को दरकिनार करते हुए पूरे मामले पर सू ची ने बड़े ही रहस्यमय ढंग से चुप्पी साध रखी। रोहिंग्या के मामले पर सू ची अपने पिता आंग सान जैसा रवैया ही अपनाती दिखीं। दूसरे विश्व युद्ध के समय रखाइन प्रांत दक्षिण पूर्व एशिया में चल रही लड़ाई के दौरान सबसे आगे था। रोहिंग्या समुदाय के लोगों ने ब्रिटेन और उसके सहयोगियों की तरफ से जापानी फौजों को टक्कर दी। रखाइन प्रांत में बर्मी समुदाय और रखाइन के बौद्धों ने लड़ाई में जापान का साथ दिया। १९४२ से १९४३ के बीच दोनों तरफ से काफी लोगों की जानें गइ। म्यांमार के सैन्य शासक पर दुनियाभर के देश अगर दवाब बनाने में नाकाम रहते हैं‚ तो वहां भयंकर जानमाल का नुकसान उठाना पड़ सकता है। संयुक्त राष्ट्र से लेकर सभी मानवधिकार संगठन इस मामले में बेहतर पहल कर सकते हैं।