गैर भाजपा शासित राज्यों और केंद्र में सब कुछ सही नहीं चल रहा। इसका अहसास तमिलनाडु सरकार के उस कदम से होता है जिसके तहत उसने खुद को केंद्र के नियंत्रण से दूर रखना चाहा है।
ऐसे ही एक मामले में तमिलनाडु विधानसभा ने प्रदेश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति का अधिकार राज्यपाल की बजाय राज्य सरकार को देने के प्रावधान वाले एक विधेयक को मंजूरी दे दी। इसे सीधे तौर पर राज्यपाल की शक्तियां कम करने की दिशा में उठाया गया कदम माना जा सकता है। इसके पीछे केंद्र-राज्य संबंधों से जुड़े पुंछी आयोग की रिपोर्ट का हवाला दिया गया है। आयोग ने राय दी थी कि शीर्ष शिक्षाविद को चुनने का प्राधिकार राज्यपाल के पास रहता है तो कार्यों और शक्तियों का टकराव होगा। राज्यपाल, राज्य में 13 विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति हैं और उच्च शिक्षा मंत्री उप कुलाधिपति हैं।
राज्य के उच्च शिक्षा मंत्री के. पोनमुडी ने संबंधित विधेयक पेश किया। मुख्यमंत्री एमके स्टालिन का कहना था कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के गृह-राज्य गुजरात में भी कुलपतियों की नियुक्ति राज्यपाल नहीं करते, बल्कि राज्य सरकार करती है। तेलंगाना और कर्नाटक सहित कई अन्य राज्यों में भी ऐसा ही होता है। महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे नीत महा विकास अघाड़ी (एमवीए) सरकार ने भी पिछले साल दिसम्बर में ऐसा ही कदम उठाया था। आरोप है कि राज्यपाल पूर्व में कुलपतियों का चयन करने से पहले राज्य सरकार से परामर्श करते थे, लेकिन कुछ वर्षो से ऐसा नहीं किया जा रहा है।
गुजरात, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में राज्य संचालित विश्वविद्यालयों के कुलपति सीधे मुख्यमंत्री नियुक्त करते हैं, राज्यपाल नहीं। इन राज्यों की विधानसभाओं में इस संबंध में प्रस्ताव पारित किए जा चुके हैं। ऐसा है तो तमिलनाडु में भी यही व्यवस्था क्यों नहीं अपनाई जानी चाहिए? मुख्यमंत्री, जो जनता द्वारा लोकतांत्रिक रूप से चुने गए हैं, को राज्य सरकार के विश्वविद्यालयों के लिए सीधे कुलपति की नियुक्ति क्यों न करने दें।
गुजरात और तेलंगाना के विवि अधिनियमों के अनुसार संबंधित राज्य सरकारों को विश्वविद्यालय के कुलपति की नियुक्ति का अधिकार है। पहले सीबीआई के राज्यों में बिना अनुमति जांच पर तनातनी और अब कुलपतियों की नियुक्ति का मामला। राज्य हाथ छुड़ा रहे हैं, केंद्र को विचार करना चाहिए।