देश में पहला लोक सभा चुनाव 1951-52 में हुआ था। पं. जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस को कुल 364 सीटों पर जीत मिली थी। तब कुल सीटों की संख्या 489 थी। वोट प्रतिशत के हिसाब से 45 फीसदी वोट हासिल हुए थे। यह कांग्रेस के लिए बेहतरीन शुरुआत थी। 1957 में जब दूसरी बार लोक सभा चुनाव हुए तब कांग्रेस ने और बेहतर प्रदशर्न किया। हुआ यह कि उसने 494 लोक सभा सीटों में से 371 सीटें जीतीं और वोटों का प्रतिशत भी 45 फीसद से बढ़कर 47 फीसद हो गया। परंतु, 1962 में जब तीसरा लोक सभा चुनाव हुआ तब कांग्रेस को मामूली ही सही, लेकिन चुनौती मिली और उसकी सीटें 371 से घटकर 361 हो गई। चौथा लोक सभा चुनाव जब 1967 में हुआ तब कांग्रेस की बागडोर इंदिरा गांधी के हाथ में आ चुकी थी। पं. नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री के निधनोपरांत तब कांग्रेस के अंदरखाने में विरोध भी शुरू हो चुका था। लेकिन कांग्रेस तब भी मजबूत स्थिति में रही। हालांकि उसकी सीटों में 70 सीटों की कमी आई। यह वह लोक सभा चुनाव था जब लोक सभा में कुल सीटों की संख्या 543 हो गई थी। कांग्रेस के हिस्से में 283 सीटें थीं।
लेकिन 1971 का चुनाव तब हुआ जब पूर्वी पाकिस्तान बांग्लादेश बन चुका था और इसका सारा श्रेय इंदिरा गांधी को गया। कांग्रेस के पक्ष में जबरदस्त परिणाम सामने आया। इसके बावजूद कि कांग्रेस के अंदर ही एक और खेमा स्वतंत्र अस्तित्व कायम कर चुका था। फिर भी कांग्रेस को 352 सीटें मिलीं जबकि उससे स्वतंत्र हुए कांग्रेसी खेमे को 16 सीटें। इसके बाद का इतिहास आपातकाल का इतिहास है, जिसने कांग्रेस को आसमान से सीधे जमीन पर फेंक दिया। देश की जनता ने कांग्रेस को नकार दिया था और उसके हिस्से में केवल 154 सीटें आई जबकि जनता पार्टी को 295 सीटें प्राप्त हुई। इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने फिर से 1980 के लोक सभा चुनाव में अपना पुराना रुतबा हासिल किया और उसे 353 सीटें प्राप्त हुई। कांग्रेस के लिहाज से यह लाजवाब प्रदशर्न था परंतु इससे भी अधिक बेहतर प्रदशर्न उसने 1984 में किया।
हालांकि यह इंदिरा गांधी की हत्या के बाद का चुनाव था और कांग्रेस सहानुभूति के जहाज पर सवार थी। उसे 543 में से 426 सीटों पर जीत हासिल हुई। लेकिन यह आखिरी बेहतर प्रदशर्न था कांग्रेस का। 1989 में जब लोक सभा चुनाव हुए तब लोक सभा में उसके केवल 197 सांसद पहुंच सके। हालांकि 1991 के मध्यावधि चुनाव में कांग्रेस भले ही 244 सीटें जीतकर सत्ता में वापस आई लेकिन अब तक कांग्रेस भारतीय राजनीति में एकाधिकार रखने वाली पार्टी की हैसियत पूरी तरह खो चुकी थी। हालांकि 2004 और 2009 में कांग्रेस भले ही गठबंधनों के जरिए सत्ता पाने में सफल रही लेकिन कांग्रेस बिखरती भी जा रही थी।
फिर आया 2014 का लोक सभा चुनाव और इस चुनाव में भाजपा ने कांग्रेस को पूरी तरह चित्त कर दिया। तब से लेकर आज तक कांग्रेस इसी प्रयास में है कि वह अपने पुराने दिनों की तरह हैसियत कैसे हासिल करेगी। इस दौरान कांग्रेस की ओर से राहुल गांधी को युवा नेता के रूप में पेश किया गया लेकिन वे यूपीए-1 और यूपीए-2 के दौरान बेहद अपरिपक्व नेता के रूप में सामने आए। उन्हें अहंकारी नेता के रूप में भी देखा गया जिन्होंने डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में बनी सरकार में मंत्री बनने तक से इंकार कर दिया था।
अब कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी फिर से प्रयासरत हैं, और इस बार उनकी चुनौती केवल यह नहीं है कि राहुल गांधी आज तक खुद को सक्षम नेता साबित करने में नाकाम रहे हैं, बल्कि उनकी बड़ी चुनौती यह रही है कि भाजपा ने भारतीय राजनीति के चरित्र को पूरी तरह बदलकर रख दिया है। हिंदुत्व के जरिए उसने ऐसी रणनीतियां बना रखी हैं कि कांग्रेस के लिए मुश्किलें कम होने की बजाय बढ़ती ही जा रही हैं। सोशल इंजीनियरिंग यानी वंचित तबकों की भागीदारी का मसला भी उसके लिए बड़ा मसला है। कांग्रेस का अपना आधार वोटर, जो भारतीय समाज की उच्च जातियों से संबंध रखता था, अब पूरी तरह से भाजपा के पाले में शिफ्ट कर चुका है। इस प्रकार कांग्रेस के लिए चुनौतियों अनेक हैं, और वह समाधान के लिए हाथ-पांव मार रही है। समाज का एक हिस्सा कांग्रेस के लिए सहानुभूति रखता है, और महसूस करता है कि कांग्रेस के कमजोर पड़ने से देश में कट्टरवाद बढ़ा है। यह तबका देश हित में कांग्रेस की मजबूती का पक्षधर है।
बहरहाल, राजनीतिक समीकरण पूरी तरह से स्थायी नहीं होते। यह कांग्रेस के इतिहास को देखकर कहा जा सकता है। सोनिया गांधी अगर इन दिनों प्रशांत किशोर जैसे रणनीतिकारों को लेकर सक्रिय हुई तो निस्संदेह यह तय है कि उन्होंने हार नहीं मानी है। इसके अलावा, उन्होंने अपने दल के दलित और ओबीसी नेताओं को खास तवज्जो देना भी आरंभ किया है। माना जा रहा है कि आने वाले समय में कांग्रेस के संगठन में आमूल चूल परिवर्तन देखने को मिलेंगे। अनुमान तो यह भी लगाया जा रहा है कि इस बार सोनिया गांधी नरेन्द्र मोदी के मुकाबले में किसी कद्दावर ओबीसी नेता को पार्टी का चेहरा बनाएंगी। लेकिन वह चेहरा कौन होगा और फिर राहुल गांधी की भूमिका क्या होगी, इस बारे में अभी केवल कयासबाजी ही लगाई जा सकती है।
इन सबके बावजूद देखना दिलचस्प होगा कि 2024 के लोक सभा चुनाव में सोनिया गांधी नरेन्द्र मोदी को किस तरह की चुनौती दे पाती हैं। फिलहाल तो उनके सामने ‘करो या मरो’ की ही स्थिति है।