चीन के विदेश मंत्री वांग यी की अप्रत्याशित भारत यात्रा से दोनों देशों के संबंध पटरी पर वापस लौट रहे हैं। भारत ने इस संबंध में सतर्कतापूर्ण टिप्पणी की है‚ जबकि चीन की ओर से एशिया और पूरी दुनिया में भारत और चीन की सामूहिक शक्ति का गुणगान किया जा रहा है। यह विडंबना है कि भारत और चीन के सहयोग से ‘एशियाई सपने’ को साकार करने का विचार कुछ वर्ष पूर्व प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ओर से रखा गया था। प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी चीन यात्रा के दौरान कहा था कि भारत और चीन मिलकर एक और एक दो नहीं‚ बल्कि ११ होते हैं। पश्चिमी प्रभुत्व के खिलाफ एशिया के अभ्युदय के सपने पर चीन के नेतृत्व ने पानी फेर दिया। हो सकता है कि चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) ने अपनी ओर से बढ़–चढ़कर लद्दाख में दुस्साहस किया था। यदि पीएलए ने चीन के नेतृत्व के निर्देश पर लद्दाख में सैन्य अतिक्रमण किया था तो यह कहा जा सकता है कि राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने बड़़ी भू–रणनीतिक गलती की थी। चीन के नेताओं को शायद अब अपनी गलती का अहसास हो रहा हो‚ लेकिन यही कारण है कि भारत चीन के ह्रदय परिवर्तन पर संदेह कर रहा है। चीन अपनी नेकनीयत तभी साबित कर सकता है जब लद्दाख में टकराव के सभी क्षेत्रों से वह अपने अग्रिम सभी सैन्य टुकडि़़यों को जल्द हटाए। साथ ही वह भारत के सुझाव के अनुसार सीमावर्ती क्षेत्रों में सेना की तैनाती में भी कटौती करे।
भारत–चीन संबंधों के पटरी पर लौटने के ये हालात यूक्रेन के संघर्ष के बाद बने। यूक्रेन संकट को लेकर भारत ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद और आम सभा में तटस्थ रवैया अपनाया। अमेरिका और उसके सहयोगी देशों के भारी दबाव की परवाह न करते हुए भारत ने रूस की आलोचना या दोषारोपण नहीं किया। इन विश्व संस्थाओं में मतदान में भाग नहीं लेकर जता दिया कि वह राष्ट्रीय हितों के अनुरूप फैसले करता है। रूस के साथ संबंध भारत के लिए जीवन–मरण का प्रश्न है। भारत और रूस की दोस्ती और सहयोग टूटने से भारत की रक्षा प्रणाली पंगु बन सकती है। इतना ही नहीं पूरी विदेश नीति ही लड़खड़ा जाएगी। वांग यी और जयशंकर के बीच ३ घंटे तक चली वार्ता का पूरा ब्योरा सार्वजनिक नहीं हुआ है‚ लेकिन यह अनुमान लगाया जा सकता है कि संबंधों को सामान्य बनाने के लिए निश्चित समझदारी बनी है तथा इस दिशा में विभिन्न उपायों पर सहमति बनी है‚ लेकिन भारत इस प्रकरण में सतर्कता बरत रहा है। जैसे–जैसे जमीनी स्तर पर बदलाव होगा; वैसे–वैसे भारत की ओर से स्पष्ट रूप से बयान दिए जाएंगे।
फिलहाल‚ विदेश मंत्री जयशंकर ने कहा है ‘काम प्रगति पर है।’ जयशंकर ने वांग यी को यह भी बताया है कि सैनिकों की भारी तैनाती से यथास्थिति पर असर पड़ता है तथा सीमा पर हालात बिगड़ते हैं। जब सीमा पर हालात बिगड़़ते हैं तो इससे समग्र द्विपक्षीय संबंधों पर प्रतिकूल असर पड़़ता है। दूसरी ओर‚ चीन का तर्क है कि सीमा विवाद को व्यापक द्विपक्षीय संबंधों के रास्ते में बाधा नहीं बनने दिया जाए। भारत इस तर्क को स्वीकार नहीं कर सकता। हालांकि जमीनी स्थिति यह है कि लद्दाख में सैन्य तैनाती के बावजूद दोनों देशों के व्यापारिक संबंध रिकॉर्ड़ स्तर पर हैं। कोरोना के बावजूद भारत की अर्थव्यवस्था यदि फिर से गति पकड़़ रही है‚ तो इसमें भारत और चीन के व्यापारिक संबंधों की बड़़ी भूमिका है। जयशंकर ने वांग यी से बाजार को भारतीय उत्पादों के लिए और अनुकूल बनाने की मांग की है।
दोनों नेताओं की वार्ता के बाद चीन की ओर से जारी वक्तव्य आश्चर्यजनक था क्योंकि यह बहुत आशाजनक और उदारवादी है। इसमें कहा गया है कि चीन एशिया में अपना वर्चस्व नहीं चाहता। चीन अपने प्रभुत्व एवं एकध्रुवीय एशिया के पक्ष में नहीं है। चीन ने एशिया में भारत की भूमिका को भी स्वीकारा है। बहुध्रुवीय एशिया के विचार पर चीन ईमानदारी से अमल करे तो एशिया के बहुत से विवादों का स्वतः समाधान हो जाएगा। फिलहाल‚ यह कहा जा सकता है कि वांग यी की भारत यात्रा से प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति जिनपिंग के बीच वार्ता की जमीन तैयार हुई है। चीन इस वर्ष ब्रिक्स शिखर वार्ता की मेजबानी करेगा। इसमें मोदी को भी भाग लेना है। एशिया की इन दो महाशक्तियों के नेताओं के सामने अवसर होगा कि वे वुहान और महाबलीपुरम की भावना को पुनर्जीवित करें।