प्रजातांत्रिक व्यवस्था को अर्थपूर्ण और प्रभावशाली बनाने के लिए उसमें महिलाओं का समान प्रतिनिधित्व बेहद जरूरी है। तभी जनवादी प्रणालियां स्वस्थ्य और चिरायु होंगी। हाल में ही एक बड़े आकार वाले राज्य में विधानसभा चुनाव समाप्त हुए हैं। परिणाम को आधार बनाकर मंत्रिमंडलीय गठन की प्रक्रिया भी समयानुसार पूरी कर ली गई है‚ लेकिन उसमें मंत्रिमंडलीय स्तर पर महिलाओं की उपस्थिति निराशा पैदा करती है।
उम्मीद थी कि इस बार ढर्रे के विपरीत सत्ता में महिलाओं की भागीदारी बढ़ेगी‚ संतुलन सधेगा पर कुछ ऐसा होता प्रतीत नहीं होता। कुछेक राज्य मंत्री और स्वतंत्र प्रभार के साथ महिलाओं को साधने की कोशिश तो जरूर की गई। पर कैबिनेट के बंद दरवाजे ने इस संतुलन को लगभग बिगाड़ दिया। कैबिनेट में महज एक‚ स्वतंत्र प्रभार एक और राज्य प्रभार वाले तीन महिला मंत्रियों की संख्या से छद्म समानता दिखाने की कोशिश की गई। सभी दलों द्वारा सत्ता में महिलाओं की समान भागीदारी के दावे खोखले नजर आए। हैरानी है कि २१वीं सदी के उत्तरार्द्ध में भी महिलाएं सत्ता के नेपथ्य में हैं। केंद्र की धुरी बनने के लिए उन्हें अब भी संघर्ष करना पड़ रहा है। हमारे देश की संसदीय कार्यप्रणाली में समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर चलने और उन्हें समान अवसर देने की बात बार–बार दोहराई गई है। देश की आधी आबादी को न्यायपालिका‚ कार्यपालिका और विधायिका में समान अवसर और एक समान प्रतिनिधित्व मिले इसकी भी समय–समय पर अनुशंसा की जाती रही है। हालांकि राजनैतिक उदासीनता के चलते इस तरह की कोशिश अब तक सिफर रही है। आंकड़ों से पता चलता है कि किसी भी विधानसभा और लोक सभा में चुनी हुई महिलाओं की संख्या १५ प्रतिशत से अधिक नहीं रही है। मतलब साफ है कि महिलाओं को उनके प्रजातांत्रिक अधिकार और प्रतिनिधित्व के अधिकार से जानबूझकर दूर रखा जा रहा है। साल १९९६ में विधानसभा और लोक सभा में महिलाओं के लिए ३३ फीसद आरक्षण सुनिश्चित करने के लिए पहली बार लोक सभा में विधेयक प्रस्तुत किया गया था‚ लेकिन तब से लेकर आज तक उसे पारित नहीं किया जा सका है। इसके पीछे पुरु ष प्रधान मानसिकता साफ दिखती है। अलबत्ता‚ एक सवाल यह भी है कि क्या कुछेक कैबिनेट सीटें देने मात्र से समाज की आधी आबादी का समेकित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हो जाता है। पार्टियों में अभी भी महिलाओं की दावेदारी प्रबल नहीं दिखती।
उन्हें नेतृत्व की मुख्यधारा से जोड़ना न केवल समीचीन होगा अपितु प्रजातांत्रिक मूल्यों को मजबूत करने के लिहाज से भी महत्वपूर्ण होगा। दरअसल‚ कोई भी दल‚ समाज या जनतांत्रिक व्यवस्था तब तक सुढ़ नहीं होगी जब तक उसमें महिलाओं की संतुलित भागीदारी न हो। हालांकि पंचायतों‚ नगरपालिकाओं और नगर निगमों में महिलाओं की यह भागीदारी तो दिखती है‚ लेकिन इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता। देश की आधी आबादी बहुत हद तक विधानसभाओं और लोक सभा से अवश्य है। मतलब साफ है कि प्रजातांत्रिक प्रणाली में रिसाव है‚ जिसे तत्काल प्रभाव से रोकना जरूरी है। उन्हें सत्ता की धुरी बनाकर उनकी रचनात्मकता‚ कौशल और बौद्धिक विस्तार का भरपूर इस्तेमाल किया का सकता है। नेपथ्य में धकेलने की बजाय अगर उन्हें अग्रिम पंक्ति में खड़ा किया जाए तो राष्ट्र की तकदीर और तस्वीर‚ दोनों बदल सकती हैं।