हाल ही में संपन्न हुए विधानसभा चुनावों के नतीजों के घोषित होने के ठीक एक दिन पहले दिल्ली के नगर निगमों के चुनाव टालने की घोषणा कर दी गई। चुनाव के लिए सीटों के परिसीमन आदि का काम पूरा करने के बाद दिल्ली के मुख्य चुनाव आयुक्त संजय कुमार श्रीवास्तव ने संवाददाता सम्मेलन में मतदान की तारीख घोषित करने के बजाए बताया कि अभी ही केंद्र सरकार से चुनाव की घोषणा न करने का संदेश मिला है। शायद केंद्र सरकार तीन नगर निगमों को एक करना चाहती है। दूसरे ही दिन चुनाव नतीजे आते ही दिल्ली सरकार में पिछले सात साल से शासन कर रही आम आदमी पार्टी (आप) के मुखिया और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने आरोप लगाया कि केंद्र की भाजपा सरकार हार के डर से निगम चुनाव को टाल रही है।
यह तय सा हो गया कि दिल्ली नगर निगमों के चुनाव में मुकाबला भाजपा और आप में ही होना है। भाजपा लगातार १५ साल से निगम में काबिज है। इस बार आप ने काफी पहले से निगम चुनाव की तैयारी शुरू कर दी थी। चुनाव टलने से दिल्ली की मौजूदा शासन व्यवस्था में ठोस सुधार करने का अवसर मिला है। राजनीति चाहे जो हो‚ लेकिन दिल्ली और दिल्लीवालों के लिए यह अवसर है। जिस तरह से चुनाव घोषण आखिरी समय टाला गया‚ उससे तो यही संकेत मिल रहे हैं कि चुनाव अब काफी देरी से होंगे और तब संभव है कि निगम का एक और स्वरूप बना दिया जाए। केवल तीन निगम को एक निगम करने के अलावा संभव है कुछ निगम के अधिकार बढ़ाए जाएं। यह भी संभव है कि चुनाव से पहले निगम की बदहाली दूर करने के लिए कोई ठोस कदम उठाए जाएं। दिल्ली के ८७ फीसद इलाकों में दिल्ली सरकार के समानांतर दिल्ली की नगर निगमों की सत्ता चलती है। दिल्ली में विधान सभा बनने से पहले निगम के पास ही दिल्ली की असली सत्ता थी‚ बाद में पहले बिजली‚ फिर पानी‚ फिर फायर सर्विस‚ होमगार्ड‚ फिर सीवर‚ बड़ी सड़कें आदि अपने अधीन करके दिल्ली सरकार ताकतवर बनी। बावजूद इसके आज भी गृह कर‚ लाइसेंस‚ प्राथमिक स्वास्थ्य समेत कुछ बड़े अस्पताल‚ प्राथमिक स्कूल‚ पार्क‚ पार्किंग आदि निगमों के अधीन हैं। तीन निगमों में से दो (पूर्वी और उत्तरी) अपने खर्चे का बोझ नहीं उठा पा रही हैं। दिल्ली में आप के ताकतवर होने से पहले कांग्रेस और भाजपा (पहले जनसंघ‚ फिर जनता पार्टी) दो ही पार्टी दिल्ली में ताकतवर होती थी। केंद्र में ज्यादातर शासन कांग्रेस का होता था इसलिए दिल्ली को राज्य बनाने और बाद में दिल्ली को पूर्ण राज्य बनाने का आंदोलन भाजपा चलाती थी। कांग्रेस ने तो पहली बार दिल्ली में शीला दीक्षित की सरकार बनने पर यह मुद्दा उठाया। तब केंद्र सरकार ने दो परिपत्र जारी करवाकर दिल्ली सरकार के अधिकारों में कटौती करवा दी थी। शीला दीक्षित ने इसका विरोध किया‚ लेकिन केंद्र सरकार ने उसमें कोई बदलाव नहीं किया। अलबत्ता भाजपा अपने वायदे के अनुरूप अपनी सरकार के आखिरी दिनों में दिल्ली राज्य विधेयक‚ २००३ ले आई। उस बिल में नई दिल्ली नगर पालिका परिषद (एनडीएमसी) इलाके को छोड़ कर बाकी दिल्ली को पूर्ण राज्य बनाने का प्रस्ताव था। दीक्षित ने दिल्ली सरकार के अधिकार बढ़ाने के लिए कम प्रयास नहीं किए बल्कि जब उन्हें लगा कि दिल्ली पूर्ण राज्य बन ही नहीं सकती तो उन्होंने जमीन यानी डीडीए (दिल्ली विकास प्राधिकरण) और दिल्ली पुलिस को तीन हिस्सों में करके थाने की पुलिस और यातायात पुलिस को दिल्ली सरकार के अधीन करवाने का प्रयास किया। उनका मानना था कि वीआईपी सुरक्षा में लगी पुलिस केंद्र सरकार के अधीन रहे। शीला दीक्षित का यह फार्मूला भी उनकी पार्टी की केंद्र सरकार ने नहीं आगे बढ़ने दिया। तब उन्होंने नगर निगम को पूरी तरह से दिल्ली सरकार के अधीन करने की मुहिम चलाई। उसमें उन्हें आंशिक सफलता ही मिली। दिल्ली की साफ–सफाई आदि के लिए दिल्ली के वित्त आयोग की सिफारिशों के आधार पर दिल्ली सरकार निगमों को पैसा देती है। यह विवाद हर समय रहा है। दिल्ली सरकार कहती है कि उसे केंद्र सरकार उसके हिस्से का पूरा पैसा नहीं देती और निगमों की शिकायत रहती है कि दिल्ली सरकार उसके हिस्से का पूरा पैसा नहीं देती। दिल्ली सरकार कहती है कि निगम में भ्रष्टाचार के चलते घाटा है सरकार तो पूरा पैसा दे रही है।
नगर निगम में सुधार के नाम पर ही एक बार पहले भी १४ साल चुनाव टाले गए। १९८३ में पुराने विधान के हिसाब से चुनाव हुए थे। तब कांग्रेस चुनाव जीती थी। उसे १९९० तक विस्तार देकर भंग किया गया। स्थानीय निकायों और ग्राम पंचायतों के लिए संसद में हुए ७३ वें और ७४ वें संशोधनों के बाद नये विधान से १९९७ में चुनाव हुए। फिर २०१२ में तीन निगम बने। अब उसे फिर से एक करने की चर्चा हो रही है। संभव है केंद्र सरकार निगम के नये स्वरूप के लिए कोई समिति बना दे। उस समिति की सिफारिशों के आधार पर निगम के अधिकार बढ़ा दिए जाएं। एक बार चुनाव टालने के बाद केवल तीन निगम को एक करके महीने भर बाद चुनाव करवाने से तो आप पूरी तरह से हमलावर होकर भाजपा का सफाया ही कर देगी। मई तक निगमों का कार्यकाल है। संभव है उसके बाद उसे पुनर्गठन के नाम पर भंग करके निगम में नई शासन व्यवस्था बनाई जाए। इसकी दिल्ली को जरूरत भी है।