- ‘स्पीकर’ महोदय ने कहा…
- विधानसभा में ‘बहुमत’ जरूरी है।
- उस प्रत्याशी की अब ‘जमानत जब्त’ होगी।
- इस बार ‘गठबंधन’ की सरकार बनेगी।
ऊपर लिखे इन शब्दों को आप कई बार सुनते होंगे। चुनाव शुरू होने से पहले और रिजल्ट आने के कुछ दिनों बाद तक ऐसे शब्दों का इस्तेमाल किया जाता है। जिसका मतलब ज्यादातर लोगों को नहीं पता होता है। इतना ही नहीं जिन लोगों को पता होता है वो भी कई बार कन्फ्यूज हो जाते हैं। तो चलिए ऐसे 10 शब्दों का मतलब जानते हैं…
पहला शब्द जमानत राशि, इसका क्या मतलब है?
उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने के लिए नामांकन, यानी पर्चा भरते हुए एक तय रकम जमा करानी होती है। इसे जमानत राशि कहते हैं। पंचायत से लेकर विधानसभा और लोकसभा तक, हर चुनाव की जमानत राशि अलग होती है।चुनाव आयोग समय-समय पर इसे तय करता है।
जमानत राशि जमा कराने के पीछे चुनाव आयोग का मकसद नॉन सीरियस उम्मीदवार को रोकना है। हालांकि, आयोग अपने इस मकसद में कामयाब नहीं हुआ है। 1952 में हुए पहले आम चुनाव में 40% उम्मीदवारों की जमानत जब्त हुई थी, तो 2019 में यह आंकड़ा बढ़कर 86% हो गया।
दूसरा शब्द जमानत जब्त, ये क्या होता है?
जब किसी उम्मीदवार को अपने निर्वाचन क्षेत्र में पड़े कुल वोटों के 1/6 से कम वोट मिलते हैं तो उसकी जमानत राशि को चुनाव आयोग वापस नहीं करता है। इसे जमानत जब्त होना कहा जाता है। इसे एक उदाहरण से समझते हैं। मान लीजिए उत्तर प्रदेश की लखनऊ सीट पर कुल 1 लाख वोट पड़े, ऐसे में जिस-जिस उम्मीदवार को 16,666 से कम वोट मिलेंगे, उनकी जमानत राशि जब्त कर ली जाएगी।
इन 4 हालात में जमानत राशि वापस कर दी जाती है…
- अगर उम्मीदवार को उसके निर्वाचन क्षेत्र में पड़े कुल वोटों के 1/6 से ज्यादा वोट मिल जाएं। भले ही वो चुनाव हार जाए।
- किसी उम्मीदवार को 1/6 से कम वोट मिले हों, लेकिन वह चुनाव जीत गया हो।
- वोटिंग शुरू होने से पहले ही उम्मीदवार की मौत होती है तो उसके कानूनी वारिस को जमानत राशि लौटा दी जाती है।
- उम्मीदवार का नामांकन रद्द होने या उम्मीदवार की ओर से तय समय के भीतर नाम वापस लेने पर। ( उम्मीदवार को कुल वोटों के 1/6 के ठीक बराबर भी वोट मिलने पर भी जमानत राशि जब्त कर ली जाती है। )
तीसरा शब्द बहुमत, सरकार बनाने में इसका क्या गणित है?
विधानसभा चुनाव हो या लोकसभा चुनाव, आमतौर पर जब किसी पार्टी या गठबंधन को उस सदन की कुल सीटों में से आधी से ज्यादा सीटों पर जीत मिलती है तो उसे बहुमत हासिल करना कहते हैं।
हालांकि, ऊपर कही गई सीधी सपाट बात में कई पेंच हैं।
चलिए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के जरिए इसे समझने की कोशिश करते हैं। यहां कुल 403 विधानसभा सीट हैं। यूं तो इस बार प्रदेश की सभी सीटों पर चुनाव हुआ है, लेकिन मान लीजिए चुनाव के दौरान 5 सीटों पर किसी न किसी उम्मीदवार की मृत्यु होने पर वोटिंग नहीं हो सकी। ऐसे में इन पांचों सीटों पर बाद में चुनाव होंगे।
यानी कुल 398 उम्मीदवार विधायक बनकर विधानसभा पहुंचेंगे। ऐसे में राज्यपाल सबसे बड़ी पार्टी या सबसे बड़ा गठबंधन के आधार पर उसके नेता को सरकार बनाने का न्योता देंगे और एक तय समय के भीतर विधानसभा में अपना बहुमत साबित करने को कहेंगे।
सबसे बड़ी पार्टी के नेता मुख्यमंत्री पद की शपथ लेकर सदन में विश्वास मत हासिल करने के लिए प्रस्ताव रखेंगे। इसे ही विश्वास प्रस्ताव कहते हैं। मान लेते हैं कि विश्वास मत वाले दिन सभी विधायक सदन में मौजूद रहते हैं और वोटिंग में हिस्सा लेते हैं।
ऐसे में 50%+1 के फार्मूले के हिसाब 398 विधायकों का बहुमत हासिल करने के लिए 199+1 यानी 200 विधायकों के सपोर्ट की जरूरत होगी। यही बहुमत का आंकड़ा होगा।
अब हम तीसरी परिस्थिति की कल्पना करते हैं। UP में कुल 403 सीटों में से 398 पर चुनाव हुए और इनमें से दो विधायक ऐन वक्त पर किसी वजह से विश्वास मत वाले दिन विधानसभा में मौजूद नहीं हैं। ऐसे में मौजूद विधायकों की संख्या 396 हो जाएगी। इस परिस्थिति में बहुमत का आंकड़ा 198+1, यानी 199 होगा।
चौथा शब्द हंग असेंबली, त्रिशंकु के किस्से से समझें मतलब
इसे समझने के लिए धर्मशास्त्र से जुड़ा पुराना किस्सा सुनते हैं। इक्ष्वाकु वंश के एक राजा थे- त्रिशंकु। राजा से तपस्वी बने ऋषि विश्वामित्र ने उनसे खुश होकर उन्हें सशरीर स्वर्ग भेज दिया था। वहीं, देवताओं के राजा इंद्र ने त्रिशंकु को स्वर्ग से वापस पृथ्वी की ओर धकेल दिया। नीचे गिरते राजा त्रिशंकु को ऋषि विश्वामित्र ने बीच में ही लटका दिया और उसके लिये अलग स्वर्ग बनाना शुरू कर दिया। इसके बाद इंद्र ने मेनका को भेजकर विश्वामित्र की तपस्या भंग करा दी और त्रिशंकु बीच में ही रह गए। ऐसा माना जाता है कि त्रिशंकु आज भी पृथ्वी और स्वर्ग के बीच लटके हुए हैं।
अब इसे चुनाव के नजरिये से समझते हैं। जब किसी एक पार्टी या गठबंधन को किसी चुनाव में बहुमत के आंकड़े के बराबर या उससे ज्यादा सीटें नहीं मिलती हैं तो ऐसे हालात को अंग्रेजी में Hung Assembly और हिंदी में त्रिशंकु विधानसभा कहते हैं।
चलिए इसे पंजाब चुनाव से समझते हैं। पंजाब में सभी 117 विधानसभा सीटों पर चुनाव हुआ है। इस तरह पंजाब में बहुमत पाने के लिए 59 सीटें जीतनी होंगी।
इस बार पंजाब में ज्यादातर सीटों पर चार पार्टियां आपस में भिड़ रही हैं। पहली- कांग्रेस, दूसरी- शिरोमणि अकाली दल, तीसरी आम आदमी पार्टी और चौथी- BJP के साथ कैप्टन अमरिंदर सिंह की नई पार्टी पंजाब लोक कांग्रेस। ऐसे में अगर चुनाव में किसी भी पार्टी या गठबंधन को 59 सीटें नहीं मिलतीं तो कहा जाएगा कि पंजाब में त्रिशंकु विधानसभा है। ऐसे हालात में आमतौर पर सबसे बड़ी पार्टी गठबंधन बनाने की कोशिश करती है।
अगर काफी कोशिशों या तय समय के बाद भी सरकार नहीं बनती है तो राज्यपाल विधानसभा को निलंबित करके राष्ट्रपति शासन लगा सकता है।
2019 में हुए महाराष्ट्र चुनाव इसका अच्छा उदाहरण हैं। कुल 288 विधानसभा सीटों पर भाजपा और शिवसेना ने मिलकर चुनाव लड़ा मगर बाद में दोनों में तकरार हो गई। भाजपा ने 105 सीटें, शिवसेना ने 56, NCP ने 54 और कांग्रेस ने 44 सीट जीती थीं। किसी एक पार्टी या गठबंधन को बहुमत नहीं मिला और विधानसभा त्रिशंकु हो गई। हालांकि, बाद में शिवसेना ने NCP और कांग्रेस के साथ मिलकर राज्य में सरकार बना ली।
पांचवां शब्द गठबंधन, यह क्या और कितने तरीकों का होता है?
जब दो या उससे ज्यादा पार्टियां आपस में सियासी रूप से हाथ मिला लेती हैं तो उसे गठबंधन कहते हैं। मोटे तौर पर यह दो तरह का होता है।
पहला- चुनाव से पहले और दूसरा- चुनाव के बाद। 2019 में महाराष्ट्र में शिवसेना और भाजपा मिलकर चुनाव लड़े थे, लेकिन नतीजे आने के बाद अलग-अलग हो गए। अगर दोनों मिलकर सरकार बना लेते तो उसे चुनाव पूर्व हुए गठबंधन की सरकार कहा जाता।
इससे उलट, सरकार तो शिवसेना ने NCP और कांग्रेस के साथ मिलकर बनाई। ऐसे में इसे चुनाव बाद हुए गठबंधन की सरकार कहेंगे।
लोकतंत्र में चुनाव से पहले हुए गठबंधन को अच्छा माना जाता है, क्योंकि गठबंधन की सभी नीतियों को जानकर ही लोगों ने उन्हें वोट देती है। वहीं, चुनाव के बाद गठबंधन को आमतौर पर मौकापरस्ती मान लिया जाता है।
छठवां शब्द विश्वास प्रस्ताव, इस सिक्के का दूसरा पहलू है अविश्वास प्रस्ताव
सरकार सदन में विश्वास मत के जरिए यह साबित करती है कि उसके पास सत्ता में रहने के लिए मौजूद आधे से ज्यादा सांसद या विधायक हैं। वहीं, अविश्वास मत के जरिए विपक्षी पार्टी यह साबित करने की कोशिश करती है कि सरकार के पास जरूरी बहुमत नहीं है। यानी विश्वास मत सरकार लाती है और अविश्वास मत विपक्षी पार्टियां।
इसे हम UP के उदाहरण से समझते हैं। UP की विधानसभा में कुल 403 सीट हैं। अगर सभी सीटों पर चुनाव हुआ और विश्वास मत के दिन सभी 403 विधायक मौजूद होते हैं तो ऐसे में जिस भी पार्टी के पास आधे से ज्यादा यानी 202 विधायकों को समर्थन होगा, वह बहुमत हासिल कर लेगी।
इससे उलट अगर विपक्षी पार्टियां दावा करती हैं कि सरकार के पास सदन में पूरा समर्थन नहीं, तो वो सदन में अविश्वास प्रस्ताव लाती हैं। अगर अविश्वास प्रस्ताव पारित हो जाता है तो CM को इस्तीफा देना पड़ता है।
- 1963 में आया था देश का पहला अविश्वास प्रस्ताव
सातवां शब्द एग्जिट पोल, वोट देकर बाहर निकलते ही ली जाती राय
आम लोग जब वोट डालने के बाद मतदान केंद्र से एग्जिट (बाहर) होते हैं तो कुछ एजेंसियां उन लोगों के बीच जाकर सर्वे करती हैं और पता लगाने की कोशिश करती हैं कि किस व्यक्ति ने किस पार्टी को वोट दिया है। लोगों की दी गई राय के आधार पर गुणा-भाग करके पता लगाया जाता है कि इस बार कौन जीत रहा है। इसे ही एग्जिट पोल कहते हैं। वोटिंग खत्म होने के बाद इसके आंकड़े जारी होते हैं।भारत में एग्जिट पोल और पोल सर्वें का विकास दिल्ली के CSDS यानी सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज ने 1960 के दशक के आखिरी सालों में शुरू कर दिया था, लेकिन देश का पहला गंभीर एग्जिट पोल 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए चुनाव में सामने आया।
तब के युवा अर्थशास्त्री, राजनीतिक विश्लेषक और सेफोलॉजिस्ट प्रणय रॉय ने ऑक्सफोर्ड राजनीतिक वैज्ञानिक डेविड बटलर के साथ अनुमान लगाया कि कांग्रेस को 400 सीटें मिलेंगी। सहानुभूति लहर पर सवार कांग्रेस ने तब 404 सीटें जीती थीं।
आठवां शब्द प्रोटेम स्पीकर, नए विधायकों को शपथ दिलाने का काम होता है
प्रोटेम (Pro-tem) लैटिन शब्द प्रो टैम्पोर (Pro Tempore) से बना है। इसका मतलब- ‘कुछ समय के लिए’ होता है। प्रोटेम स्पीकर की नियुक्ति गवर्नर करता है। ऐसी नियुक्ति तब तक के लिए होती है जब तक विधानसभा अपना स्थायी अध्यक्ष नहीं चुन लेती। प्रोटेम स्पीकर ही नए विधायकों (MLA) को शपथ दिलाता है। आमतौर पर सदन के सबसे सीनियर सदस्य को प्रोटेम स्पीकर बनाया जाता है।संविधान के अनुच्छेद 180 (1) किसी भी राज्य के गवर्नर को विधानसभा स्पीकर की कुर्सी खाली होने पर प्रोटेम स्पीकर नियुक्त करने की शक्ति देता है।
हालांकि संविधान में प्रोटेम स्पीकर की शक्ति, उसके काम और जिम्मेदारियों को लेकर साफतौर पर कुछ नहीं कहा गया है।
- कई बार तोड़ी जा चुकी है परंपरा
- नवंबर 2019 में महाराष्ट्र के गवर्नर भगत सिंह कोश्यारी ने भाजपा विधायक कालिदास कोलंबकर को प्रोटेम स्पीकर नियुक्त कर दिया।
- कोश्यारी अगर परंपरा निभाते तो कांग्रेस अध्यक्ष और 8 बार के विधायक बालासाहेब थोराट प्रोटेम स्पीकर बनाए जाते।
- इससे पहले 2019 के भी लोकसभा चुनाव के बाद सबसे सीनियर सांसद मेनका गांधी की जगह भाजपा सांसद वीरेंद्र कुमार को लोकसभा का प्रोटेम स्पीकर बनाया गया।
- 2018 में कर्नाटक में सत्ता को लेकर चली रस्साकशी के बीच राज्यपाल वाजुभाई वाला ने भाजपा विधायक केजी बोपैय्या को प्रोटेम स्पीकर नियुक्त कर दिया, जबकि कांग्रेस विधायक आरवी देशपांडे सबसे सीनियर थे।
- 2017 में गोवा, अरुणाचल प्रदेश और मणिपुर में भी सबसे सीनियर विधायक की जगह भाजपा के जूनियर विधायकों को प्रोटेम स्पीकर बनाया जा चुका है।
साफ है कि अब परंपरा टूट चुकी है। अब प्रोटेम स्पीकर भी सियासी जरूरत के हिसाब से बनाए जाते हैं।
नवां शब्द स्पीकर, हाउस में कौन कितने समय बोलेगा, यह भी करते हैं तय
विधानसभा की कार्यवाही चलाने वाले सदस्य को ही विधानसभा स्पीकर कहते हैं। किसी सदन के सबसे वरिष्ठ सदस्य को स्पीकर चुना जाता है। इसके लिए ध्वनिमत से विधायकों की सहमति जरूरी होती है। जब स्पीकर मौजूद नहीं होता है तो उपाध्यक्ष सदन संचालित करता है। आमतौर पर सरकार बनाने वाली पार्टी से लोकसभा या विधानसभा स्पीकर बनाए जाते हैं।सदन चलाने के अलावा सियासी नजरिए से भी स्पीकर का पद काफी खास है। कब किस मुद्दे या कानून पर चर्चा होगी? कौन कितने समय बोलेगा? कौन बिल किसी कैटेगरी में आएगा? यानी कोई बिल मनी बिल है या साधारण बिल यह भी स्पीकर तय करता है।
दसवां शब्द राज्यपाल, आंकड़ों का पेंच फंसा तो सभी को याद आएंगे
संविधान के अनुच्छेद 155 के अनुसार, राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति करते हैं। हालांकि, यह नियुक्ति पूरी तरह केंद्र सरकार की सलाह पर ही की जाती है। राज्यपाल प्रधानमंत्री की इजाजत होने तक ही पद पर बने रह सकते हैं।यह किसी भी राज्य का सबसे प्रमुख संवैधानिक पद होता है। साथ ही राज्यपाल केंद्र के प्रतिनिधि के रूप में काम करते हैं। इस प्रकार राज्यपाल की दोहरी भूमिका होती है।
जैसे संसद के तीन अंग राष्ट्रपति, राज्यसभा और लोकसभा होते हैं। वैसे ही राज्य के सदन के भी 2 या तीन हिस्से होते हैं यानी जिस राज्य में विधान परिषद होगी वहां पर यह संख्या तीन होगी- राज्यपाल, विधानसभा और विधानपरिषद। वहीं जिन राज्यों में विधान परिषद नहीं होगी वहां ये संख्या 2 होगी- राज्यपाल और विधानसभा।
विधानसभा चुनाव के बाद किसी राजनीतिक दल को सरकार बनाने के लिए राज्यपाल ही न्योता देते हैं। इसलिए चुनाव में बराबरी का मुकाबला होने पर राज्यपाल काफी अहम भूमिका में होते हैं। ऐसी स्थिति में राज्यपाल दो प्रमुख आधार पर न्योता देते हैं।
पहला, सबसे बड़ी पार्टी को और दूसरा- किसी गठबंधन को तब न्योता मिलता जब राज्यपाल अपने विवेक के आधार पर यह मानते हों कि गठबंधन के पास सरकार बनाने के लिए पूरा समर्थन है। इसके लिए वे विधायकों के समर्थन पत्रों के अलावा राजभवन में उनकी परेड भी करवा सकते हैं।