बडा और ताकतवर देश सिर्फ कमजोर देश पर हमला करता है। द्वितीय विश्व युद्ध को छोड दें तो यही हुआ है। अमेरिका प्रतिबंध–प्रतिबंध खेलता रहता है जो उसका प्रिय खेल है। अमेरिका के झांसे में आने वाले देशों का सदा नुकसान ही हुआ है। रूस का जरूर मित्र देश के साथ खड़ा रहने का इतिहास है। चीन बडा व्यापारी देश बन चुका है और वो उतना ही सुरक्षा का इंतजाम कर रहा है‚ जो उसके लिए और दुनिया की बड़ी ताकतों से निपटने के लिए जरूरी है। रूस और चीन दोनों १०० साल आगे की कल्पना कर अपनी तैयारी में लगे हैं‚ जबकि कुछ देश मंदिर–मस्जिद‚ बुर्का–हिजाब जैसी चीजों को ही भविष्य मान बैठे हैं। छोटे देश लाख कोशिश के बावजूद बड़ी ताकतों के हमले को झेल नहीं सकते हैं बर्बाद होकर भी लड़ सकते हैं। दुनिया तेजी से बदली है और इसके युद्ध के नियम तथा हथियार भी बदले हैं। जीतने के लिए जरूरी है मजबूत होना और मजबूत होने की पहली शर्त है देश का अंदरूनी विवादों से ऊपर होना‚ देश में एकता होना‚ आपसी सद्भाव तथा विश्वास होना‚ सरकार पर विश्वास होना तथा इसकी शर्त है सरकार का पारदर्शी होना‚ समझदार और दूरदर्शी होना और सम्पूर्ण जनता में ये विश्वास पैदा करना कि वो सब कुछ सबके लिए कर रहे हैं तथा सबके भविष्य और सुरक्षा के लिए कर रहे हैं। अंदर से टूटा हुआ देश आर्थिक प्रगति नहीं कर सकता और यदि अंदर झगडे हैं और कभी भी हालात बिगड़ने का अवसर है तो कहीं का भी इन्वेस्टर नहीं आएगा और अंदरूनी व्यापार भी प्रभावित होगा‚ जबकि देश की मजबूती के लिए जरूरी है कि देश आर्थिक रूप से बहुत मजबूत हो‚ शैक्षणिक स्तर उच्च हो और स्वास्थ्य की गुणवत्ता भी उच्च कोटि की हो‚ बेरोजगारी न के बराबर हो‚ कृषि से लेकर व्यापार तक सब सम्पन्न हो और वैज्ञानिक आत्मनिर्भरता हो सभी क्षेत्रों में स्वास्थ्य‚ भविष्य की आवश्यकताओं तथा सैन्य जरूरतों के क्षेत्र में तथा भविष्य में आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से लेकर प्रकृति संरक्षण और आवश्यक चीजों के असम्भव निर्माण तक। इन सब चीजों के लिए वातावरण तभी बन सकता है जब नेतृत्व करने वाले सभी लोग दूरदर्शी हो और अपने‚ अपनी पार्टी तथा सत्ता नहीं बल्कि आने वाली पीढियों के लिए सपने देखे‚ सिद्धांत गढ़े और संकल्पित हो‚ वरना स्वस्थ लोकतांत्रिक प्रतिस्पर्धा और भविष्य की पीढियों के लिए सपने की प्रतिस्पर्धा के बजाय तू–तू–मैं–मैं तो किसी भी देश को पीछे ही ले जाता है। इतिहास के सपने में जीना या इतिहास की नफरत को ढोना और भविष्य की पीढियों को भी देकर जाने का इरादा सिर्फ और सिर्फ बर्बादी ही लाने वाला होता है। इराक हो‚ सीरिया हो‚ यूक्रेन या अन्य ऐसे कोई भी देश वो कितना भी फौजी साजो–सामान इकट्ठा कर ले पर अगर वो किसी बड़े को खटक गए तो उसकी बर्बादी तय है और इस गलतफहमी में रहना की उसको हथियार बेचने और अपने हितों के लिए इस्तेमाल करने वाला कोई दूसरा देश उसके लिए लड़ने आएगा गलतफहमी ही साबित होता रहेगा क्योंकि कोई भी देश खुद को दूसरे के लिए बर्बाद नहीं करता क्योंकि युद्ध बहुत महंगा शौक है। इसलिए छोटे‚ आर्थिक‚ जनसांख्यिकी से कमजोर और विकासशील देशों के लिए सबसे अच्छा है की वो किसी बड़े की कठपुतली न बने और अपने हित अहित के साथ सबसे संबंध रखे। किसी भी देश का अपना निर्माण खास माहौल और ऐतिहासिक परिस्थितियों और कारकों से होता है और उन्हीं हालात में सुखी होता है तथा तरक्की करता है। भारत उन्मुक्त वातावरण का समाज रहा है। यहां का समाज थोडे कम में भी जी लेता है और संतुष्ट रहता है पर उसका उन्मुक्त वातावरण और उन्मुक्त हंसी उससे नहीं छिननी चाहिए। इसलिए तानाशाही जैसा कोई कदम या सोच भारत के लिए आत्मघाती होगी।
भारत को धर्म और जातीय झगड़े वाले समाज और देशों से सबक लेने की जरूरत है। ये वक्त फिर से विचार करने का है कि जवाहरलाल नेहरू द्वारा शुरू किया गया गुटनिरपेक्ष आंदोलन कितना सार्थक था और वो खुद में तीसरी धुरी था‚ जो बाकी दो को बैलेंस करता था। पहले अमेरिकी स्वार्थों ने काफी देशों को बर्बाद किया है और अब यूक्रेन। पूरी दुनिया के छोटे और कम विकसित या विकासशील देशों के लिए नये सिरे से एकजुट होकर रणनीति बनाने का वक्त है और भारत इन सबकी अगुवाई कर सकता है पर उसके लिए पहले भारत में पूर्ण एकता जरूरी है। यूक्रेन तो निपट जाएगा‚ परंतु ये अंतिम साबित नहीं होगा। ये नये तरह के युद्ध का प्रारंभ है। चीन की चुनौती भारत के लिए कम नहीं है और वो चुनौती खुद की वैचारिक और रणनीतिक गलतियों से पैदा हुई है। इन गलतियों को स्वीकार कर उसका परिमार्जन और उससे बाहर निकलना वक्त की मांग है‚ चाहे वह राजनीतिक विरोधी के पास ही क्यों न हो। युद्ध से बचना है तो उसे महंगा करना होगा क्योंकि बंटा हुआ देश और अज्ञानी नेतृत्व नहीं कर सकता।