पिछले दिनों ऐतिहासिक फैसले में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने महिलाओं के लिए शादी करने की न्यूनतम कानूनी आयु सीमा 18 से बढ़ाकर 21 वर्ष करने का प्रस्ताव पारित किया जिससे उन्हें पुरु षों के बराबर लाया जा सके। यह निर्णय जया जेटली की अध्यक्षता में केंद्र सरकार द्वारा गठित एक टास्क फोर्स‚ नीति आयोग के ड़ॉ. वीके पॉल और महिला एवं बाल विकास मंत्रालय‚ स्वास्थ्य और शिक्षा मंत्रालयों के सचिवों के साथ पिछले साल नीति आयोग को सौंपी गई सिफारिशों पर आधारित है‚ जो महिलाओं के बीच उच्च शिक्षा को प्रोत्साहित करने के तरीकों की जांच करने के लिए‚ शिशु मृत्यु दर‚ मातृ मृत्यु दर‚ मां के मानसिक स्वास्थ्य‚ मां और बच्चे‚ दोनों की पोषण स्थिति‚ लिंग अनुपात पर वैवाहिक आयु के प्रभाव का पता लगाने के लिए जन्म और बाल लिंग अनुपात आदि का पता लगाने के लिए गठित की गईथी।
इस निर्णय को जाति‚ पंथ और धर्म से ऊपर उठकर समाज के सभी वर्गों से व्यापक सराहना मिल रही है। हालांकि‚ समाज के एक वर्ग ने कुछ मापदंडों पर सवाल उठाया है‚ जिस पर चर्चा होना जरूरी जान पड़ती है। जनसंख्या नियंत्रण के लिए एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल किए जाने वाले नये प्रस्ताव के बारे में कुछ आरोप सुने जा सकते हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण द्वारा जारी हालिया आंकड़ों के हवाले से आरोपों का आसानी से मुकाबला किया जा सकता है‚ जिनमें स्पष्ट रूप से दिखाया गया है कि कुल प्रजनन दर (टीएफआर) घट रही है‚ और जनसंख्या नियंत्रण में है। भारत ने पहली बार २.० की कुल प्रजनन दर प्राप्त की‚ जो टीएफआर के प्रतिस्थापन स्तर २.१ से नीचे है‚ जो स्पष्ट रूप से जनसंख्या विस्फोट में गिरावट को दर्शाती है। कुछ लोगों ने सर्वे की सीमा पर सवाल उठाए हैं। जया जेटली ने टास्क फोर्स की रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए कहा‚ ‘यह सर्वेक्षण १६ विश्वविद्यालयों के साथ–साथ १५ से अधिक गैर–सरकारी संगठनों के फीडबैक पर आधारित है‚ जिन्होंने युवाओं (विशेषकर २१–२३ वर्ष की आयु में) के साथ व्यापक विचार–विमर्श किया‚ विशेष रूप से ग्रामीण और हाशिए पर रहने वाले समुदायों‚ उन जिलों पर ध्यान केंद्रित करते हैं‚ जहां बाल विवाह काफी प्रचलित हैं। सभी धर्मों और शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों से समान रूप से फीडबैक लिया गया।
प्रस्ताव को कानून में बदलने के लिए बाल विवाह निषेध अधिनियम‚ २००६ में संशोधन की आवश्यकता है‚ और इसके परिणामस्वरूप विशेष विवाह अधिनियम और व्यक्तिगत कानूनों जैसे हिंदू विवाह अधिनियम‚ १९५५ आदि में संशोधन की आवश्यकता है। एक बार जब यह कानून बन जाता है‚ तो सारे धर्मों की परवाह किए बिना भारत की महिला आबादी को विभिन्न क्षेत्रों में लाभ होने का अनुमान है। बढ़ी हुई शादी की उम्र एक बालिका को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त करने‚ कौशल प्राप्त करने और वित्तीय स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए पर्याप्त समय की गारंटी देगी और अगर लड़कियां आर्थिक रूप से स्वतंत्र होंगी तो माता–पिता उनकी जल्दी शादी करने की चिंता भी नहीं सताएगी। शीघ्र विवाह को प्रारंभिक मातृत्व के दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए‚ जो एक लड़की के लिए शारीरिक‚ मानसिक और आर्थिक रूप से चुनौतीपूर्ण है। देर से शादी का मतलब देर से मातृत्व और देर से मातृत्व का मतलब है एक लड़की के लिए अपने भविष्य को सुरक्षित करने के लिए अधिक समय का मिलना। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के साथ वित्तीय स्वतंत्रता सुनिश्चित करेगी कि महिलाओं के साथ उनके पुरु ष समकक्षों की तुलना में समान व्यवहार किया जाए। इससे सही मायने में महिला सशक्तिकरण सुनिश्चित करना संभव होगा। महिलाएं दुनिया की आबादी का लगभग ५०% हिस्सा हैं। लोगों को सशक्त बनाने के अधिकांश प्रयास आम तौर पर दूसरे आधे हिस्से पर लक्षित होते हैं‚ जिसका प्रतिनिधित्व पुरु षों द्वारा किया जाता है। भले ही योजनाओं/उपायों का उद्देश्य किसी विशेष वर्ग को लाभ पहुंचाना न हो‚ विभिन्न सामाजिक मानदंडों‚ पुराने रीति–रिवाजों‚ पितृसत्ता और सरकारी उदासीनता के कारण महिलाएं अपने पुरु ष समकक्ष से आम तौर पर किसी भी योजना/कार्यक्रम से वंचित हो जाती हैं। शादी की न्यूनतम उम्र बढ़ाने का सरकार का यह फैसला महिला सशक्तिकरण की राह में मील का पत्थर साबित होने का अनुमान है। हालांकि‚ दूरदराज के क्षेत्रों में शैक्षणिक संस्थानों के मामले में परिवहन सहित लड़कियों के लिए स्कूलों और विश्वविद्यालयों तक पहुंच सुनिश्चित करने के साथ–साथ निर्णय की सामाजिक स्वीकृति को प्रोत्साहित करने के लिए व्यापक जनजागरूकता अभियान की भी आवश्यकता है ताकि लोगों में इसको लेकर जागरूकता बढ़े। निजी स्वार्थ की राजनीति से प्रेरित लोग इस मुद्दे को सांप्रदायिक रंग देकर धर्म विशेष के लोगों की भावनाओं को भड़काने के लिए कर सकते हैं जैसा कि पिछले दिनों समाजवादी पार्टी के सांसद शफीकुर्रहमान बर्क का इस संदर्भ में विवादित बयान से जाहिर भी होता है।
अभी कुछ साल पहले ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और दारु ल उलूम देवबंद ने दिल्ली उच्च न्यायालय के इस फैसले का स्वागत किया था कि वैध रूप से मुस्लिम लड़कियां १५ साल की उम्र में शादी कर सकती हैं। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की इस्लामी व्याख्या के अनुसार एक लड़की को सिर्फ वयस्क होने पर शादी का अधिकार प्राप्त हो जाता है। इसके लिए आयु की कोई तय समय सीमा नहीं है। देखा गया था कि जिस तरह तीन तलाक की पीडि़त अधिकांश वंचित पसमांदा समाज की महिलाएं ही थीं‚ वैसे ही छोटी उम्र में शादी के नुकसान का पसमांदा लड़कियों को ही सामना करना पड़ता है। सरकार को इस ओर भी ध्यान देना चाहिए। समाज को भी अपनी बहन–बेटियों की बेहतरी के लिए शंकाओं को दूर करके आगे बढ़ना समय की मांग है। आखिर‚ शिक्षित और सशक्त महिला स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए महत्वपूर्ण हैसियत रखती है।
बढ़ी हुई शादी की उम्र एक बालिका को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त करने‚ कौशल प्राप्त करने और वित्तीय स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए पर्याप्त समय की गारंटी देगी। लड़कियां आर्थिक रूप से स्वतंत्र होंगी तो माता–पिता को उनकी जल्दी शादी करने की चिंता भी नहीं सताएगी। देर से शादी का मतलब देर से मातृत्व और देर से मातृत्व का मतलब लड़की के लिए अपने भविष्य को सुरक्षित करने के लिए अधिक समय का मिलना। इससे सही मायने में महिला सशक्तिकरण सुनिश्चित होगा…….