नेपाल के संसदीय लोकतंत्र को बचाने के लिए न्यायपालिका को फिर आगे आना पड़़ा। सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने पांच महीने में दूसरी बार भंग प्रतिनिधि सभा को बहाल कर नेपाली कांग्रेस के प्रमुख शेरबहादुर देउबा को प्रधानमंत्री नियुक्त करने का फैसला दिया। फैसले को संविधानवाद की जीत बताया जा रहा है। जब किसी नेता की सनक से लोकतंत्र अधिनायकवाद में तब्दील होने लगता है और इससे मुक्ति के जब सभी राजनीतिक विकल्प विफल हो जाते हैं‚ तो न्यायपालिका ही आगे आकर लोकतंत्र का चीरहरण होने से बचा सकती है। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद राष्ट्रपति विद्या भंड़ारी ने देउबा को प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया है। संविधान के अनुच्छेद ७६(३) के अंतर्गत देउबा को एक महीने के अंदर सदन में बहुमत सिद्ध करना होगा। प्रधानमंत्री देउबा बहुमत सिद्ध कर पाते हैं‚ या नहीं यह अब सत्तारूढ़ सीपीएन (यूएमएल) के असंतुष्ट तेईस सांसदों के रुख पर निर्भर करेगा। हालांकि इन असंतुष्ट सांसदों ने सुप्रीम कोर्ट में दायर उस याचिका का समर्थन किया था जिसमें देउबा को प्रधानमंत्री बनाने की मांग की गई थी। याचिका पर प्रतिनिधि सभा के २७५ में से १४९ सांसदों के हस्ताक्षर थे। इससे पहले नेपाली कांग्रेस के प्रमुख शेरबहादुर देउबा ने १४९ सांसदों के समर्थन से राष्ट्रपति के समक्ष सरकार बनाने का दावा पेश किया था‚ जिसे राष्ट्रपति ने खारिज कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने अपने १६७ पृष्ठों के फैसले में कहा है कि संविधान राष्ट्रपति को निरंकुश विवेकाधिकार नहीं देता है। लोकतंत्र संविधान की सर्वोच्चता से चलता है और राष्ट्रपति का विशेषाधिकार भी इस सिद्धांत की अवहेलना नहीं कर सकता। सुप्रीम कोर्ट ने इसी आधार पर देउबा के दावे को खारिज किया जाना असंवैधानिक करार दिया है। वास्तव में संसदीय लोकतंत्र में राज्याध्यक्षों की कार्यवाहियां भी न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर नहीं हैं। न्यायपालिका की जिम्मेदारी भी बनती है कि किसी भी असंवैधानिक कार्यवाही की समीक्षा करे और सुधारात्मक कदम उठाए। नेपाल के राजनीतिक भविष्य के बारे में पिछले साल दिसम्बर में ही संकेत मिल गए थे जब प्रतिनिधि सभा को भंग किया गया था। तभी स्पष्ट हो गया था कि नेपाल अपना इतिहास दोहराएगा और राजनीति अस्थिरता में फंसेगा। देउबा की गठबंधन सरकार राजनीति स्थिरता दे पाएगी‚ कहना मुश्किल है।
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