देश की राजनीति को बिजली से वोट पैदा करने का नुस्खा देने वाले दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने अपना यह नुस्खा पंजाब में आजमाने के लिए वहां ३०० यूनिट बिजली मुफ्त देने की घोषणा करने के बाद उत्तराखंड में भी विधानसभा चुनाव से ठीक पहले वही नुस्खा आजमा कर राजनीतिक दलों पर बिजली का करंट लगा दिया।
उत्तराखंड के नये ऊर्जा मंत्री हरक सिंह रावत की प्रदेशवासियों को १०० यूनिट तक बिजली मुफ्त देने की घोषणा की गूंज अभी थमी भी नहीं थी कि केजरीवाल ने देहरादून आकर १०० की बजाय ३०० यूनिट का दांव चल कर उत्तराखंड के मंत्री की घोषणा फीकी कर दी। बिजली का अर्थशास्त्र जानने वालों का मानना है कि अगर वोटों के लिए इसी तरह सभी राज्यों में बिजली को खैरात की तरह बांटा जाएगा तो बिजली सेक्टर का ब्रेकडाउन अवश्यंभावी है। सस्ती लोकप्रियता के लिए मुफ्त बिजली अंततः उपभोक्ताओं को तो महंगी पडेगी ही साथ ही यह तरकीब आने वाली सरकारों के गले की हड़्ड़ी भी साबित होगी।
पंजाब पहले से ही किसानों के अलावा अनुसूचित जाति‚ जनजाति‚ पिछडा वर्ग और बीपीएल परिवारों को २०० यूनिट तक मुफ्त बिजली देने के कारण बिजली संकट का सामना कर रहा है। मुख्यमंत्री अमरिन्दर सिंह द्वारा पिछले साल विधानसभा में पेश श्वेत पत्र के अनुसार विभिन्न वर्गों को सब्सिडी देने के कारण सरकार को १४‚९७२.०९ करोड रुपये का भुगतान पावर कारपोरेशन को करना पडा। राज्य की रेग्युलेटरी कमेटी के दस्तावेज के अनुसार २०२१–२२ तक पंजाब सरकार को सब्सिडी के तौर पर १७‚७९६ करोड रुपये का भुगतान करना था। गंभीर ऊर्जा और आर्थिक संकट के कारण जैसे ही सरकार बिजली दरियादिली कम करने की सोचती है‚ तभी विपक्ष बवाल मचा देता है। ऊपर से केजरीवाल ने २०० की जगह ३०० यूनिट मुफ्त देने का चुनावी वायदा कर अमरिन्द्र के लिए ऐसी स्थिति पैदा कर दी है जो न उगलते बनती है‚ और न निगलते। लेकिन उत्तराखंड में तो स्वयं धामी सरकार के ऊर्जा मंत्री हरक सिंह रावत ने सरकार के गले में फोकट की बिजली की फंास डाल दी है। राज्य सरकार कर्ज लेकर कर्मचारियों को वेतन देती है‚ जबकि बिजली की खैरात बांटने पर प्रति वर्ष लगभग ६७२ करोड रुपये का बोझ सरकार की खाली तिजोरी पर पड सकता है।
फरवरी‚ २०२० में होने वाले दिल्ली विधानसभा के चुनाव से पहले केजरीवाल ने १ अगस्त‚ २०१९ से २०० यूनिट तक मुफ्त बिजली की घोषणा की तो उसका भरपूर लाभ उन्हें दूसरी बार जबरदस्त जीत के रूप में मिला। हालांकि इस दरियादिली के लिए उन्हें २०२१–२२ के बजट में २‚८२० करोड रुपये की सब्सिडी का प्रावधान करना पडा और राज्य का राजकोषीय घाटा १०‚६६५ करोड रुपये तक पहुंच गया। केजरीवाल के बाद महाराष्ट्र सरकार ने भी गत वर्ष राज्यवासियों को दीवाली गिफ्ट के तौर पर १०० यूनिट तक प्रति माह मुफ्त बिजली देने की घोषणा तो की मगर सच्चाई के आगे सरकार का वादा बौना हो गया। देश में सबसे खराब हालत महाराष्ट्र स्टेट इलै्ट्रिरसिटी डि्ट्रिरब्यूशन कंपनी की है‚ जिस पर गत वर्ष तक ही ३८ हजार करोड रुपये का कर्ज चढ चुका था।
बिजली से वोट उत्पादन का केजरीवाल फॉर्मूला अपनाते हुये ममता बनर्जी ने भी २०२१ के विधानसभा चुनावों से पहले उपभोक्ताओं के तिमाही बिल में ७५ यूनिट मुफ्त कर दी जिसका लाभ उन्हें सत्ता में जबरदस्त वापसी के रूप में मिल गया। अब तो यह चुनावी फॉर्मूला आम होने जा रहा है। बिजली का अर्थशास्त्र जानने वालों को पता है कि वोटकमा सस्ती लोकप्रियता के लिए मुफ्त बिजली आम उपभोक्ता के लिए अंततः बहुत महंगी ही साबित होती है। अगर कोई सरकार किसी एक वर्ग को मुफ्त बिजली देती है‚ तो बिजली महंगी होने पर उसकी भरपाई समाज के दूसरे वर्ग को करनी पडती है। राज्य सरकार भले ही मुफ्त बिजली की भरपाई अपने बजट से करे तो भी वह वसूली जनता से ही होती है। बिजली वितरण कंपनियां (डिस्कॉम) वैसे ही आर्थिक संकट से गुजर रही हैं। रिसर्च रेटिंग कंपनी ‘क्राइसिल’ के अनुसार वित्तीय वर्ष २०२०–२१ तक देश की बिजली कंपनियों पर कर्ज का बोझ ४.५ लाख करोड रुपये तक पहुंच गया था। अगर इसी तरह बिजली देकर वोट खरीदने की प्रवृत्ति जारी रही तो देश के ऊर्जा खासकर बिजली सेक्टर का ब्रेकडाउन तय है। लेकिन राजनीतिक दलों को तो सत्ता हथियाने के लिए येन केन प्रकारेण केवल वोट हथियाने होते हैं।
केंद्र सरकार बिजली सेक्टर को संकट से उबारने के लिए वर्ष २००० से अब तक ३ बेलआउट पैकेज जारी कर चुकी है। २००० में पहला पैकेज ४० हजार करोड रुपये का था। दूसरा रिवाइवल पैकेज २०१२ में १.९ लाख करोड का था और तीसरा पैकेज मोदी सरकार ने ‘उज्ज्वल डिस्कॉम एश्योरेंस योजना (उदय) के नाम से २०१५ में जारी किया। लेकिन इन पैकेजों के बावजूद बिजली वितरण कंपनियों की हालत में अपेक्षानुरूप सुधार परिलक्षित नहीं हो रहा है। उदय योजना में कंपनियों के कर्ज को राज्य सरकार के बांड में बदलना‚ लाइन लॉस १५ प्रतिशत तक लाना‚ सप्लाई की औसत लागत और राजस्व वसूली के बीच का अंतर शून्य करना आदि प्रावधान हैं।
बिजली की राजनीति दोहरी तलवार की भांति है। अगर किसी सरकार ने मुफ्त बिजली की शुरुआत कर दी तो फिर उसे रोकने का जोखिम कोई राजनेता नहीं उठा पाएगा। वैसे भी राजनीतिक दलों की पहली और सर्वोच प्राथमिकता वोट कमा कर सत्ता पर काबिज होने और फिर सत्ता पर बने रहने की होती है। पंजाब में एक बार अकाली दल सरकार ने ऊर्जा संकट के दौर में यह जोखिम उठाया तो उसे सत्ता गंवानी पडी। २००० के हरियाणा विधानसभा चुनाव में ओम प्रकाश चौटाला ने किसानों के बकाया बिजली बिल माफ करने का वादा कर चुनाव जीता था‚ लेकिन जब हकीकत से वह रूबरू हुए तो वादे से मुकर गए। इसका नतीजा उग्र किसान आंदोलन के रूप में सामने आया। आंदोलन के दौरान पुलिस फायरिंग में कुछ किसान मारे गए तो कुछ घायल हुए जिसकी परिणति २००५ के चुनाव में चौटाला की हार के रूप में हुई।