भारत और चीन के रिश्ते बीते कुछ दशकों से जटिल रहे हैं. दोनों देशों के बीच सीमाई विवाद, रणनीतिक प्रतिस्पर्धा और भू-राजनीतिक हितों के टकराव के बीच तिब्बत और दलाई लामा हमेशा एक संवेदनशील मुद्दा बने रहे. अब दलाई लामा के उत्तराधिकार को लेकर चीन जिस तरह दखल दे रहा है, उससे भारत-चीन संबंधों में नई तल्खी आने की आशंका है. दलाई लामा के जीवन के 90 साल पूरे होने के साथ भारत-चीन के नाजुक संबंधों के बीच उत्तराधिकार का मुद्दा अहम हो गया है.
भारत के लिए ये मसला सिर्फ तिब्बत का नहीं बल्कि अपनी सुरक्षा, रणनीतिक हित और धार्मिक-राजनीतिक संतुलन का भी है. हालांकि भारत ने गुरुवार को चीन के इस दावे को दृढ़ता से खारिज कर दिया कि दलाई लामा के उत्तराधिकारी को चुनने में उसका निर्णायक अधिकार है. भारत ने जोर देकर कहा कि इस मुद्दे पर केवल तिब्बती आध्यात्मिक नेता और स्थापित बौद्ध परंपराओं की इच्छा के अनुसार ही निर्णय लिया जा सकता है. आइए समझते हैं कि इस विवाद की जड़ क्या है, चीन क्यों इतना आक्रामक हो रहा है. इससे भारत-चीन के रिश्तों पर क्या असर पड़ सकता है.
तिब्बती बौद्ध परंपरा के मुताबिक दलाई लामा का पुनर्जन्म होता है. मौजूदा 14वें दलाई लामा तेनजिन ग्यात्सो हैं, जो 1935 में तिब्बत में जन्मे थे. उनके निधन के बाद उनके पुनर्जन्म की खोज धार्मिक तरीके से होती है. लेकिन चीन चाहता है कि अगला दलाई लामा बीजिंग की स्वीकृति से तिब्बत में चुना जाए. इसके लिए उसने 2007 में एक कानून (State Religious Affairs Bureau Order No. 5) पास किया. जिसके मुताबिक किसी भी पुनर्जन्म को सरकार की मंजूरी जरूरी होगी. दलाई लामा पहले ही साफ कर चुके हैं कि उनका उत्तराधिकारी तिब्बत में नहीं, भारत या किसी स्वतंत्र देश में चुना जाएगा. उन्होंने यहां तक कहा है कि वे अपने पुनर्जन्म को खत्म भी कर सकते हैं. यानी आने वाले समय में दो अलग-अलग दलाई लामा हो सकते हैं- एक बीजिंग समर्थित और एक तिब्बती निर्वासित सरकार व वैश्विक बौद्ध समुदाय समर्थित. यही बात चीन को असहज कर रही है.