बेशक पहलगाम में सुरक्षा चूक पर जवाब मांगने का राजनीतिक अधिकार विपक्ष को है क्योंकि चूक तो हुई ही है लेकिन सहमति के लिए संवाद और समन्वय की प्रक्रिया जारी रहनी चाहिए। हमारे यहां बहुदलीय लोकतंत्र है। हर दल और नेता सत्ता के लिए ही राजनीति करता है पर यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि राजनीति देश के लिए होनी चाहिए देश की कीमत पर नहीं।
पहलगाम आतंकी हमला पहला मौका है, जब विपक्ष ‘किसी भी जवाबी कार्रवाई’ के लिए मोदी सरकार के साथ खड़ा दिख रहा है। उड़ी हमले के बाद सर्जिकल स्ट्राइक और पुलवामा हमले के बाद एयर स्ट्राइक के सुबूत मांगने वाले विपक्ष के रुख में यह बड़ा बदलाव है। सबसे बड़े लोकतंत्र की राजनीति के लिए यह निश्चय ही सकारात्मक संकेत है। संसदीय लोकतंत्र में सरकार बहुमत से बनती है, लेकिन सत्तापक्ष और विपक्ष, दोनों की भूमिकाएं महत्वपूर्ण रहती हैं।
अपेक्षा की जाती है कि अपनी-अपनी राजनीतिक विचारधारा पर अडिग रहते हुए भी वे राष्ट्रहित के मुद्दों पर सहमति के साथ आगे बढ़ें, ताकि देश चुनौतियों का सामना अच्छे से कर पाए। विधानमंडलों की कार्यवाही सुचारु रूप से चलाने में सत्तापक्ष की जिम्मेदारी ज्यादा मानी जाती है, पर सच यह है कि एक हाथ से ताली नहीं बजती।
दलगत राजनीति से प्रेरित अवांछित टकराव के लिए किसी एक पक्ष को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। पिछली लोकसभा के आखिरी सत्रों तथा नई लोकसभा के अभी तक के सत्रों में विधायी कामकाज के आंकड़ों पर भले कुछ दावे किए जाएं, पर सच यही है कि बजट से लेकर अहम विधेयकों तक पर चर्चा राजनीतिक टकराव में फंसी रही।
विपक्ष की हंगामे की आदत और सत्तापक्ष की असहनशीलता किस हद तक बढ़ गई है, पिछली लोकसभा में संसद के दोनों सदनों से रिकार्ड संख्या में सदस्यों का निलंबन इसका एक बड़ा प्रमाण है। विडंबना यह कि जब अनेक विपक्षी सदस्य निलंबन के चलते सदन से बाहर थे, तभी व्यापक प्रभाव वाले कई विधेयक मिनटों में पारित हो गए।
मोदी शासन के पहले मनमोहन सरकार के समय भी सत्तापक्ष और विपक्ष के रिश्तों एवं संसदीय विमर्श का स्तर आदर्श नहीं था। मनमोहन सरकार के समय घपले-घोटालों को लेकर संसद का अधिकांश समय तो हंगामे की भेंट ही चढ़ा। सत्तापक्ष और विपक्ष के बिगड़े रिश्ते संसदीय लोकतंत्र और देश हित में नहीं। हमारे नेता यह समझने के लिए तैयार हों कि राजनीति में ‘मतभेद’ स्वाभाविक हैं, लेकिन ‘मनभेद’ के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए।
पिछले 10-11 साल में सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच ‘मनभेद’ राजनीतिक वैमनस्य में बदल गए हैं। सत्तापक्ष और विपक्ष द्वारा एक-दूसरे के नेतृत्व पर किए जाने वाले तीखे व्यक्तिगत कटाक्ष इसका प्रमाण हैं कि राजनीतिक विरोध अब निजी कटुता में तब्दील हो गया है। इस कटुता की शुरुआत गुजरात में मोदी के मुख्यमंत्रित्वकाल में वहां हुए दंगों से हो गई थी।
संप्रग सरकार के दौरान न सिर्फ मोदी और अमित शाह को इन दंगों के लिए दोषी बताते हुए उनके विरुद्ध कानूनी शिकंजा कसा गया, बल्कि मोदी को ‘मौत का सौदागर’ तक कहा गया। ऐसी आपत्तिजनक शब्दावली का इस्तेमाल याद नहीं पड़ता। तब से शुरू हुई निजी खुन्नस का ही परिणाम रहा कि मोदी के निशाने पर सोनिया और राहुल आ गए। सोनिया को ‘राजमाता’ तो राहुल गांधी को ‘शहजादा’ कहकर कटाक्ष किया गया। मामला एकतरफा नहीं रहा। राहुल भी कभी ‘चौकीदार चोर है’ का नारा उछालते रहे तो कभी नीरव मोदी के हवाले से मोदी सरनेम पर ही आक्षेप करते हुए अपने विरुद्ध मानहानि मुकदमे आमंत्रित करते रहे।
भाजपा एवं कांग्रेस के रिश्तों में तल्खी अधिक दिखती है, पर अन्य विपक्षी दलों के साथ भी सत्तापक्ष के संबंध सौहार्दपूर्ण नहीं हैं। ईडी, सीबीआइ, आयकर जैसी केंद्रीय एजेंसियों के ‘राजनीतिक दुरुपयोग’ के खिलाफ विपक्ष ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा भी खटखटाया, पर निराशा ही हाथ लगी।
ऐसा नहीं कि अतीत में सत्तापक्ष-विपक्ष में संबंध हमेशा सौहार्दपूर्ण रहे हैं, मगर ऐसी स्थिति शायद ही कभी दिखी हो। भारत के संसदीय इतिहास में तो मुखर नीतिगत मतभेदों के बावजूद देशहित में सहमति से राह निकालने तथा संकटकाल में सरकार की अप्रत्यक्ष मदद के उदाहरण भी मिलते हैं, पर वैसा तभी संभव है, जब एक-दूसरे को देशविरोधी मानने की मानसिकता से मुक्त हों और परस्पर कटुता के बजाय सम्मान का भाव हो।
अलग-अलग दलों से होने तथा कई मुद्दों पर नीतिगत मतभेदों के बावजूद प्रधानमंत्री नरसिंह राव, पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर और नेता प्रतिपक्ष अटल बिहारी वाजपेयी ने परस्पर सम्मान भाव वाले रिश्तों से संवाद तथा समन्वय की जो मिसाल पेश की, वह दलगत राजनीति में मार्गदर्शक बन सकती है। पिछले एक दशक का राजनीतिक परिदृश्य उससे एकदम उलट नजर आता है।
पाकिस्तान और चीन से जटिल रिश्तों से लेकर कोविड और ट्रंप के टैरिफ युद्ध तक हर मोर्चे की चुनौती के लिए विपक्ष सरकार को ही खलनायक बताता है, जबकि ऐसे मामलों में परस्पर विचार-विमर्श से नीति-रणनीति बनाने की जरूरत है। मोदी के प्रधानमंत्रित्वकाल में लाए गए शायद ही किसी विधेयक का विपक्ष ने समर्थन किया हो। विपक्ष ने हर कानून को ‘जन विरोधी’ बताया और उनके पारित होते ही सुप्रीम कोर्ट दौड़ा।
क्या कोई भी विधेयक जनहित में नहीं थे? इस तल्ख राजनीतिक टकराव के लंबे सिलसिले के मद्देनजर पहलगाम मुद्दे पर सर्वदलीय बैठक में सत्तापक्ष और विपक्ष को एक सुर में बोलते सुनना सुखद आश्चर्य ही रहा, पर आवश्यकता इस अपवाद को देशहित में परंपरा बनाने की और राष्ट्रीय सुरक्षा और अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों पर सहमति से काम करने की है।
इस पर भी ध्यान देने की जरूरत है, जिन भी दलों के नेता पहलगाम की घटना पर अनर्गल बयान दे रहे हैं और जिसके चलते सर्वदलीय बैठक में बनी सहमति छीज रही है, उन पर लगाम लगे। टीवी चैनलों की बहस में सभी दलों के प्रवक्ता भी पहलगाम पर बनी राजनीतिक सहमति को बनाए रखने के लिए तत्पर दिखें। वे फिर से एक-दूसरे पर हमले करने में लग गए हैं।
बेशक पहलगाम में सुरक्षा चूक पर जवाब मांगने का राजनीतिक अधिकार विपक्ष को है, क्योंकि चूक तो हुई ही है, लेकिन सहमति के लिए संवाद और समन्वय की प्रक्रिया जारी रहनी चाहिए। हमारे यहां बहुदलीय लोकतंत्र है। हर दल और नेता सत्ता के लिए ही राजनीति करता है, पर यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि राजनीति देश के लिए होनी चाहिए, देश की कीमत पर नहीं।
ये INDI नहीं रावलपिंडी अलायंस है
पहलगाम आतंकी हमले के बाद पूरा देश एक सुर में आतंकियों और पाकिस्तान के खिलाफ एक्शन की मांग कर रहा है। ज्यादातर राजनीतिक दल भी इस वक्त केंद्र सरकार और पीएम मोदी के साथ हैं। हालांकि, इस बीच कांग्रेस ने पीएम मोदी का नाम लिए बगैर एक फोटो अपने एक्स हैंडल पर पोस्ट की। इस फोटो में एक शख्स का सिर गायब था और सिर वाली जगह गायब लिखा हुआ था। बाद में सोशल मीडिया पर किरकिरी होने के बाद कांग्रेस ने ट्वीट को डिलीट कर लिया। अब इस पूरे मामले को लेकर भाजपा सांसद संबित पात्रा ने कांग्रेस पर बड़ा हमला किया है।
स्वाभिमान और मनोबल से खेलने की कोशिश- संबित पात्रा
भाजपा सांसद संबित पात्रा ने कहा- “पहलगाम में कश्मीर में आतंकी हमले के बाद कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों का असली चेहरा देश के सामने बेनकाब हो रहा है। धीरे-धीरे सच सामने आ रहा है। सर्वदलीय बैठक में कहते हैं कि हम सरकार के साथ हैं लेकिन जिस प्रकार पोस्टर कल कांग्रेस ने ट्वीट किया- सर तन से जुदा वाला पोस्टर, ये घृणित है। ये सोच-समझकर के किया गया है। दो तरह से बिल्डअप हो रहे हैं। पीएम मोदी के नेतृत्व में कई बैठकें हो रही हैं। बाहर देशों के डिप्लोमैट्स से बात हो रही है। सभी देश आतंक से लड़ाई में भारत का समर्थन कर रहे हैं। सेना का मनोबल ऊंचा है। वहीं, दूसरा बिल्डअप ये हो रहा है कि पाकिस्तान को कैसे बचाया जाए और उन्हें क्लिन चिट दी जाए और पाकिस्तान के समर्थन में कैसे खड़ा हुआ जाए। ये किस तरह का पोस्टर था, पीएम मोदी के सिर को आपने गायब कर दिया। वह पूरे भारत को रिप्रेजेंट करते हैं। इन्होंने हमारे स्वाभिमान और मनोबल से खेलने की कोशिश की है।”
पूरा कश्मीर और पीओके भी हमारा- संबित पात्रा
संबित पात्रा ने कहा- “कांग्रेस के सैफुद्दीन सोज कहते हैं कि सिंधु समझौता पाकिस्तान की लाइफलाइन है और पानी बंद नहीं करना चाहिए। अगर पाकिस्तान कहे तो भारत को मान लेना चाहिए कि पहलगाम में उसने हमला नहीं कराया। राहुल गांधी के खास दोस्त शेख आमीन कहते हैं कि ये देश अल्लाह के भरोसे चल रहा है। जम्मू-कश्मीर कांग्रेस के अध्यक्ष पाकिस्तान को टेबल पर बैठकर बातचीत करने मांग कर रहे हैं। मणशंकर अय्यर कह रहे हैं कि पहलगाम हमला एक मैनिफेस्टेशन है अनसुलझे सवालों का बंटवारे के समय। पूरा कश्मीर हमारा है और पीओके भी हमारा है। लेकिन कांग्रेस के मन में इस बात को लेकर संशय है।”
यह INDI नहीं, रावलपिंडी गठबंधन- संबित पात्रा
भाजपा सांसद संबित पात्रा ने कांग्रेस के ‘गायब’ पोस्ट पर कहा- “यह INDI गठबंधन नहीं है, यह रावलपिंडी गठबंधन है। आज से हम इन्हें INDI गठबंधन नहीं कहेंगे, हम इन्हें ‘पिंडी’ गठबंधन कहेंगे। राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी के अन्य नेता पाकिस्तानी मीडिया के हीरो हैं। मुझे लगता है कि वह दिन दूर नहीं जब इस ‘पिंडी’ गठबंधन के लोग पाकिस्तान में चुनाव लड़ेंगे।”