रिश्तों पर जमे बर्फ पिघलें, तनाव खत्म हो, शांति और सहयोग की बात हो तो किसे बुरा लगता है? यह प्रश्न वैश्विक कूटनीति के लिहाज से हो और खिलाड़ी भारत और चीन हों, तो जवाब है अमेरिका को। ‘ऐसा कोई सगा नहीं, जिसे हमने ठगा नहीं’ की नीति पर चलने वाले अमेरिका को लगता है कि वो जादूगर है और दुनिया उसकी कठपुतली। आदत जाते-जाते जाती है, मुगालता टूटते-टूटते टूटता है। रूस के शहर कजान से आईं तस्वीरें अमेरिका के मुगालते को तोड़ने वाली ही हैं। वहां से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच गर्मजोशी की आईं तस्वीरों ने ‘देख अमेरिका जल मरे’ जैसी स्थिति पैदा कर दी है।
पुतिन का इशारा और मोदी का थम्सअप
ब्रिक्स समिट के लिए मोदी, पुतिन और जिनपिंग कजान में हैं। वहां तीनों नेताओं की मुलाकात हुई। यह मुलाकात भारत-चीन के बीच वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) पर जारी तनाव के कम होने के बाद हुई है। दोनों देशों के बीच 2020 से पहले के पेट्रोलिंग अरेंजमेंट पर सहमति बनी है। राष्ट्रपति पुतिन ने मंगलवार को रात्रि भोज दिया। इस मौके पर वो मोदी और जिनपिंग के बीच बैठे। इससे पहले की तस्वीरों में पुतिन, मोदी का गले लगाकर स्वागत करते दिख रहे हैं, जो दोनों देशों के बीच मजबूत रिश्तों को दर्शाता है। विदेश सचिव विक्रम मिसरी के अनुसार, नरेंद्र मोदी और शी जिनपिंग बुधवार को ब्रिक्स समिट के दौरान एक द्विपक्षीय बैठक भी करेंगे।
मोदी-शी के बीच पुतिन और…
मोदी और शी के बीच आखिरी मुलाकात अक्टूबर 2019 में मामल्लपुरम में एक अनौपचारिक शिखर सम्मेलन के दौरान हुई थी। फिर चीन ने पूर्वी लद्दाख में एलएसी पर अतिक्रमण करने की कोशिशें कीं और रिश्ते बिगड़ते गए। चार साल से ज्यादा समय से दोनों देशों के बीच सीमा पर तनाव की स्थिति रही। जून 2020 में गलवान घाटी में हुई झड़प के बाद से दोनों देशों के रिश्तों में काफी कड़वाहट आ गई थी। यह झड़प दोनों देशों के बीच दशकों में हुई सबसे गंभीर सैन्य झड़प थी। लेकिन अब भारत-चीन ने तनाव से पहले की स्थिति में लौटने का फैसला किया है। कई दौर की कूटनीतिक और सैन्य वार्ताओं के बाद भारत-चीन ने ब्रिक्स समिट से ठीक पहले पुराने पेट्रोलिंग अरेंजमेंट को ही मानने पर रजामंदी जताई।
21वीं सदी, एशिया की सदी
हाल के महीनों में भारत-चीन के वरिष्ठ नेताओं के बीच कई बैठकें हुई हैं। विदेश मंत्री एस जयशंकर ने 4 जुलाई को कजाकिस्तान में शंघाई सहयोग संगठन (SCO) शिखर सम्मेलन और 25 जुलाई को लाओस में आसियान से जुड़ी बैठकों के दौरान चीनी विदेश मंत्री वांग यी से मुलाकात की। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने भी 12 सितंबर को सेंट पीटर्सबर्ग में ब्रिक्स की बैठक के दौरान वांग यी से मुलाकात की थी।
तमाम दबावों के बावजूद भारत की तरफ से रूस के साथ रिश्तों को निबाहने से तनिक भी बाज नहीं आना और अब चीन के साथ तनाव खत्म करना, अमेरिका और उसकी अगुवाई वाले वर्ल्ड ऑर्डर के लिए सिरदर्द से कम नहीं। भारत, चीन का आपसी तालमेल और रूस का सहयोग 21वीं सदी को एशिया की सदी होने की भविष्यवाणी सही साबित करने पहली शर्त है। कजान से आई तस्वीरें इसी शर्त को पूरी करती दिख रही हैं।
ब्रिक्स से अमेरिकी दबदबे को चुनौती
भारत, रूस और चीन के सिवा अगर पूरे ब्रिक्स की बात करें तो यह दुनिया का सबसे तेजी से उभरता गठबंधन है जिसमें ज्यादा-से-ज्यादा देश शामिल होने को उतावले हो रह हैं। यहां तक कि अमेरिकी नेतृत्व के गठबंधन नाटो का सदस्य देश तुर्की भी ब्रिक्स की सदस्यता लेने के लिए बेकरार है। यह निश्चित रूप से अमेरिका के लिए चिंता का सबब होगा। सिर्फ इसी वर्ष ब्रिक्स समूह में 10 देशों की आमद हुई। इनमें मिस्र, इथियोपिया, ईरान, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) जैसे देश शामिल हैं। सऊदी अरब ने अभी औपचारिक रूप से सदस्यता नहीं ली है।
ब्रिक्स समूह के देशों की वैश्विक अर्थव्यवस्था में 35% और आबादी में 45% हिस्सेदारी है। अनुमान है कि इस दशक के अंत तक ब्रिक्स की इकॉनमी बढ़कर 37% हो जाएगी जबकि पश्चिमी देशों के समूह जी-7 की इकॉनमी इस दौरान 30% से घटकर 28% रह जाएगी। ब्रिक्स के संस्थापक सदस्यों में भारत और चीन की ताकत से दुनिया अच्छी तरह वाकिफ है और पश्चिम इसका निहितार्थ बहुत अच्छे से समझता है। चीन कई क्षेत्रों में अमेरिका को पीछे छोड़ चुका है तो भारत तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है। पिछले 10 वर्षों में भारत ने 11वीं से 5वीं अर्थव्यवस्था बनने का कीर्तिमान बनाया है और साल-दो साल में ही दो पायदान की छलांग लगाकर तीसरी अर्थव्यस्था होने का गौरव भी हासिल करेंगे। दूसरे पायदान पर चीन है। दूसरी और तीसरी अर्थव्यस्थाएं अगर संघर्ष का रास्ता छोड़कर सहयोग की नीति अपना लें तो पहले पायदान पर बैठे अमेरिका का सिंहासन जरूर डोलने लगेगा।
खालिस्तानियों के बहाने भारत की नाक में दम
अमेरिका वर्ल्ड लीडर के अपने ताज को बचाने के लिए ही साम दाम दंड भेद, हर नीति का धड़ल्ले से इस्तेमाल करता है। वह भारत के साथ दोस्ती का हाथ बढ़ता है तो पीछे से वार भी कर देता है। अमेरिका की भारत के साथ रणनीतिक साझेदारी है, फिर भी वह कभी मानवाधिकार तो कभी प्रेस की स्वतंत्रता तो कभी अल्पसंख्यकों के अधिकार, किसी ना किसी बहाने से भारत को बुली करने से बाज नहीं आता है। अभी खालिस्तानी आतंवादी संगठन सिख्स फॉर जस्टिस (एसएफजे) के संस्थापक गुरपतवंत सिंह पन्नू की हत्या की कथित साजिश के मामले में भारत को असहज करने की कोशिशें करता दिखा है। उसने कनाडा में खालिस्तानी आतंकी हरदीप सिंह निज्जर की हत्या के मामले में भी भारत पर दबाव बनाना चाहता है।
अमेरिका का दबाव और रूस-भारत की दोस्ती
अमेरिका ने यूक्रेन युद्ध के शुरू होते ही रूस को दुनिया में अलग-थलग करने की तमाम कोशिशें कीं, लेकिन भारत इस उद्देश्य में बड़ी बाधा बनकर खड़ा हो गया। आज जब रूस में ब्रिक्स का 16वां शिखर सम्मेलन हो रहा है और भारत-चीन समेत दुनिया के कई ताकतवर देश के प्रतिनिधि पहुंचे हैं तो अमेरिका का अजेंडा पूरी तरह फेल हो गया है। युद्ध अभी खत्म नहीं हुआ है और युद्ध के बीच इतने बड़े सम्मेलन का आयोजन बताता है कि रूस आर्थिक रूप से भी कमजोर नहीं पड़ा है जो अमेरिका का सपना था। इन सब तथ्यों के बीच मुस्कुराते मोदी, पुतिन और शी की तस्वीर अमेरिका के कलेजे पर मूंग दलने जैसी है।
डीडॉलराइजेशन का अभियान और भारत
इधर, भारत ने रूस-यूक्रेन युद्ध में स्पष्ट कर दिया है कि रणनीतिक स्वायत्तता (स्ट्रैटिजिक ऑटोनमी) की नीति से टस से मस नहीं होने वाला। यह अमेरिका को और भी खलता है। रूस पर अमेरिकी प्रतिबंधों के बावजूद भारत ने न केवल व्यापारिक रिश्ते कायम रखे बल्कि इस पर सवाल उठाने पर पश्चिम को कड़े शब्दों में आईना भी दिखाया। दूसरी तरफ, भारत ने डॉलर के वेपनाइजेशन के खिलाफ भी बड़ी पहल की। भारत ने रूस के साथ रुपया-रूबल में व्यापार करके डीडॉलराइजेशन के अभियान को गति दी है। यह अमेरिकी दबदबे को बड़ा झटका है। सिर्फ भारत-रूस ने डॉलर से किनारा किया, अगर पूरा ब्रिक्स समूह इसी रास्ते पर चल पड़ा तो अमेरिका का क्या हाल होगा, यह उसे अच्छे से पता है।