लोकसभा चुनाव से पहले रामेश्वरम के पास एक वीरान द्वीप अब नया राजनीतिक मुद्दा बन गया है. ये द्वीप है कच्चाथीवु. पीएम मोदी ने ये इस मुद्दे को हवा देते हुए कांग्रेस पर आरोप लगाया है कि 1974 में इंदिरा गांधी सरकार ने कच्चाथीवु द्वीप श्रीलंका को सौंपकर देश की अखंडता को नुकसान पहुंचाया है.
वहीं कांग्रेस ने 2015 में बांगलादेश से समझौता करके और गलवान घाटी का मुद्दा उठाकर पीएम मोदी पर पलटवार किया है. चलिए इस स्पेशल स्टोरी में हम आपको कच्चाथीवु द्वीप की पूरा कहानी बताते हैं. यहां आप जानेंगे कच्चाथीवु कहां है, क्या इंदिरा गांधी ने सच में कच्चाथीवु श्रीलंका को सौंप दिया था, कैसे श्रीलंका के पास गया, क्यों अहम है कच्चाथीवु, क्या भारतीय यहां जा सकते हैं, किस धर्म के लोग यहां रहते हैं
कहां है कच्चाथीवु?
कच्चाथीवु श्रीलंका की सीमा में आने वाला एक द्वीप है, लेकिन ये भारत की सीमा से काफी नजदीक है. ये पाल जलडमरूमध्य (Palk Strait) में स्थित है, जो भारत में रामेश्वरम और श्रीलंका के बीच का रास्ता है.
पहले, 163 एकड़ में फैला इस छोटे से द्वीप को भारत और श्रीलंका दोनों देशों के मछुआरे इस्तेमाल करते थे. ये द्वीप पहले मद्रास प्रेसीडेंसी का हिस्सा भी था. साल 1974 में भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ‘भारत-श्रीलंका समुद्री समझौते’ पर हस्ताक्षर किए थे. इस समझौते के बाद कच्चाथीवु द्वीप श्रीलंका का हिस्सा बन गया. इस समझौते में पाक जलडमरूमध्य और पाक खाड़ी के ऐतिहासिक जलों का जिक्र किया गया था.
क्या है कच्चाथीवु का इतिहास?
कच्चाथीवु द्वीप का इतिहास काफी पुराना तो नहीं है, लेकिन दिलचस्प जरूर है. दरअसल ये ज्वालामुखी फटने से बना है और ये घटना लगभग 14वीं सदी की है. यह द्वीप 1.6 किलोमीटर लंबा और लगभग 300 मीटर चौड़ा है.
शुरुआती मध्यकाल में श्रीलंका के जाफना राज्य का इस द्वीप पर राज चलता था. 17वीं सदी में रामेश्वरम से करीब 55 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में स्थित रामनाथपुरम की रमनद जमींदारी ने इस द्वीप पर कब्जा कर लिया. ब्रिटिश राज के दौरान, ये द्वीप मद्रास प्रेसीडेंसी का हिस्सा बन गया.
मगर 1921 में एक पेचीदा स्थिति सामने आई. उस समय भारत और श्रीलंका दोनों ही ब्रिटिश उपनिवेश थे, लेकिन दोनों देशों ने कच्चाथीवु द्वीप पर अपना दावा ठोक दिया. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि दोनों देश ये तय करना चाहते थे कि उनके मछुआरे कहां तक मछली पकड़ सकते हैं.
एक सर्वेक्षण में तो कच्चाथीवु को श्रीलंका का हिस्सा बताया गया, लेकिन भारत की ओर से आए अंग्रेजों के एक दल ने इसका विरोध किया. उनका कहना था कि रमनद जमींदारी इस द्वीप की असली मालिक हैं. ये विवाद 1974 तक चलता रहा जब आखिरकार इसे सुलझा लिया गया.
क्या इंदिरा गांधी ने श्रीलंका को सौंप दिया कच्चाथीवु?
साल 1974 में भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भारत और श्रीलंका के बीच समुद्री सीमा तय करने के एक समझौता किया. इस समझौते को ‘भारत-श्रीलंका समुद्री समझौता’ के नाम से जाना जाता है.
समझौते के तहत, इंदिरा गांधी ने कच्चाथीवु द्वीप को श्रीलंका को सौंप दिया. उस वक्त उन्हें लगा कि इस द्वीप का कोई खास महत्व नहीं है और भारत अगर इस पर अपना दावा छोड़ देता है, तो इससे दोनों देशों के रिश्ते मजबूत होंगे.
क्या भारतीयों के क्या हैं अधिकार?
1974 के समझौते में कच्चाथीवु द्वीप को श्रीलंका को सौंप दिया गया था, लेकिन भारतीय मछुआरों को कुछ अधिकार भी दिए गए थे. समझौते में लिखा था कि भारतीय मछुआरे पहले की तरह वहां जा सकते हैं. लेकिन, दुर्भाग्य से इस समझौते में मछली पकड़ने के अधिकारों को स्पष्ट रूप से नहीं बताया गया.
श्रीलंका का मानना है कि भारतीय मछुआरों को कच्चाथीवु द्वीप जाने की इजाजत सिर्फ वहां आराम करने, जाल सुखाने और वीजा लिए बिना कैथोलिक चर्च जाने की है. इसके बाद साल 1976 में भारत में आपातकाल के दौरान एक और समझौता हुआ. इस समझौते के अनुसार, कोई भी देश दूसरे देश के खास आर्थिक क्षेत्र (Exclusive Economic Zone- EEZ) में मछली नहीं पकड़ सकता था. कच्चाथीवु द्वीप दोनों देशों के EEZ के ठीक बीच में स्थित है, जिस वजह से मछली पकड़ने के अधिकारों को लेकर अब भी थोड़ी उलझन बनी हुई है.
तमिलनाडु की राजनीति में क्यों बार-बार उठता है ये मुद्दा
तमिलनाडु सरकार कच्चाथीवु श्रीलंका को देने के फैसले से खुश नहीं थी. उनका कहना है कि कच्चाथीवु को श्रीलंका को सौंपने का फैसला बिना तमिलनाडु विधानसभा की सलाह लिए लिया गया था. उसी वक्त इंदिरा गांधी के इस फैसले के खिलाफ कड़े विरोध प्रदर्शन हुए थे. विरोध करने वालों का कहना था कि इस द्वीप पर पहले रामनद जमींदारी का राज था और भारतीय तमिल मछुआरों के परंपरागत मछली पकड़ने के अधिकारों को नजरअंदाज कर दिया गया.
1991 में श्रीलंका के गृहयुद्ध में भारत के दखल के बाद, तमिलनाडु विधानसभा ने फिर से कच्चाथीवु को वापस लेने और तमिल मछुआरों के मछली पकड़ने के अधिकार बहाल करने की मांग की. तब से लेकर आज तक, कच्चाथीवु का मुद्दा तमिलनाडु की राजनीति में बार-बार उठता रहता है.
2008 में तमिलनाडु की उस समय की मुख्य विपक्षी पार्टी अन्नाद्रमुक (AIADMK) की मुखिया स्वर्गीय जयललिता ने अदालत में एक याचिका दायर की थी. याचिका में कहा था कि संविधान में संशोधन किए बिना कच्चाथीवु को किसी दूसरे देश को नहीं सौंपा जा सकता. याचिका में ये भी दलील दी गई थी कि 1974 के समझौते ने भारतीय मछुआरों के परंपरागत मछली पकड़ने के अधिकार और उनकी रोजी-रोटी को प्रभावित किया है.
साल 2011 में मुख्यमंत्री बनने के बाद, उन्होंने राज्य विधानसभा में एक प्रस्ताव पारित करवाया और 2012 में सुप्रीम कोर्ट में यह कहते हुए याचिका दायर की कि श्रीलंका की ओर से भारतीय मछुआरों की लगातार गिरफ्तारियों के मद्देनजर उनकी याचिका पर तेजी से सुनवाई होनी चाहिए.
कच्चाथीवु क्यों तमिलनाडु के लिए महत्वपूर्ण?
कच्चाथीवु के इर्द-गिर्द मछली पकड़ने जाने वाले ज्यादातर भारतीय मछुआरे तमिलनाडु से हैं. जब श्रीलंकाई अधिकारी उन्हें पकड़ लेते हैं तो परेशानी उन्हीं को होती है. 1974 में जब श्रीलंका के साथ समझौता हुआ था, उस वक्त तमिलनाडु में डीएमके पार्टी सत्ता में थी. डीएमके का कहना है कि केंद्र सरकार ने उनकी राय लिए बिना ही ये समझौता कर लिया. उस समय डीएमके ने काफी विरोध प्रदर्शन भी किए थे.
पिछले साल जब श्रीलंकाई प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे भारत दौरे पर आने वाले थे, उससे पहले तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने प्रधानमंत्री मोदी को चिट्ठी लिखकर इस मुद्दे पर बातचीत की मांग की थी. उसी तरह जब श्रीलंकाई नौसेना ने कई मछुआरों को हिरासत में लिया था, तब भी उन्होंने पीएम मोदी को चिट्ठी लिखी थी.
अपनी चिट्ठी में एमके स्टालिन ने लिखा था, ‘कच्चाथीवु सदियों से चली आ रही पारंपरिक मछली पकड़ने की जगह है. अब उनके लिए रोजी-रोटी कमाना मुश्किल हो रहा है और पूरे समुदाय की आर्थिक स्थिति पर असर पड़ रहा है. साथ ही, इससे पूरे इलाके का सामाजिक और सांस्कृतिक ताना-बाना भी खतरे में पड़ जाएगा, जो कि मछली पकड़ने के धंधे पर ही टिका हुआ है.’
क्या भारतीय जा सकते हैं कच्चाथीवु?
हां, बिल्कुल. भारत-श्रीलंका समुद्री समझौते के तहत भारतीय कच्चाथीवु जा सकते हैं. वहां जाने के लिए भारतीय पासपोर्ट या श्रीलंका वीजा की जरूरत नहीं होती है. आमतौर पर भारतीय तीर्थयात्रियों को रामेश्वरम से ही कच्चाथीवु ले जाया जाता है. लेकिन कोई भी भारतीय वहां रह नहीं सकता है. ये दोनों देशों के बीच हुए एक समझौते के तहत है.
कच्चाथीवु का क्या है महत्व
कच्चाथीवु द्वीप पर सिर्फ एक ही इमारत है, जो वहां 20वीं सदी की शुरुआत में बनी थी. ये एक कैथोलिक चर्च है, जिसका नाम है- सेंट एंथनी चर्च. यहां हर साल एक विशेष उत्सव मनाया जाता है, भारत और श्रीलंका दोनों देशों के पुजारी मिलकर वहां धार्मिक कार्यक्रम करते हैं.
इस उत्सव में हिस्सा लेने के लिए भारत और श्रीलंका दोनों देशों से श्रद्धालु आते हैं. साल 2023 में ही इस उत्सव में शामिल होने के लिए लगभग 2500 भारतीय श्रद्धालु रामेश्वरम से कच्चाथीवु द्वीप गए थे. खास बात ये है कि कच्चाथीवु द्वीप पर रहने के लिए कोई भी स्थायी रूप से नहीं रह सकता क्योंकि वहां पीने का पानी नहीं मिलता है.
देश की सुरक्षा के लिए क्यों अहम है कच्चाथीवु
1974 में कच्चाथीवु का बहुत कम रणनीतिक महत्व का माना जाता था. लेकिन पिछले कुछ दशकों में चीन के उदय और श्रीलंका पर इसके बढ़ते प्रभाव के कारण स्थिति बदल गई है. पिछले दशक में दुनिया की राजनीति का नक्शा बदल गया है. चीन ताकतवर बनता जा रहा है और श्रीलंका पर उसका प्रभाव बढ़ रहा है. इस वजह से अब ये द्वीप भारत की सुरक्षा के लिए रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण हो गया है.
कच्चाथीवु पर तमिलनाडु सरकार कटघरे में क्यों?
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री और डीएमके नेता एमके स्टालिन इस बार का लोकसभा चुनाव कांग्रेस के साथ इंडिया गठबंधन में मिलकर लड़ रहे हैं. इस कारण बीजेपी तमिलनाडु सरकार पर भी हमलावर है.
पीएम मोदी ने अपने ताजा पोस्ट में कहा, ‘DMK ने बयानबाजी के अलावा तमिलनाडु के हितों की रक्षा के लिए कुछ काम नहीं किया है. कच्चाथीवु पर सामने आए नए बयानों ने डीएमके के दोहरे रवैये को पूरी तरह से उजागर कर दिया है. कांग्रेस और डीएमके एक हैं. उन्हें सिर्फ इस बात की परवाह है कि उनके अपने बेटे-बेटियां आगे बढ़ें. उन्हें किसी और की फिक्र नहीं है. कच्चाथीवु पर उनकी बेरुखी ने हमारे गरीब मछुआरों और मछुआरा महिलाओं के हितों को नुकसान पहुंचाया है.’
कांग्रेस ने बीजेपी पर क्या आरोप लगाए
कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खरगे ने भी इस मामले पर कहा कि 1974 के समझौते में कच्चाथीवु द्वीप को श्रीलंका को सौंपना एक ‘दोस्ताना सहयोग’ था, ठीक उसी तरह जैसे प्रधानमंत्री मोदी के पहले कार्यकाल में भारत और बांग्लादेश के बीच हुए ‘भूमि सीमा समझौता’ हुआ था.
उन्होंने आगे कहा, ‘तमिलनाडु में चुनाव से पहले आप इस संवेदनशील मुद्दे को उठा रहे हैं, लेकिन 2014 में आपकी ही सरकार के अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि कच्चाथीवु 1974 के एक समझौते के तहत श्रीलंका का हो गया. इसे अब वापस कैसे लिया जा सकता है? अगर आप कच्चाथीवु वापस चाहते हैं तो इसके लिए आपको लड़ाई लड़नी होगी.’
‘विपक्ष ऐसे पेश आ रहा है जैसे ये सुलझाना हमारी सरकार का काम’
वहीं विदेश मंत्री एस जयशंकर ने भी कांग्रेस और सत्तारूढ़ डीएमके पर कच्चाथीवु द्वीप के मुद्दे पर निशाना साधा है. उनका कहना है कि इस द्वीप को श्रीलंका को सौंपने के कारण श्रीलंकाई नौसेना ने बड़ी संख्या में भारतीय मछुआरों को पकड़ा है और उनकी नाव को जब्त कर लिया. उन्होंने बताया कि तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री एम करुणानिधि ने केंद्र सरकार को इस बारे में कई बार चिट्ठी लिखी थीं जिनका जवाब भी दिया गया.
विदेश मंत्री जयशंकर ने आगे कहा कि कच्चाथीवु का मुद्दा अचानक सामने नहीं आया है, बल्कि ये एक ‘संवेदनशील मुद्दा’ है. इस पर संसद में और तमिलनाडु में खूब बहस हो चुकी है. केंद्र सरकार और राज्य सरकार के बीच भी इस पर चिट्ठी-पत्री हो चुकी है. कांग्रेस और DMK ऐसे पेश आ रहे हैं मानों कि इसे आज श्रीलंका को सौंपा गया है और इसे सुलझाना आज की केंद्र सरकार की जिम्मेदारी है. वो इसे इस तरह दिखाना चाहते हैं.
जयशंकर ने चुटकी लेते हुए कहा, ‘अब तो हमें न सिर्फ ये पता चल गया है कि किसने कच्चाथीवु श्रीलंका को सौंपा बल्कि ये भी पता चल गया है कि किसने इसे छिपाया.’ इससे एक दिन पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी सत्ताधारी DMK पर हमला बोलते हुए इस मुद्दे पर मौन रहने का आरोप लगाया था.