र्नाटक के चुनाव परिणाम की तस्वीर साफ हो चुकी है। कांग्रेस ने बहुमत के लिएजरूरी ११३ सीटों के जादुई आंकड़़े से कहीं ज्यादा सीटें जीतकर राज्य में अपनी सरकार बनाने का मंसूबा पूरा कर लिया है। यद्यपि मैंने २ मई को छपे अपने लेख में लिख दिया था कि कांग्रेस कम से कम १२२ से १३२ तक सीट जीतेगी और जेडीएस २५ के आसपास रहेगी। बाकी बांट लीजिए। यह चुनाव लोक सभा चुनाव से पहले दक्षिण भारत के बड़े प्रदेश का चुनाव था और एक ऐसे प्रदेश का चुनाव था जहां राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा में अच्छा समय दिया था। यह एक ऐसे प्रदेश का चुनाव था जहां के नेता मल्लिकार्जुन खड़़गे कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने गए हैं‚ और स्वाभाविक तौर पर प्रधानमंत्री पद हेतु एक मजबूत चेहरा हैं।
जिस तरह से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने चुनाव खुद बनाम कांग्रेस बना दिया और यहां तक बोल दिया कि एक शाही परिवार देश के सम्मान और सुरक्षा से समझौता कर रहा है‚ विदेशी दूतों से गोपनीय मुलाकात करता है‚ और नहीं चाहता कि कर्नाटक भारत में रहे‚ साथ ही‚ भारत की जय या भाजपा की जय की बजाय बजरंगबली की जय का नारा लगवा रहे थे तो इस बात का भी चुनाव था कि मोदी जी का आकर्षण अब कितना है। इस बात का भी चुनाव था कि अमित शाह का चाणक्य ज्ञान अब कितना प्रखर है‚ और इस बात का भी चुनाव था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस)‚ जिसके बारे में हर जीत के बाद दावा किया जाता है कि उसका संगठन गांव–गली तक है और वही भाजपा की जीत का आधार है‚ की असल में सच्चाई और ताकत क्या है। जिस तरह एकजुट होकर और आक्रामक होकर पिछले १५/२० साल में पहली बार काग्रेस लड़ती हुई दिखी और एजेंडा सेट करती दिखी तो चुनाव इस बात का भी था कि क्या कांग्रेस सत्ता मोह से बाहर निकल कर विपक्ष बन चुकी है‚ क्या कांग्रेस में मुद्दों को पहचान लिया है‚ और क्या राहुल गांधी‚ प्रियंका गांधी सहित सभी नेताओं ने जनता की भाषा और समझ को समझ लिया है। आज जो भी ‘ना काहू से दोस्ती‚ ना काहू से बैर’ की तर्ज पर समीक्षा करेगा‚ उसकी कसौटियां निश्चित तौर पर यही होनी चाहिए।
यद्यपि फैसला तो जनता ही करती है और हर जीत जनता की ही होती है परंतु जीत के कारकों में संगठन‚ कार्यकर्ताओं की मेहनत और नेतृत्व की रणनीति‚ भाषा‚ आक्रमण‚ मुद्दों को श्रेय दिया जाता है। इस बार इस मामले में निश्चित तौर पर कांग्रेस इक्कीस साबित हुई है‚ और कांग्रेस नेतृत्व ने कोई भी गलती नहीं की जबकि भाजपा घबरा कर फिर धार्मिक मुद्दे की तरफ मुड़ गई। बिना यह समझे कि कर्नाटक पढ़ा–लिखा प्रदेश ही नहीं है‚ बल्कि आईटी का हब भी है। मेरे जानने वालों ने बताया कि बजरंगबली का चुनाव और सभाओं में प्रयोग करना वहां की जनता को रास नहीं आया विशेषकर नौजवानों को‚ जिनकी आबादी करीब ६५% है। वहां लोगों को यह भी चुभा कि बेंगलुरू से सरकार इतने दिनों से चलाने वालों को चुनाव अपने काम पर लड़ना चाहिए तथा जनता को पिछले चुनाव के वादे बताते हुए बताना चाहिए कि उनमें से क्या–क्या पूरा कर दिया और क्या–क्या और कर दिया जो नहीं कहा था पर उसके स्थान पर यह फिसलन जनता को पसंद नहीं आई।
यद्यपि चुनाव में दोनों पक्षों ने पूरी ताकत झोंक दी थी तथा अपने तरकश में हर तीर का इस्तेमाल किया तो परिणामस्वरूप ऐसे स्थानों पर वोट परसेंटेज बढ़ता है। २०१८ में भाजपा को ४६‚४३ % वोट पड़ा जबकि कांग्रेस को ३५‚७१% तो जेडीएस को २६‚ ५२ % वोट पड़ा जबकि इस बार कांग्रेस को ४३% से ज्यादा‚ भाजपा को ३६‚८१ और जेडीएस को १३‚३७% वोट आता नजर आ रहा है। इसका अर्थ है कि कांग्रेस ने करीब ८% वोट की बढ़त हासिल की है तो भाजपा ने १०% के आसपास वोट खोया तो जेडीएस ने करीब ३% वोट खोया है। आने वाले दिनों में विश्लेषण होने पर पता चलेगा कि भाजपा और जेडीएस के खोए वोट में और किसने सेंधमारी की है। एक चीज यह भी दिखलाई पड़ रही है कि इधर के चुनावों‚ जो पिछले कुछ समय में हुए हैं‚ में देखा गया है कि कि जनता तीसरे पक्ष के लोगों को ज्यादा तवज्जो देने के मूड में नहीं है‚ और न वोट खराब करना चाहती है तथा न खरीद–फरोख्त और आया राम गया राम के लिए दरवाजे खोलना चाहती है। उत्तर प्रदेश‚ बंगाल‚ बिहार सहित कई प्रदेशों में ऐसा ही दिखा। कर्नाटक में पूर्व प्रधानमंत्री देवेगौड़ा के आधार का सम्मान भी हुआ है पर उतना ही कि वो सीटों को लेकर मोलभाव न कर सकें।
यह चुनाव यद्यपि प्रदेश का चुनाव है लेकिन आने वाले प्रदेशों के चुनाव के साथ–साथ देश के चुनाव को भी प्रभावित करने वाला साबित होगा क्योंकि इस परिणाम से देश की दूसरी बड़ी पार्टी कांग्रेस में विश्वास बढ़ेगा तो उसका नेतृत्व भी मजबूत होगा और अभी तक उसे ज्यादा भाव न देने वालों और उससे बात न करने वालों को भी पुनः विचार करने को मजबूर होना पड़े़गा। खड़़गे के इसी प्रदेश से होने के कारण और सिद्धरमैया तथा शिवकुमार की एकता का परिणाम लोक सभा में कर्नाटक से अधिकतम सांसद कांग्रेस के होंगे‚ ऐसा अभी से समझा जा सकता है। आने वाले चुनाव में जहां चंद्रशेखर राव मजबूत दिखेंगे वहीं मध्य प्रदेश‚ छत्तीसगढ़ और राजस्थान मजबूती से कांग्रेस को कर्नाटक का फल देने की सोचेगा और यदि कहीं राहुल गांधी ने खुद को प्रधानमंत्री की दौड़ से बाहर बताते हुए यह कह दिया कि ७७ साल होने को हैं‚ और अब देश को एक दलित प्रधानमंत्री चुन लेना चाहिए तो उम्मीद की जा सकती है कि २०२४ में कांग्रेस की सुनामी देखने को मिलेगी। फिलहाल‚ उम्मीद की जानी चाहिए कि कांग्रेस नेतृत्व संंयत व्यवहार करेगा और तुरंत गंभीरता से आगे के मुद्दों पर काम शुरू कर देगा।
फैसला तो जनता ही करती है और हर जीत जनता की ही होती है परंतु जीत के कारकों में संगठन‚ कार्यकर्ताओं की मेहनत और नेतृत्व की रणनीति‚ भाषा आदि मुद्दों को भी श्रेय जाता है। निश्चित ही कांग्रेस इक्कीस साबित हुई है‚ और कांग्रेस नेतृत्व ने कोई भी गलती नहीं की जबकि भाजपा घबरा कर फिर धार्मिक मुद्दे की तरफ मुड़ गई। बिना समझे कि कर्नाटक पढ़ा–लिखा प्रदेश ही नहीं है‚ बल्कि आईटी का हब भी है। बजरंगबली का चुनाव और सभाओं में प्रयोग जनता को रास नहीं आया विशेषकर नौजवानों को‚ जिनकी आबादी करीब ६५ प्रतिशत है। वहां लोगों को यह भी चुभा कि बेंगलुरू से सरकार इतने दिनों से चलाने वालों को चुनाव अपने काम पर लड़ना चाहिए तथा जनता को पिछले चुनाव के वादे की बाबत बताना चाहिए कि क्या–क्या पूरा हुआ और क्या नहीं किया जा सका। उसके स्थान पर फिसलन जनता को पसंद नहीं आई………..