बिहार के सीएम नीतीश कुमार पॉलिटिकल पिच पर क्या सच में तेजस्वी को प्रमोट करना चाहते हैं ? संकट की घड़ी में क्या वे वास्तव में लालू यादव के परिवार के साथ खड़े होंगे ? सीबीआई और ईडी की लालू परिवार के खिलाफ कार्रवाई पर जितने मुखर होकर तेजस्वी ने बीजेपी, खासकर केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह का नाम लेकर बयान दिया, उतना मुखर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार क्यों नहीं दिखते। ईडी-सीबीआई के एक्शन पर सीएम का तो सीधा जवाब यही है कि जिनके खिलाफ कार्रवाई चल रही है, वे उसका जवाब दे रहे हैं। पांच साल पुराना केस तब खुला है, जब सूबे में महागठबंधन की सरकार बन गयी है। नीतीश पर संदेह इसलिए होता है कि यादवों के साथ वे कभी खड़े नहीं दिखे। भरसक उन्होंने यादवों की टांग खींचने का काम ही अपने शासन काल में अधिक किया है।
यादवों की हमेशा टांग खींचते रहे हैं नीतीश
यादव बिरादरी के लोग भी इस बात को समझते हैं कि नीतीश तो हमेशा यादवों की टांग ही खींचते रहे हैं। यही वजह है कि महागठबंधन की सरकार में यादव अपना नेता नीतीश के मुकाबले तेजस्वी यादव को ही अधिक मानते हैं। बिहार के एक पत्रकार हैं वीरेंद्र कुमार यादव। उन्होंने यादव बिरादरी की नीतीश कुमार की ओर से उपेक्षा किये जाने के सिलसिलेवार आरोप लगाये हैं। वीरेंद्र यादव का कहना है कि नीतीश कुमार ने सदैव यादव जाति के खिलाफ जातीय गोलबंदी की राजनीति की है।
बुरा वक्त आने पर यादवों ने ही साथ दिया
इसके बावजूद खराब घड़ी में हरदम यादवों ने उनको संजीवनी दी है। 1989 में नीतीश कुमार के बाढ़ लोकसभा क्षेत्र से चुनाव जीतने में सबसे बड़ी भूमिका यादव जाति ने निभायी थी। उस चुनाव में यादवों ने अपनी जाति के नेता रामलखन सिंह यादव को हरा कर नीतीश को विजयी बनाया था।
नीतीश की राजनीति यादवों के खिलाफ रही
वीरेंद्र यादव बताते हैं कि 1994 में नीतीश ने यादवों के खिलाफ राजनीति की शुरुआत की। यादवों के खिलाफ गैर यादव पिछड़ों को अपने साथ गोलबंद किया। इसी ताकत के सहारे बीजेपी के साथ करीब दो दशक तक यादव विरोधी राजनीति करते रहे। लेकिन 2014-15 में जब नीतीश बेहद कमजोर पड़ गये थे। जीतनराम मांझी जैसे लोग उनके राजनीतिक अस्तित्व के लिए संकट बन गये थे। उस वक्त यादव ही उनके लिए संकटमोचक साबित हुए थे। 2015 में यादवों के वोटों की ताकत से सत्ता में वे वापस लौटे, लेकिन 2017 में अपने राजनीतिक लाभ के लिए यादव को छोड़ कर भाजपा के साथ चले गये। बीजेपी के साथ जाने का बहाना भी उन्होंने खोज लिया। सीबीआई जांच का ठीकरा तेजस्वी यादव के माथे पर फोड़ दिया। 2022 में जब भाजपा ने उनकी पार्टी को निगल जाने का पूरा इंतजाम कर लिया था, तब फिर यादवों ने ही उनकी पार्टी को भाजपा का निवाला बनने से बचाया। खराब वक्त में यादव ही नीतीश के लिए ढाल बनते रहे, लेकिन बेहतर दिन आने के बाद उन्होंने यादवों से मुंह मोड़ लेने में कभी कोताही नहीं की।
जिन पर ज्यादा भरोसा, उनसे ही धोखा
इसके विपरीत नीतीश ने जिन पर सबसे अधिक भरोसा किया, उसी ने उनकी गाड़ी को पंक्चर करने का कोई मौका नहीं छोड़ा। इसके कई उदाहरण हैं। 2014 में जीतनराम मांझी को नीतीश ने मुख्यमंत्री बनवाया। मांझी ने उनकी बोलती ही बंद करा दी थी। अपने स्वजातीय आरसीपी सिंह को नीतीश ने राजनीतिक ठेकेदार बनाया। एमपी से लेकर पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष तक उन्हें बनवा दिया, लेकिन उन्होंने नीतीश की सत्ता को बीच चौराहे पर नीलाम कर दिया। ताजा उदाहरण उपेंद्र कुशवाहा हैं। उपेंद्र कुशवाहा की राजनीतिक यात्रा नीतीश की अंगुली पकड़कर शुरू हुई थी। राजनीतिक पहचान नीतीश से ही मिली, लेकिन मौका आने पर उन्होंने नीतीश की बांह मरोड़ने से भी परहेज नहीं किया।
यादव विरोध नीतीश की राजनीति रही
दरअसल नीतीश कुमार की राजनीति 1994 में कुर्मी बिरादरी के उस सम्मेलन से परवान चढ़ी, जिसमें लव-कुश समीकरण की अवधारणा बनी थी। यादवों का विरोध नीतीश की प्राथमिकता थी। लालू-राबड़ी राज की खामियां-कमजोरियां गिना-बता कर वे गैर यादव पिछड़ी जातियों में लोकप्रिय होते गये। आखिरकार उन्हें अपने मकसद में कामयाबी मिली, जब 2005 में वे राबड़ी देवी को बेदखल कर सीएम की कुर्सी तक पहुंचने में सफल रहे। जिन यादवों ने समय-समय पर उनका साथ दिया, उन्हें वे किनारे लगाते गये। बाद में आरजेडी की के पारंपरिक मुस्लिम वोट में भी सेंध लगाने में नीतीश कामयाब रहे। नीतीश कुमार ने अपने अब तक के मुख्यमंत्रित्व काल में लालू-राबड़ी के परिवार की जितनी कटु आलोचना की, उतनी शायद कांग्रेस या किसी अन्य दल के नेताओं की उन्होंने कभी नहीं की।
नीतीश पर संदेह के कई कारण हैं
इस बार भी नीतीश पर संदेह के कई कारण हैं। पहला यह कि नीतीश नैतिकता के आधार पर महागठबंधन में जेडीयू को छोड़ दूसरे घटक दलों के सबसे अधिक समर्थन वाले आरजेडी के नेता तेजस्वी यादव के लिए सीएम की कुर्सी खाली करने को तैयार नहीं हुए। बीजेपी को छोड़ महागठबंधन के साथ आने पर अगर उन्होंने पहले वाली गलती नहीं दोहरायी होती तो शायद उनका कद और ऊंचा हो जाता। एनडीए में 43 सीटों के सहारे वे अधिक सीटों वाली बीजेपी के सहयोग से सीएम बनने को तैयार हो गये। महागठबंधन में उन्होंने यही शर्त रखी कि 2025 तक वे ही सीएम रहेंगे। तेजस्वी की बारी 2025 में ही आएगी। हालांकि आरजेडी के भीतर से बार-बार यह बात उठती है कि तेजस्वी यादव के लिए नीतीश कुमार सीएम की कुर्सी खाली करें। तीसरी और ताजा वजह यह है कि लालू-राबड़ी के परिवारीजनों के खिलाफ सीबीआई और ईडी ने जब पुराने मामलों में छापे मारे या पूछताछ के लिए समन जारी किया तो नीतीश शुरू में चुप रहे। जुबान खुली भी तो सीधे बीजेपी पर अटैक के बजाय औपचारिकतावश उन्होंने इतना भर ही कहा कि जिनके खिलाफ हो रहा है, वे जवाब दे रहे हैं।